आज भारत और इजरायल, जो कभी एक दूसरे के विरोधी हुआ करते थे, की मित्रता अपनी प्रगा़ढता के चरम पर है. दोनों देशों के नेता यात्राएं कर रहे हैं एवं विभिन्न क्षेत्रों में नई-नई संधियां की जा रही हैं. इस प्रकार भारत की इजरायल पर निर्भरता दिनों दिन ब़ढती जा रही है. ये तो आने वाला समय ही बताएगा कि भारत की इजरायल पर बढ़ती हुई निर्भरता का आखिरी अंजाम क्या होगा? प्रश्‍न तो यह है कि जो भारत आरंभ से इजरायल का विरोधी था, आज वही उसका सबसे ब़डा मित्र कैसे बन गया है. इजरायल की स्थापना के एक वर्ष बाद ही खुफिया तौर पर उससे हमदर्दी किसने की एवं उसकी स्थापना पर मुबारकबाद किसने दी, इन सब सच्चाई पर से पर्दा उठाती है ये रिपोर्ट…
chaha-neharuन्यूयॉर्क में स्थित यहूदी संगठन बनाई बृथ की संस्था एंटी डेफेमेशन लीग(एडीएल) ने मई 1987 में एक खुफिया रिपोर्ट तैयार की थी जिसका शीर्षक था इजरायल के विरुद्ध भारत की मुहिम. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत का कोई गुप्त एजेंडा है. इसका सबसे पहला संकेत मई 1949 में उस समय मिला जब संयुक्त राष्ट्र में भारत की विशेष प्रतिनिधि विजय लक्ष्मी पंडित ने वांशिगटन में इजरायली प्रतिनिधि एली चू इलैथ को यह जानकारी दी कि भारत के उसके मुस्लिम पड़ोसियों से संबंध में कठिनाइयों एवं देश में पैंतीस मिलियन मुसलमानों की समस्याओं ने अब तक भारत सरकार को हमारी(मध्य पूर्व) समस्या में अरब पक्ष के समर्थन करने को मजबूर कर रखा है. भारत सरकार इजरायल की स्वाधीनता संग्राम को सदैव हमदर्दी से देखती रही है एवं इजरायली राष्ट्र के बनने पर उसे मुबारकबाद देती है.
इसी रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि इस निजी मुलाकात में विजय लक्ष्मी पंडित ने इजरायली प्रतिनिधि को ये भी बताया कि उनके भाई पंडित जवाहर लाल नेहरू विभिन्न क्षेत्रों विशेषकर व्यापार एवं कल्चर में भारत एवं इजरायल के मध्य मजबूत संबंध बहाल करने में दिलचस्पी रखते हैं और इस बात की पुष्टि पांच मांह बाद स्वयं पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इजरायली प्रतिनिधि इलैथ एवं अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य एमनुअल सेलर से भेंट के दौरान कर दी.
उपरोक्त एडीएल रिपोर्ट कि सच्चाई का प्रमाण इस बात से मिलता है कि 1950 में भारत सरकार ने इजरायल को मान्यता दे दी थी एवं 1951 में इजरायल को मुंबई में वाणिज्य दूतावास खोलने की इजाजत भी मिल गई. फिर 1954 में प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने कहा कि उस प्रस्ताव के पक्ष या विपक्ष में नहीं हैं जिसमें यह कहा गया था कि इजरायल की स्थापना अंतरराष्ट्रीय कानून की अवहेलना है.
अंग्रेजी पाक्षिक फ्रंटलाइन(10 मई 2003) में अपने लेख डिसेंट इन इजरायल में प्रसिद्ध स्तंभकार ए.जी. नूरानी पंडित नेहरू के उपरोक्त बयान का हवाला देते हुए कहते हैं कि उन्होंने फलस्तीन में यहूदियों के आम बर्ताव का समर्थन करते हुए पत्रकार, लेखक एवं प्रसिद्ध अमेरिकी संस्था अमरिकन फ्रेड्स ऑफ ए जेविश फलस्तीन की कार्यकारणी सभा की सदस्य फ्रांसेस फाइन मैन गुंथर को एक पत्र भी लिखा था. वास्तव में मई 1949 से कांग्रेस का ये गुप्त एजेंडा था जो कि 29 जनवरी 1992 को पूरा हुआ एवं फिर भारत और इजरायल के बीच पूर्ण रूप से डिप्लोमेटिक संबंध स्थापित हो गए.
