उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से जनता दल (यू) के अलग रहने का फैसला हालांकि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनके दल का अपना निर्णय है, पर सूबे की राजनीति के लिए यह सहज-सामान्य परिघटना नहीं है- विशेष तौर पर सत्तारूढ़ महागठबंधन के लिए. नीतीश कुमार अपने ‘मिशन 2019’ के तहत वहां के विधानसभा चुनावों में अपनी भूमिका को आकार देने में गत एक साल से लगे थे.
यहां तक कि वहां अपनी उपस्थिति का अहसास करवाने के लिए उनकी पार्टी अकेले भी चुनाव मैदान में जाने को तैयार थी. बिहार प्रदेश जद (यू) के अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह इस बारे में स्पष्ट शब्दों में घोषणा कर चुके थे.
सब कुछ तय था, दल के नेताओं व कार्यकर्ताओं की तैनाती कर दी गई थी. पर ऐन मौके पर लंबे विचार-विमर्श के बाद जद (यू) नेतृत्व ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से दल को अलग रखने का निर्णय ले लिया. वहां के चुनावों में दल का उम्मीदवार न देने का तो निर्णय लिया ही गया, यह भी फैसला हुआ कि उसके नेता वहां किसी के पक्ष-विपक्ष में चुनाव प्रचार भी नहीं करेंगे. इस फैसले के कई राजनीतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं.
यह फैसला दल के भीतर हिलकोरें पैदा कर रहा है. यह सूबे के सत्तारूढ़ महागठबंधन के तीनों दलों के आपसी संबंध में तनाव के नए रंग भरने का माद्दा रखता है. बिहार विधानसभा चुनावों में महागठबंधन की ऐतिहासिक जीत के बाद नीतीश कुमार ने लगातार तीसरी बार सूबे के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. 20 नवम्बर 2015 को आयोजित उक्त समारोह में भारतीय राजनीति के गैर भाजपाई नक्षत्रों को इकट्ठा किया गया था.
इसके बाद नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी भूमिका तय करते हुए दो कदम उठाए. वह जद (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने थे और उत्तर प्रदेश में अपनी राजनीति के विस्तार के रोड-मैप को अघोषित तौर पर जारी किया था. चूंकि पटना से दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश होकर ही जाता है, लिहाजा उसे अपनी प्राथमिकता में सबसे ऊपर रखना उनकी राजनीतिक जरूरत थी. उन्होंने वही किया.
नीतीश कुमार ने पिछले एक साल में मिशन 2019 के एक विशिष्ट अवयव के तौर पर ही मिशन उत्तर प्रदेश चलाया. बिहार के बाहर उनकी राजनीति का मूल केन्द्र उत्तर प्रदेश ही बना. एक साल के दौरान उन्होंने उत्तर प्रदेश में पार्टी संगठन की प्राण-प्रतिष्ठा की. वाराणसी, इलाहाबाद सहित आधा दर्जन से अधिक स्थानों पर जद (यू) की रैली और कार्यकर्त्ता सम्मेलन किए गए. पूर्ण शराबबंदी अभियान को लेकर भी नीतीश कुमार लखनऊ, कानपुर व अन्य स्थानों पर आयोजित समारोहों में भाग लिए और बिहार के अनुभवों को साझा किया.
पार्टी को चुनाव के लायक बनाने के लिए अपने विश्वस्त महासचिव आरसीपी सिंह को उत्तर प्रदेश की जिम्मेवारी सौंपी. चुनाव के कार्यक्रम की घोषणा से ऐन पहले किसी दौर में मुख्यमंत्री के खास रहे संजय झा को महासचिव बनाया गया. नीतीश कुमार ने उत्तर प्रदेश में दल के सांगठनिक विस्तार की व्यवस्था के साथ-साथ राजनीतिक मंच हासिल करने की भी पूरी कोशिश की.
इस सिलसिले में सबसे पहले पीस पार्टी के सुप्रीमो अयूब के साथ जद (यू) की बात हुई. पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में इसकी अच्छी पैठ होने की बात बताई जा रही है. खबर आई कि सब कुछ ठीक हो गया है और अब फाइनल टच देना ही बाकी रह गया है. पर, इस फाइनल टच का क्या हुआ, अब तक पता नहीं चला. फिर, अपना दल के एक गुट से बातचीत की खबर आई. पर, इसका क्या हस्र हुआ, यह भी किसी को पता नहीं चला. चौधरी अजित सिंह के राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) के साथ जद (यू) के संबंध की बात तो बार-बार सामने आई.
यह बातचीत दोनों दलों के विलय से आरंभ हुई थी. इसमें राष्ट्रीय प्रवक्ता केसी त्यागी ने बड़ी और सक्रिय भूमिका निभाई थी. फिर, तालमेल पर मामला आ कर टिक गया. अजित सिंह के पुत्र जयंत चौधरी दो-तीन बार पटना भी आए. मुख्यमंत्री व अन्य नेताओं से उनके मिलने की भी खबर आई. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अजित सिंह के विशेष प्रभाव के कारण जद (यू) सुप्रीमो नीतीश कुमार भी उनसे तालमेल को उत्सुक ही दिख रहे थे. पर बात रास्ते से भटक गई और यह धुरी भी जद (यू) के दायरे से बाहर चली गई, दोनों अलग-अलग ही रह गए.
