childrenचमकीली विकास के चकाचौंध में कुछ ऐसे अंधेरे कोने भी हैं, जहां तक पहुंचने से पहले ही प्रकाश की किरणें अपनी ऊर्जा खो देती हैं. सवाल ये है कि जब देश का प्रधान ही ‘मन की बात’ में मशगूल हो, तो फिर नौनिहालों की चिंता भला कौन करे? हाल में एक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका लांसेट ने पांच साल के बच्चों की मौत पर एक रिपोर्ट जारी की है. शायद हमें आश्‍चर्य न हो कि हम इस मामले में उन देशों के साथ खड़े हैं, जो आर्थिक विकास और ताकत में हमारे सामने कहीं भी नहीं टिकते, लेकिन नौनिहालों की मौत के मामले में ऐसे देश हमारे आस-पास खड़े हैं. लासेंट की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2015 में 5 साल से कम आयु के शिशुओं की मौत के मामले में भारत, पाकिस्तान और नाइजीरिया जैसे देशों से भी आगे है.

यूनीसेफ की रिपोर्ट के अनुसार, 2015 में नौनिहालों की मौत के मामले में हमारी स्थिति पड़ोसी देशों नेपाल और बांग्लादेश से भी बदतर है. नेपाल में पांच साल से कम उम्र के 1000 बच्चों में से 36 की मौत हो जाती है, बांग्लादेश में 38 और चीन में केवल 11 की मौत होती है. वहीं भारत में एक हजार नौनिहालों में से 48 अपना पांचवां बर्थडे मनाने से पहले ही जिंदगी की जंग हार जाते हैं. इसका सबसे दुखद पहलू यह है कि ये मौतें उन बीमारियों के कारण हुई हैं, जिनका इलाज संभव था. यूनीसेफ की रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड चिल्ड्रेन 2016’  में यह कहा गया है कि 2015 में भारत में पांच साल से कम उम्र के 12.6 लाख बच्चों की मौत उन बीमारियों से हुई, जिनका इलाज हो सकता था.

देश में समय से पूर्व जन्म लेेने वाले शिशुओं की मौत का आंकड़ा सबसे भयावह (39 प्रतिशत) है. इसके बाद निमोनिया(14.9 फीसद), डायरिया (9.8 फीसद) और सेप्सिस (7.9 फीसद) के अलावा कुपोषण, शुद्ध पेयजल और टीकाकरण नहीं होने के कारण पांच साल से कम उम्र के ज्यादातर बच्चों की मौत होती है. देश में करीब 30 फीसद बच्चे समय से पूर्व जन्म लेते हैं. समय पर जन्म लेने वाले बच्चों के शरीर और फेफड़े पूरी तरह से स्वस्थ और दुरुस्त होते हैं. वहीं समय से पूर्व जन्म लेने वाले बच्चों को श्‍वास संबंधी, संक्रमण और ब्रेन हैमरेज का खतरा बना रहता है, जिसके कारण वे उचित इलाज नहीं होने पर असमय दम तोड़ देते हैं. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के अनुसार, देश में कुल मौतों में से दो तिहाई मौतें जन्म के पहले सप्ताह में हो जाती हैं और इनमें से दो तिहाई मौतें जन्म के दो दिन के अंदर ही हो जाती हैं. इस प्रकार 45 प्रतिशत नवजात शिशुओं की मौत 48 घंटे के अंदर ही हो जाती है.

ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव और अस्पताल के दूर होने के कारण समय पर गर्भवती महिलाएं प्रसव के लिए नहीं पहुंच पाती हैं. वहीं ग्रामीण इलाकों में आज भी अकुशल दाइयां ही शिशुओं का प्रसव कराती हैं, जिसके कारण जच्चा-बच्चा दोनों की जान पर खतरा बना रहता है. अशिक्षा या यों कहें कि चिकित्सकीय सुविधा के अभाव में अब भी ग्रामीण महिलाएं प्रसव के लिए अकुशल दाइयों पर ही निर्भर हैं. जबकि बाल मृत्यु दर को नियंत्रित करने के लिए यह जरूरी है कि शिशुओं को जन्म के बाद एक-दो दिन तक अस्पताल के नियो वार्ड में रखा जाए. यहां नवजात शिशुओं को नर्स की निगरानी में किसी भी बाह्य संक्रमण से बचाकर शिशु कक्ष में रखा जाता है और उनकी उचित देख-रेख की जाती है. शिशुओं से जुड़ी अधिकतर समस्याएं प्रसव पूर्व अवधि, प्रसव के दौरान व जन्म के तुरंत बाद अपर्याप्त देख-रेख के कारण पैदा होती हैं. इसके अलावा जन्म के समय शिशु के कम भार का होना व कुपोषण के कारण बच्चों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है. सरकार ने ग्रामीण इलाकों में चिकित्सा सुविधा को बढ़ावा देने के लिए डॉक्टरों को कुछ समय तक ऐसे इलाकों में कार्य करने के निर्देश तो दिए, लेकिन आज भी कोई डॉक्टर पिछ़डे इलाकों में जाकर काम करने के लिए तैयार नहीं है.