इन तमाम तथ्यों की रोशनी में ये बात पूरे विश्‍वास के साथ कही जा सकती है कि पंडित नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार ने 1950 में इजरायल को मान्यता देने के लिए इससे पूर्व बैक चैनल डिप्लोमेसी का भरपूर इस्तेमाल किया और इस काम को अंजाम दिया पंडित नेहरू की चहेती बहन विजय लक्ष्मी पंडित ने. उसके बाद 29 जनवरी 1992 को जब भारत से इजरायल के पूर्ण रूप से डिप्लोमेटिक संबंध बहाल हो गए तब भी पी वी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में केंद्र में कांग्रेस की अल्पसंख्यक सरकार मौजूद थी.
विजय लक्ष्मी पंडित और इजरायली प्रतिनिध एली चू इलैथ से बातचीत में इजरायल से हमदर्दी रखने और उसे मुबारक बाद देने के बावजूद इजरायल के समर्थन में खुलकर न आने एवं संबंध न रखने के जो कारण बताए गए हैं उसमें सच्चाई है. ये कारण तो दरअसल पंडित नेहरू की सरकार को मजबूर कर रहे थे कि इजरायल से सरकारी तौर पर दूरी बनाकर रखी जाय.
विडंबना तो यह है कि पंडित नेहरू की सरकार ने इस संबंध में फलस्तीन को लेकर न तो 1916 से विभिन्न अवसरों पर इंडियन नेशनल कांग्रेस के प्रस्तावों का लिहाज रखा और न ही ये याद रखा कि नवंबर 1947 में ये भारत ही था जिसने एक मात्र गैर मुस्लिम राष्ट्र के रूप में फलस्तीन के विभाजन के संबंध में सयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के खिलाफ वोट दिया था एवं 15 मई 1948 को भारत ने संयुक्त राष्ट्र को इजरायल की सदस्यता का पुरजोर अंदाज में विरोध किया था.
पंडित नेहरू सरकार का असल इरादा तो 1950 में इजरायल को मान्यता देने एवं 1951 में मुंबई में वाणिज्य दूतावास खोले जाने के बाद ही सामने आ गया था. मगर ये भी कटुसत्य है कि इजरायल से नजदीकी के मामले में हां एवं ना दोनों ही स्थिति रही. तभी तो भारत सरकार ने मुंबई में इजरायली वाणिज्य दूतावास को सीमित रखा एवं स्वयं इजरायल से डिप्लोमेटिक संबंध रखने में एक लंबे समय तक कन्नी काटता रहा यानि मुंबई में तो इजरायली प्रतिनिधि मौजूद रहे मगर तेल अवीव में भारतीय प्रतिनिधि न रखकर अरबों से हमदर्दी का ढोंग जताया जाता रहा. जहां तक मुंबई में इजरायली वाणिज्य दूतावास तक डिप्लोमेटिक संबंध का मामला है, यह जून 1967 के 6 दिनों के अरब-इजरायल युद्ध के दौरान बुरी तरह प्रभावित भी हुआ. सितंबर 1982 में भारत ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दौर में इजरायली वाणिज्य दूत को परसोना नॉन गराटा घोषित कर दिया एवं तुरंत ही देश छोड़कर चले जाने को कहा. उन दिनों इजरायली वाणिज्य दूत ने यह बयान दे दिया था कि नई दिल्ली सरकार की इजरायल विरोधी पोजिशन भारतीय लोकप्रिय राय का प्रतिनिधित्व नहीं करती है.
इसके अलावा उस समय स्थिति यह हो गई थी कि 1983 में वाणिज्य दूत के सिक्योरिटी ऑफिसर को चीफ प्रतिनिधि के तौर पर सेवा अंजाम देनी पड़ी. 1977 से लेकर 1979 तक जनता पार्टी की सरकार की दौर में इजरायल के संबंध में विदेश नीति पहले जैसी रही. उस समय के विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इसे लागू रखा. वैसे ये अलग बात है कि उन दिनों जनता पार्टी के सचिव और भारतीय जनता पीर्टी के वरिष्ठ नेता डॉ. सुब्रमन्यन स्वामी ने इस विराम को खत्म करने के लिए इजरायल का दौरा किया. उस समय भारत सरकार का पक्ष इतना सैद्धांतिक था कि उसने इजरायली डिप्लोमेट को सार्वजनिक तौर पर बयान देने या प्रेस कांफ्रेंस करने की अनुमति नहीं दी.
