राजनीति पर गरम गरम चर्चा चल रही थी। सभी मोदी विरोधी जमावड़े के लोग थे। तरह तरह की बातों में किसी के मुख से यह विचार निकला कि यारों अपना देश तानाशाह को ही पसंद करता है। स्कूल का प्रिंसिपल ऐसा हो या किसी कंपनी का सीईओ या गांधी जी को ही देख लो। उनके आश्रमों में तो उनकी मूक तानाशाही ही चलती थी। इमरजेंसी में भी अगर विरोधी नेताओं पर अत्याचार नहीं होते तो किसी को उस इमरजेंसी से एतराज नहीं था। बल्कि लोग तो समय से सब कुछ होना और सरकारी दफ्तरों में अनुशासन आ जाना पसंद ही कर रहे थे। वे सज्जन निर्बाध बोल रहे थे और जमावड़ा सुनते सुनते सिर हिला रहा था। लेकिन उन्होंने अंत में जब यह कहा कि अगर मोदी जी देश में सांप्रदायिक सौहार्द ले आएं तो उनकी तानाशाही को भी लोग पसंद कर लेंगे। वहीं सब एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। एक ने ठहाका लगाया कि मोदी और साम्प्रदायिक सौहार्द ?? मुझे अचानक एक बार की वह चर्चा याद हो आई जिसमें हमारी मित्र शीबा असलम फहमी ने जोर देते हुए कहा था कि यदि ये ये बातें मोदी जी कर दें तो हमें मोदी जी से क्या एतराज है। बातें तो मुझे याद नहीं पर उनका आशय यही था बल्कि गलत नहीं था। मैं थोड़ा चौंका था उस समय शीबा की बात पर। लेकिन बाद में अक्सर सोचता रहा कि वास्तव में लोग तो उसी को ज्यादा पसंद करते हैं जो स्वभाव में कड़क होता है और अनुशासन का हामी होता है तो ऐसे में सांप्रदायिक सौहार्द के इस दिवास्वप्न में कोई रहना चाहता है तो हर्ज क्या है। क्या उसकी तमन्ना मोदी जी पूरी करेंगे।
कल लाउड इंडिया टीवी पर अभय दुबे शो में संतोष भारतीय ने अपने किसी मित्र का उल्लेख करते हुए उनकी बात कही । मित्र का कहना था कि देश को लेकर कोई चिंतित नहीं है न विपक्षी दल, न बुद्धिजीवी, न पत्रकार वगैरह। संतोष जी ने यह बात अभय जी के सामने रखी । अभय जी ने जो जवाब दिए सो दिए लेकिन एक बात अपने दिमाग में भी आई कि संतोष जी के मित्र की बात में दम होते हुए भी कहना चाहूंगा कि चिंतित सब हैं लेकिन चिंतित होते हुए भी दिग्भ्रमित से जान पड़ते हैं। सोशल मीडिया पर चलने वाली बहसें और चर्चाएं मोदी के समय के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रहीं। डिजिटल चैनलों पर जितने लोगों को हम देख रहे हैं ये सब पारंपरिक राजनीति को उसी के कायदे से समझने वाले लोग हैं। अगर आप दो चार एंकरों की बातों से संतुष्ट हों भी लें तो उनके पैनल में लोग अपने उसी दिमाग को प्रस्तुत करते हैं जिस दिमाग से उन्होंने 2014 से पहले तक की राजनीतिक पढ़ाई और चिंतन किया है । इसी कारण शीबा के एक कार्यक्रम में मैंने अरुचि दिखाई तो उन्होंने कहा कि बिना देखे ही आप समीक्षा कर देंगे ? मैंने समझाया कि मैं कभी किसी कार्यक्रम की समीक्षा नहीं करता। मैं तो कार्यक्रम का लब्बोलुआब बता कर दोस्तों को उसे देखने को लगाता हूं। वह भी उसी का जिसे मैंने पूरा देखा हो । सच बात तो यह है कि आजकल