अजित सिंह का भी अनेक कोशिश के बावजूद समाजवादी पार्टी और कांग्रेस से कोई तालमेल नहीं हो सका. बिहार के सत्तारूढ़ महागठबंधन में नीतीश कुमार के सहयोगी कांग्रेस का समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन हो गया वहीं राष्ट्रीय जनता दल ने भी इस गठबंधन के साथ अपनी सहमती जता दी. हालांकि यह उसकी पूर्व की घोषणा के अनुरूप ही था. ऐसे में जद (यू) को तय करना था कि उत्तर प्रदेश के चुनाव अखाड़े में बगैर किसी सहयोगी के अकेले ही उतरना है या रिंग के बाहर बैठ कर पहलवानों के दांव देखने हैं. दल ने दूसरा विकल्प चुना.
इस निर्णय का एक संदेश यह भी गया कि इतनी मेहनत के बावजूद पिछले पांच साल में वहां जद (यू) की हैसियत कोई खास बनी नहीं. 2012 के चुनाव में उत्तर प्रदेश में जद (यू) ने कोई पौने तीन सौ उम्मीदवार दिए थे और मतदान में किसी प्रत्याशी की जमानत नहीं बची थी. दल के सूत्रों पर भरोसा करें तो इस बार भी दलील दी गई कि अकेले चुनाव में उतरने से परिणाम में कोई तात्विक फर्क नहीं आएगा.
हालांकि दल के सीनियर नेता शरद यादव ने धन की कमी को चुनाव न लड़ने का कारण बताया, पर उससे बड़ा कारण वोट की कमी का माना गया. किसी राजनीतिक दल के लिए चुनाव न लड़ने का यह कारण तो कतई सम्मानजनक नहीं है. उत्तर प्रदेश के सवाल पर दल में फिलहाल खामोशी है. इस फैसले ने नीतीश कुमार और जद (यू) के बाहर-भीतर उनके ‘भक्तों’ को भीतरी टीस दी है. यह घाव तो फूटेगा, पर कुछ दिन बाद. वह स्थिति जद (यू) नेतृत्व के लिए खतरनाक बन सकती है.
उत्तर प्रदेश का मसला जद (यू) में जो भी हालात पैदा करे, बिहार के सत्तारूढ़ गठबंधन को भी तनावों से भर देने की पुरकश हैसियत रखता है. सूत्रों पर भरोसा करें, तो नीतीश कुमार को महागठबंधन के सहयोगियों से कुछ ज्यादा ही उम्मीद हो गई थी. हाल के हफ्तों में जद (यू) के अनेक छोटे-बड़े नेता वहां भाजपा को पराजित करने के लिए बिहार की तर्ज पर महागठबंधन की जरूरत पर जोर दे रहे थे. लेकिन सपा में जारी उठा-पटक में इस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा था.
सपा के विवाद के कुछ हद तक शांत होने के बाद वहां जब गठबंधन की बात चली तो सपा नेतृत्व ने कांग्रेस के अलावा किसी को तरजीह ही नहीं दी- रालोद को भी नहीं. हालांकि इन सबके बावजूद जद (यू) नेतृत्व को उम्मीद थी कि सरकार का साझीदार होने के कारण कांग्रेस और राजद उनका पक्ष रखेंगे और महागठबंधन बनाने पर जोर डालेंगे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. राजद खुद अपनी पूछ के लिए परेशान रहा, तो सपा के नेतृत्व से कांग्रेस को भी जरूरत भर ही तवज्जो मिली.
कांग्रेस जब खुद ही सपा के कंधे पर जगह पाने को ललायित थी तो दूसरे के लिये क्या करती. राजद नेतृत्व तो इसका ही इंतजार करता रह गया कि कोई उससे भी कुछ पूछ ले. इस पूरे प्रकरण में कुछ और राजनीतिक तथ्य भी कांग्रेस व राजद नेतृत्व के जेहन में रहे. बिहार विधानसभा चुनावों से महीनों पहले नीतीश कुमार को महागठबंधन का मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करवाने में कांग्रेस की भूमिका जगजाहिर है.
ऐसी घोषणा के कारण ही सबसे बड़ा दल होने के बावजूद महागठबंधन सरकार में राजद ने पहले नम्बर की बात कभी नहीं की और दूसरे नम्बर पर रहने को विवश रही. उसके बाद भी जब-जब राजद ने सार्वजनिक तौर पर आंखें कड़ी करने का मन बनाया, तो उस पर लगाम कसने में भी कांग्रेस आगे आई. इसके अलावा भाजपा के साथ नीतीश कुमार के मधुर होते रिश्ते को भी दोनों सहयोगी दलों ने अनदेखी करने की कोशिश ही की. नोटबंदी व अन्य कई मुद्दों पर जद (यू) व नीतीश कुमार के स्टैंड इसके प्रमाण के तौर पर पेश किए जा रहे हैं.
ऐसे में बताने की आवश्यकता नहीं कि कांग्रेस या कोई दूसरा भाजपा विरोधी दल किस दूरी तक जद (यू) की वकालत करेगा. पर गठबंधन की राजनीति में एक दायरे में रहते हुए किसी की अपेक्षा पर दूसरा दल कैसे लगाम लगा सकता है, जब तक सब कुछ खुला खेल न बन जाए. वस्तुतः एक साथ सारे लाभ नहीं हासिल किए जा सकते हैं, वह राजनीति की बात ही क्यों न हो.