कांग्रेस की न उगलते चैन और न ही निगलते चैन वाली स्थिति ने मध्य पूर्व के संबंध में स्पष्ट विदेश नीति नहीं बनने दी. उसकी ये नीति राष्ट्र पिता महात्मा गांधी के साप्ताहिक हरिजन(26 नवंबर 1938) में उनके ऐतिहासिक लेख यहूदी फलस्तीन में उनकी निम्नलिखित राय को मुंह चिढ़ाती रही…
मुझसे अक्सर अरब यहूदी समस्या पर राय पूछी जाती है. यहूदी निसंदेह इस समय अपना कोई राष्ट्र नहीं रखते मगर उन्हें जोर जबरदस्ती से फलस्तीन पर कब्जा नहीं करना चाहिए. ये बात न्याय के सिद्धांतों पर पूरी नहीं उतरती. इसलिए फलस्तीन में अरबों को बेदखल करके वहां यहूदी राष्ट्र स्थापित करने का विचार मुझे नहीं भाता. फलस्तीन अरबों का उतना ही है जितना कि अंग्रजों का और फ्रांसीसियों का.


भारत इजरायल संबंध (1948-1992)
क्या कहता है इजरायली मीडिया:- इजरायली मीडिया की इस संबंध में एक विशेष सोच है. यहां प्रसिद्ध इजरायली पत्रकार क्लिफ पेंटो का दैनिक दी टाइम्स ऑफ इजरायल(5 फरवरी 2013) में प्रकाशित लेख पेश किया जा रहा है, जिससे इजरायली मीडिया एवं जनता की सोच का अंदाजा होता है. दिलचस्प बात तो यह है कि इस लेख में पंडित नेहरू एवं उनकी बहन विजय लक्ष्मी पंडित के साथ-साथ पीवी नरसिम्हा राव से आगे ब़ढकर पंडित नेहरू के नाती प्रधानमंत्री राजीव गांधी की भी महत्वपूर्ण एवं असाधारण भूमिका को भारत इजरायल संबंध को आगे बढ़ाने में दर्शाया गया है…
भारत इजरायल संबंध बीते 21 वर्षों में आगे बढ़े हैं. आज इजरायल भारत का दूसरा सबसे बड़ा हथियारों का सप्लायर है. जबकि भारत इजरायल का सबसे बड़ा व्यापारी पार्टनर है. हालांकि आधुनिक भारत ने अपने आरंभिक 45 वर्षों में अरब दुनिया एवं बाद में ईरान से मजबूत संबंधों को प्राथमिकता दी. प्रश्‍न यह है कि भारत की डिप्लोमेटिक शत्रुता का आखिर मतलब क्या है?
जैसा कि सबको मालूम है कि इंडियन नेशनल कांग्रेस पार्टी अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम में हर जगह छाई रही. धार्मिक आधार पर उपमहाद्वीप के विभाजन का विरोधी रहते हुए पार्टी ने ज़ायोनिज्म (जायोनिज्म यहूदियों व उनकी संस्कृति का एक ऐसा राष्ट्रीय आंदोलन है जो कि उस क्षेत्र में यहूदियों के होमलैंड की स्थापना का समर्थन करता है. जिसकी परिभाषा इजरायल के ऐतिहासिक होमलैंड के तौर पर की गई है) विरोधी एवं भारत के विभाजन की समर्थक मुस्लिम लीग की बढ़ती हुई लोकप्रियता को दबाने के लिए एक ऐसी राय को अपनाया जो कि यहूदी राष्ट्रीयता की सख्त विरोधी थी.