2016 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार, भारत में 38.7 फीसद बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. भूख से पीड़ित 118 देशों में भारत का स्थान 97वां है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2030 तक भारत समेत 45 देशों में भुखमरी की स्थिति बहुत विकट हो जाएगी. यूनाइटेड नेशनल डेवलपमेंट गोल के सलाहकार एनके सक्सेना कहते हैं कि शिशु मृत्यु दर के मामले में देश में मध्यप्रदेश पहले स्थान पर है. यहां गलत योजनाओं व पैसे की कमी से नहीं, बल्कि योजनाओं का उचित तरीके से क्रियान्वयन नहीं होने या योजनाओं के गलत डिजायन के कारण हम अपने लक्ष्य से दूर रह जाते हैं. यही वजह है कि केन्या व बांग्लादेश जैसे देश हमसे कहीं बेहतर स्थिति में हैं. उन्होंने आगे कहा कि सरकारी तंत्र में बैठे अधिकारी अपनी नौकरी बचाने के लिए अक्सर गलत जानकारी देते हैं. मध्यप्रदेश में सरकार दावा करती है कि यहां केवल 1.9 प्रतिशत बच्चे ही गंभीर रूप से कुपोषित हैं, जबकि यूनीसेफ की रिपोर्ट के अनुसार यहां 12 प्रतिशत बच्चे गंभीर रूप से कुपोषण के शिकार हैं. गलत डाटा आने के कारण सरकारी नीतियों के क्रियान्वयन में समस्या आती है. यही स्थिति लगभग हर राज्य में है. वहीं, आदिवासी बच्चों की मौत पर  संज्ञान लेते हुए हाल में सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को फटकार लगाई थी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि महाराष्ट्र में 500-600 बच्चों की मौत कुपोषण से हुई है. क्या आपको ऐसा लगता है कि बड़ी जनसंख्या वाले देश में कुपोषण से कुछ लोगों के मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता है. वहीं आदिवासी क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ताओं का कहना है कि सरकार द्वारा स्वास्थ्य और मूलभूत सुविधाओं में कमी के कारण आदिवासी छात्रों की मौत हुई है. यह स्थिति तब है, जब सरकार आदिवासी छात्रों पर भारी-भरकम राशि खर्च करती है और महाराष्ट्र में आदिवासी छात्रों के लिए 552 आवासीय स्कूल चलाती है.

हालांकि अगर 1990 से तुलना करें तो बाल मृत्यु दर में काफी सुधार हुआ है. 1990 में 1000 बच्चों में से 146 बच्चे पांच साल से ज्यादा उम्र तक जीवित नहीं रह पाते थे, वहीं अब यह आंकड़ा 48 पर आ गया है. वहीं विकसित देशों में यह आंकड़ा 5 से भी कम है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव डॉ. राकेश कुमार कहते हैं कि वर्ष 2030 तक शिशु मृत्यु दर को प्रति एक हजार में 12 तक लाना है. वहीं यूनीसेफ की रिपोर्ट का अनुमान है कि अगर सरकारों ने अपना रवैया नहीं बदला, तो 2030 तक दुनिया में 6.9 करोड़ बच्चों की पांच साल से कम उम्र में मौत हो सकती है. इनमें आधी से ज्यादा मौतें पांच देशों में होने की आशंका है, जिसमें भारत भी शामिल है. सबसे बड़ी बात यह है कि हर साल तकरीबन ऐसी रिपोर्ट आती है, लेकिन इसे लेकर न तो हमारे नीति नियंता परेशान होते हैं और न ही इन्हें सरकारी कार्यक्रमों व नीतियों में तरजीह दी जाती है. केवल लोकलुभावन कार्यक्रमों और अभियानों की घोषणा करने वाली सरकार को नौनिहालों के स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण की तरफ ध्यान देने की जरूरत है, तभी आर्थिक विकास के साथ मानव सूचकांक के आंकड़ों में भी हम अव्वल साबित हो सकते हैं.

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