santosh bhartiyaमै मकर संक्रांति से एक दिन पहले भारत की विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज से मिलने का इंतज़ार कर रहा था. उनसे मिलने वालों में काफी सारे वे लोग थे, जिनका भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से रिश्ता था. उन्हीं में संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी भी थे. उनमें आपस में काफी बातें हो रही थीं. संघ के उक्त वरिष्ठ पदाधिकारी ने कहा कि अब रिमोट कंट्रोल आतंकवादियों के हाथ में आ गया है. यह सुनते ही मेरे कान खड़े हुए और मैंने बातचीत के बीच में उन महोदय से पूछा कि आपकी राय में यह कितना सही है? उन्होंने कहा कि यह सही नहीं है.

आतंकवादियों के हाथ में रिमोट कंट्रोल नहीं होना चाहिए. मैंने कहा कि तो फिर क्यों सरकार इस बातचीत को टाल रही है? उन्होंने कहा कि आप अभी सरकार से मिलने जा रहे हैं, सरकार से यह बात अवश्य कहिएगा कि बातचीत नहीं टलनी चाहिए.इस छोटी-सी बातचीत ने कम से कम यह संकेत दिया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत-पाकिस्तान के बीच शुरू हुई बातचीत की इस प्रक्रिया को टालना नहीं चाहता. 

हालांकि, वहां बैठे लोग धर्मांधता के साथ पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात कर रहे थे और इस्लाम में धर्म को लेकर कितनी कट्टरता है, धर्म के लिए अपनी जान देने वाले स्वर्ग में क्या-क्या प्राप्त करेंगे, इसकी चर्चा कर रहे थे. मैं वहां से निकला और मुझे लगा कि भारत-पाकिस्तान के बीच बातचीत हो, यह वे लोग भी चाहते हैं, जो पाकिस्तान को मिटा देने की भाषा इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि उन्हें इस बात का एहसास है कि अब युद्ध आमने-सामने का नहीं है. हालांकि, इस तर्क पर वहां बैठे लोगों ने इराक का हवाला दिया कि आईएसआईएस आमने-सामने का युद्ध ही लड़ रहा है.

लेकिन, यह प्रश्न अपने आप में बना हुआ है कि कुछ व्यक्ति,जिनकी संख्या एक दर्जन हो सकती है, सौ हो सकती है, हज़ार हो सकती है, क्या वे इतने ताकतवर हैं कि भारत के 120-125 करोड़ और पाकिस्तान के 20 करोड़ यानी 140-145 करोड़ लोगों की भावनाओं को भटका सकते हैं या उनके हितों को बंधक बना सकते हैं? यह सवाल जिस गंभीरता से मेरे मन में उठ रहा है, उसी गंभीरता से यह हिंदुस्तान और पाकिस्तान के करोड़ों लोगों के मन में भी उठ रहा है.

शायद इसीलिए इसके तीसरे दिन वॉयस ऑफ अमेरिका के उर्दू प्रोग्राम में पाकिस्तान के एक वरिष्ठ लेफ्टिनेंट जनरल ने मेरी एक टिप्पणी के जवाब में कहा कि कश्मीर का सवाल हल होना चाहिए, लेकिन यह समय के साथ हल होगा. पर ग़रीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रा़ेजगार आदि दूसरे सवाल फौरन हल किए जा सकते हैं. मैं पाकिस्तान से बातचीत में पहली बार यह सुन रहा था कि टेलीविजन और रेडियो के ऊपर कोई यह कहे कि कश्मीर मसले का समाधान बाकी सवालों को हल करते-करते तलाशना चाहिए. पाकिस्तान में दहशतगर्दी का मुद्दा इस समय सबसे प्रमुख है, ठीक उसी तरह, जैसे हमारे देश में आतंकवाद धीरे-धीरे प्रमुख मुद्दा बनता जा रहा है.

पठानकोट की घटना के बाद पहली बार भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने अपना संपर्क नहीं तोड़ा, आपस में बातचीत कर संतुलित बयान दिए और यहां तक तय किया कि कब किस सरकार को क्या बयान देना है. यही नहीं, पाकिस्तान ने पहली बार आतंकवाद के उन केंद्रों के ऊपर हल्की ही सही, लेकिन कार्रवाई की, जो भारत में दहशत पैदा करना अपना मुख्य उद्देश्य मानते हैं. इसमें कोई दोराय नहीं कि सरकार चाहे पाकिस्तान की हो या भारत की, उसे मालूम है कि कौन से ऐसे खुले समूह हैं, जो एक-दूसरे के देश में नफरत पैदा करने का काम करते हैं.

पाकिस्तान द्वारा की गई कार्रवाई का जितना स्वागत होना चाहिए, उतना भारत ने किया, लेकिन हिंदुओं के नाम पर बने कुछ जेबी संगठनों ने इसमें रोड़े अटकाने का भी काम किया. हिंदू सेना नामक एक नामालूम-से जेबी संगठन ने पाकिस्तान एयरलाइंस के दफ्तर में घुसकर तोड़फोड़ की. यह गुस्सा नपुंसक गुस्सा है. ये वे लोग हैं, जो शांति प्रक्रिया को उसी तरह बाधित करना चाहते हैं, जिस तरह पाकिस्तान में खुले और छिपे तौर पर काम करने वाले धर्मांध संगठन करना चाहते हैं.

सड़क पर अकेले जाते हुए किसी व्यक्ति को पांच लोग पकड़ कर पीट दें और कहें कि हमने किसी बात का बदला ले लिया. इसे मैं नपुंसक गुस्सा कहूंगा. सीमा पर जवान चाहेे हमारी तऱफ का हो, चाहे पाकिस्तान की तऱफ का, जब वह गोली खाता है, तो मां रोती है. उस तऱफ की मां और इस तऱफ की मां के आंसुओं में कोई ़फर्क़ नहीं होता. इंसान की जान की क़ीमत जो नहीं समझते हैं, वे ही मुट्ठी लहरा कर मुंह से फेन निकालते हुए, नकली गुस्से का नकाब लगाकर दोनों देशों में युद्ध की बात करते हैं. मेरा यह मानना है कि जो युद्ध की बात करते हैं, उन्होंने कभी युद्ध देखा नहीं और कभी अपने शरीर के ऊपर चोट नहीं खाई.

आवश्यकता इस बात की है कि भारत-पाकिस्तान तत्काल बातचीत प्रारंभ करें और अपने हितों को किसीभी अशांतिप्रिय या दहशतगर्द समूह के हाथों में न सौंपें. भारत और पाकिस्तान की ज़्यादातर समस्याएं लगभग एक-सी हैं और जिस तरह सरकारों ने आपस की बातचीत का रास्ता चुना है, उसी तरह दोनों देशों के राष्ट्र प्रमुखों एवं राजनीतिज्ञों को दोनों देशों की जनता के साथ भी बातचीत करनी चाहिए तथा किस तरह से मिलकर विकास में आगे बढ़ा जाए, इसके रास्ते तलाशने चाहिए. वक्त आ गया है कि दोनों देशों की जनता, दोनों देशों का मीडिया ऐसी ताकतों को जवाब दे, जिन्हें हम दहशतगर्द या अशांतिप्रिय मानते हैं. प

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