इस बात को भी सामने रखना चाहिए कि इस संबंध में इंडियन नेशनल कांग्रेस की सोच गांधी जी के विचारों से ली गई है. गांधी जी स्वयं भी जायोनिष्ट आदोलन के आलोचक थे. उन्होंने मांग की कि यहूदी सत्याग्रह करते हुए वहां शांति पूर्वक रहें. अमेरिकी कांसपिरेसी थ्योरी की वजह से अरबों की ओर गांधी जी हमदर्दी ब़ढी. उनकी सोच का प्रभाव कांग्रेस पर भी प़डा.
उपनिवेशवाद के विरुद्ध ल़डाई में भारत ने 1947 में इजरायल के विरुद्ध वोट दिया. जबकि मात्र 6 माह पूर्व भारत ने फलस्तीन के संबंध में संयुक्त राष्ट्र समिति की अल्पसंख्यक योजना का समर्थन किया था.
इस योजना में एक अरब एवं यहूदी राष्ट्र के फेडरेशन की सिफारिश की गई थी. भारत ने भी मई 1949 में इजरायल की संयुक्त राष्ट्र में सदस्यता का विरोेध किया था. 1950 के अंत में इजरायल को सरकारी तौर पर मान्यता दे दी. मगर पूर्ण रूप से दोनों देशों के संबंध स्थापित होने में 1992 तक का समय लगा. भारत ने शुरू से ही अरब शरणार्थियों के हित का पुरजोर समर्थन किया. जिसका प्रदर्शन वर्षों तक संयुक्त राष्ट्र में भारतीय प्रतिनिधयों की रायों से होता रहा है.
हालांकि भारत ने ऐसा इजरायल के अस्तित्व के सच्चाई को स्वीकार करते हुए किया. भारत ने अरब राष्ट्रों में फलस्तीनी शरणार्थियों को तुरंत सहायता पहुंचाने एवं उन्हें वहीं स्थायी रूप से बसाने की चेष्टाओं का समर्थन किया. भारत प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के दौर में 1978 की कैम डेविड संधि के खिलाफ अरबों के साथ खड़ा रहा. हालांकि उन दिनों इजरायली नेता मोशेदयान भारत के दौरे पर आए मगर इस दौरे को बहुत महत्व नहीं दिया गया. फिर 1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की वापसी हुई तब भी अरबों के लिए समर्थन जारी रहा. नई दिल्ली में पीपुल लिबरेशन ऑरगनाइजेशन के कार्यालय को पूर्ण रूप से डिप्लोमेटिक दर्जा प्रदान किया गया. यासिर अरफात ने 1980 एवं 1982 में भारते के सरकारी दौरे किए. उन दिनों 1982 में इजरायली वाणिज्य दूत को एक विवाद पूर्ण साक्षात्कार देने के कारण देश से निकाल दिया गया. विदेशी मामलों में अपने अवैचारिक एवं सकारात्मक विचार के लिए पहचाने जाने वाले प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सत्ता में आऩे के बाद इजरायल के बारे में सोच में धीरे-धीरे अंतर आने लगा. उन्होंने 1985 के संयुक्त राष्ट्र जनरल असेंबली के सेशन के अवसर पर अपने समकालीन इजरायली प्रधानमंत्री शायमन पेरेज से भेंट करके इतिहास रचा. उस समय राजीव गांधी ने इजरायल से कुछ अनौपचारिक संधियां भी कीं.
एक बार फिर 1986 में दोनों राष्ट्रों के बीच ब़ढते हीरे के व्यापार पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए अरब बॉयकाट कार्यालय ने हीरे की व्यापारिक फार्मो को ब्लैकलिस्ट कर दिया. 1987 में राजीव गांधी के द्वारा इजरायल के खिलाफ डेविस कप क्वार्टर फाइनल मैच की मेजबानी की फैसले से यरूशलम से डिप्लोमेटिक संबंधों की लंबी अनुपस्थिति के बारे में दिलचस्प बहस छिड़ गई. इसके बाद 1988 में जब राजीव अमेरिका गए और वहां विभिन्न यहूदी नेताओं से मिले तब संबंधों को सामान्य करने की प्रक्रिया ने रफ्तार पकड़ी. इसी के बाद मुंबई में इजरायली प्रतिनिधत्व को फिर शुरू किया गया औऱ वीजा के नियमों में नरमी पैदा की गई.

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