यह शायद इस सदी की सबसे ज्यादा चौंकाने वाली खबरों में से एक थी कि महात्मा गांधी की पड़पोती आशीष लता को दक्षिण अफ्रीका एक अदालत ने धोखाधड़ी के मामले में सात साल की सजा सुनाई। धोखाधड़ी की यह भारतीय रूपयों में करीब सवा तीन करोड़ की होती है। अगर रकम की ही बात हो तो जिस भारत में 14 हजार करोड़ की बैंक धोखाधड़ी करने वाले मेहुल चोकसी और नीरव मोदी तथा 9 हजार करोड़ की धोखाधड़ी कर विदेश भागने वाले विजय माल्या की तुलना में आशीष लता के घोटाले की रकम तो कुछ भी नहीं है। लेकिन दक्षिण अफ्रीका की न्याय व्यवस्था शायद ज्यादा चुस्त दुरूस्त है। एक भारतीय के नाते हमे यह खबर इसलिए क्षुब्ध करने वाली है कि आशीष लता उस बापू की पड़पोती है, जिसने जीवन भर सत्य के प्रयोग किए, जो सत्य की रक्षा के लिए लड़ा और सत्य के लिए जिया। समूचे गांधी परिवार ने इस खबर को‍ किस रूप में लिया, यह अभी स्पष्ट नहीं है, लेकिन इतना तय है कि ‘गांधी’ उपनाम होना या उससे रक्त सम्बन्ध होना सच्चरित्रता की गारंटी नहीं है।

इस देश में ‘गांधी’ उपनाम से अमूमन दो परिवारों को ही लोग जानते हैं। पहले स्वयं राष्ट्रपिता यानी मोहनदास करमचंद गांधी और दूसरा है देश का शीर्ष राजनीतिक ‘गांधी परिवार।‘ पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के पति फीरोज जहांगीर का असल उपनाम घांडी था। वो पारसी थे। लेकिन कहते हैं कि महात्मा गांधी से प्रभावित होकर उन्होंने अंग्रेजी में अपने नाम की स्पेलिंग ‘घांडी’ से बदलकर ‘गांधी’ कर ली थी। जवाहरलाल नेहरू के बाद से ही यह गांधी परिवार कांग्रेस पार्टी की धुरी बना हुआ है। स्व. इंदिरा गांधी से लेकर सोनिया और अब राहुल गांधी तक का सफर तो हमे अच्छे से पता है। उनके चारित्रिक बदलाव और प्रतिबद्धता का ग्राफ भी हमारे सामने है, लेकिन महात्मा गांधी के वंशज ‘असली’ गांधियों के बारे में हम ज्यादा नहीं जानते। सिवाय इक्का-दुक्का नामो के, जैसे इला गांधी, गोपाल कृष्ण गांधी या तुषार गांधी आदि। गांधी परिवार के सभी लोग, जो अब दुनिया के कई देशों में फैले हैं, मोटे तौर पर अपने प्रेरणा पुरूष बापू के विचारों के इर्द गिर्द ही जिंदगी जीते रहे हैं। लेकिन यह कोई मठवादी परंपरा नहीं है। कुछ ‍परिजन समाज सेवा और मानव सेवा से जुड़े हैं तो कुछ किताबें लिख रहे हैं। यानी जो जहां भी हैं, ‘गांधी’ उपनाम की आभा उन्हें किसी न किसी रूप में प्रकाशित करती रहती है।

आशीष लता रामगोबिन भी उन्हीं महात्मा गांधी की पड़पोती हैं और दक्षिण अफ्रीका में रहती हैं। गांधीजी के चार बेटों में से मणिलाल 1917 में वापस दक्षिण अफ्रीका लौट गए थे और बाद में वहीं रहे। उन्हे गांधी के आज्ञाकारी बेटों में गिना जाता था। मणिलाल ‍दक्षिण अफ्रीका में बापू द्वारा स्थापित फिनिक्स आश्रम में रहते थे और ‘इंडियन अोपिनियन’ नामक द्विभाषी ( अंग्रेजी व गुजराती) पत्र का संपादन करते थे। उनका निधन भी बापू की हत्या के 9 साल बाद दक्षिण अफ्रीका में हुआ। उन्हीं मणिलाल की एक बेटी हैं इला गांधी रामगोबिन। ख्याबत मानवाधिकार कार्यकर्ता इला ने मेवा रामगोबिन से शादी की थी। इला की बेटी है 56 वर्षीय आशीष लता रामगोबिन।

यूं बापू के वशंज भी कभी-कभार विवादों में घिरते रहे हैं, लेकिन कोई धोखाधड़ी के आरोप में जेल जाएगा, यह सोचना भी वैसा ही है कि जैसे सेना में भर्ती होने गया कोई जवान अचानक किसी आंतकी संगठन में शामिल हो जाए। आशीष लता पर आरोप था कि उन्होंने एक उद्योगपति एस.आर महाराज के साथ कारोबार में धोखाधड़ी की। कोर्ट ने पाया कि एसआर महाराज ने लता को कथित रूप से भारत से एक ऐसी खेप के आयात और सीमा-शुल्क के क्लियरिंग के लिए 62 लाख रैंड ( अफ्रीकी मुद्रा) दिए थे, जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं था। इसमें उन्हें लाभ का एक हिस्सा देने का भी वादा किया गया था। यह मामला वर्ष 2015 का है। उस वक्त दक्षिण अफ़्रीका के राष्ट्रीय अभियोजन प्राधिकरण (एनपीए) के ब्रिगेडियर हंगवानी मूलौदजी ने कहा था कि आशीष लता ने संभावित निवेशकों को यकीन दिलाने के लिए कथित रूप से फर्जी चालान और दस्तावेज़ दिए थे कि भारत से लिनेन के तीन कंटेनर आ रहे हैं।‍ तब लता को 50 हजार रैंड ( दक्षिण अफ्रीकी मुद्रा) की जमानत पर रिहा किया गया था।

आशीष लता ने ‘न्यू अफ़्रीका अलायंस फ़ुटवेयर डिस्ट्रीब्यूटर्स’ के निदेशक एसआर महाराज से अगस्त 2015 में मुलाक़ात की थी। महाराज की कंपनी कपड़े, लिनेन, जूते-चप्पलों का आयात, निर्माण और बिक्री करती है। उनकी कंपनी प्रॉफिट मार्जिन के तहत दूसरी कंपनियों की आर्थिक मदद भी करती है।

लता ने महाराज को भरोसा दिलाया कि भारत से मंगवाए लिनेन के 3 कंटेनरों को साउथ अफ्रीकन हॉस्पिटल ग्रुप ‘नेट केयर’ को डिलीवर करना है। इसके लिए उन्हें पैसों की जरूरत है। लता ने महाराज को ‘नेट केयर कंपनी’ से जुड़े दस्तावेज भी दिखाए। इस पर महाराज ने लता के साथ डील कर पैसे दे दिए। जबकि हकीकत में लिनेन का कोई कंटेनर भारत से नहीं आया। इस फर्जीवाड़े का पता चलने के बाद महाराज की कंपनी के डायरेक्टर ने लता के खिलाफ कोर्ट में केस दायर कर दिया। जिस पर फैसला अब हुआ है। गौरतलब है कि आशीष लता ‘इंटरनेशनल सेंटर फ़ॉर नॉन-वायलेंस’ नामक एक गैर सरकारी संगठन के एक प्रोग्राम की संस्थापक और कार्यकारी निदेशक थीं, जिन्होंने ख़ुद को पर्यावरण, सामाजिक और राजनीतिक हितों का ध्यान रखने वाली कार्यकर्ता बताया था। लेकिन हकीकत में वो यह सब फर्जीवाड़ा कर रही थीं। लता ऐसा क्यों कर रही थीं? क्या उन्हें अपने गांधी परिवार से रक्त सम्बन्धों का ध्यान नहीं था? यदि था तो धोखाधड़ी के इस कृत्य से बापू के नाम पर लगने वाले बट्टे का उन्होंने कभी विचार किया भी था या नहीं, कहना मुश्किल है।

दरअसल हर वंश या कुल में एक दो कीर्ति पुरूष/ महिला ही होते/होती हैं। बाकी पीढि़यां केवल उनके पुरूषार्थ की जुगाली और विरासत की रोटियां खाकर जिंदा रहती हैं और यदा- कदा इतराती रहती हैं। क्योंकि उच्च और असाधारण आदर्शों के लिए जीना, अपने उसूलों पर डटे रहना और समूची मानवता के लिए खुद को समर्पित कर देना एवरेस्ट की उस चढ़ाई जैसा है, जिसका रास्ता भी खुद ही बनाना होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो महामानवों के वंशज सामान्य मनुष्य ही होते हैं, आम गुण-दोषों से युक्त और जीवन को इच्छाअोंऔर मोह के वशीभूत जीते हुए। बापू को हम महामानव की तरह पूजते हैं, लेकिन ईश्वर का अंशावतार माने जाने वाले राम और कृष्ण के वंशजों की भी इतिहास रचने या उसे आगे बढ़ाने में कोई विशेष भूमिका रही हो, हमे याद नहीं है। इस दृष्टि से आशीष लता का चरित्र एक आम इंसान और कुटिलताओ को जिंदगी की अनिवार्य शर्त मानने वाली महिला का चरि‍त्र है। ऐसे लोगो के लिए अपने कुल के आदर्श पुरूष का महान चरित्र भी किसी सजे मंच के बैक ड्राॅप से ज्यादा अहमियत नहीं रखता।

यहां एक सवाल जरूर मन को मथता है ‍कि आज अगर बापू जिंदा होते ( हालांकि उनके एक बेटे ने बापू के जीते जी उनसे बगावत कर दी थी) तो इस घटनाक्रम पर क्या सोचते? अपने मूल्यों और नैतिक आदर्शो की वास्तविकता को किस चश्मे से देखते? अपने अहिंसा के अडिग आग्रह ( बापू की निगाह में भ्रष्टाचार भी हिंसा ही होती) को किस तराजू पर तौलते? छल बल से परे आत्म बल से साधारण इंसान को भगवान बनाने के अपने आध्यात्मिक प्रयोग का औचित्य किस रूप में आंकते? इस बारे में सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। हम लोग तो अमूमन अतंर्द्वद्व और आत्मग्लानि के मौकों पर बापू की प्रतिमा के आगे मौन धरकर आत्म‍‍शुद्धि के लिए बैठ जाते हैं। लेकिन बापू अपनी पड़पोती की यह खबर पढ़कर किसकी प्रतिमा के आगे और कैसे प्रायश्चित करते ? क्योंकि आशीष लता का कृत्य तो सत्यनिष्ठा में ही सुरंग लगाने जैसा है। क्या यह दीया तले अंधेरे जैसी स्थिति नहीं है? आप क्या सोचते हैं?

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