का कोई कार्यक्रम पूरा देखने लायक होता ही नहीं । कोई चर्चा तो बिल्कुल नहीं। एक राउंड देख लीजिए, पर्याप्त है। हां, विजय विद्रोही अखबारों को लेकर आते हैं वह पूरा देखें जाने वाला होता है। वे प्रस्तुत भी रोचक ढंग से करते हैं। तो संतोष भारतीय के मित्र की बात कुछ सही भी है और कुछ अलग सी भी है। अभय दुबे ने शनिवार को आशुतोष से बात की । पूरी बातचीत में चिंता के स्वर दिखे । बढ़िया बातचीत थी । उसे देखिए। और अगले दिन यानी कल लाउड इंडिया पर। वह बातचीत भी जबरदस्त रही । अपनी बात में उन्होंने ममता बनर्जी का जिक्र करते हुए कहा कि ममता के दिमाग को समझना इतना आसान नहीं। उनके कहने का आशय यही लगा कि वे वक्त की नज़ाकत को देख कर वक्त ले रही हैं और उन्हें लेना भी चाहिए। चुनाव के मुहाने पर आते ममता का रुख कितना सकारात्मक होगा यह देखने वाली बात है। सवाल यह है कि जब अभय दुबे जैसे लोग मौजूद हैं जो मौजूदा वक्त की राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों का स्पष्ट और सटीक आकलन कर सकने में सक्षम हैं तो यह सवाल क्यों किया जाए कि किसी को देश की चिंता नहीं है। हां, विपक्ष को देख कर कुछ ऐसा ही जाहिर होता है। मोदी सरकार में सब कुछ मतदाता केंद्रित है। और मोदी जी ने मतदाताओं की श्रेणियां बांट दी हैं । समूचा मध्यम वर्ग बंटा हुआ है। मोदी समर्थक और मोदी विरोधी। इसके बीच की कोई श्रेणी नहीं है। मुसलमानों से बैर सामान्य मतदाताओं से निकल कर पुलिस और किसी हद तक सेना में भी दबा छिपा नजर आता है। पुलिस में तो अक्सर खुल कर भी कई जगह नजर आया है। लोग बेरोजगारी और महंगाई से परेशान हैं लेकिन मुसलमानों के विषय पर मोदी जी को छोड़ना नहीं चाहते। उन्हें लगता है कि अभी नहीं तो फिर कभी नहीं। वे किसी भी मूर्खता की हद तक जा सकते हैं। और असंगठित क्षेत्र के मतदाता को तो ‘मजबूत मोदी’ ही चाहिए। और यह साबित करने के लिए मुख्य मीडिया के सभी चैनल तो हैं ही।
फिर भी गौरतलब बात यह है कि प्रतिरोध के स्वर भी इसी सत्ता में गौर करने लायक हैं । कल का ‘सिनेमा संवाद’ कार्यक्रम और ‘ताना बाना’ कार्यक्रम इन दोनों में प्रतिरोध की बात हुई। सिनेमा की चर्चा बहुत अच्छी थी। फिल्मकार अविनाश दास ने सटीक बात कही या उनके मुंह से अनायास ही निकल गई कि मोदी का समय सिनेमा के लिए बहुत अच्छा है। सच भी है। कुछ समय पहले मैंने इसी कालम में लिखा था कि सिनेमा ही इस सरकार को चुनौती दे सकता है। वैसे तो हमारा पूरा समांतर सिनेमा प्रतिरोध का सिनेमा ही है। ‘अंकुर’ से लेकर ‘मिर्च मसाला’ तक। इधर भी अनुभव सिन्हा ‘भीड़’ फिल्म लेकर आ रहे हैं जो कोरोना महामारी के दौरान की सबसे खतरनाक समय की कहानी है। हिम्मत की बात है ऐसी फिल्मों का बनाया जाना और दर्शकों का उन्हें प्रतिसाद देना ।किसी ने इसी कार्यक्रम में कहा कि इस सरकार के इशारे पर बनी सभी फिल्में पिटी हैं सिर्फ ‘कश्मीर फाइल्स’ को छोड़ कर। और उसके चलने के दूसरे अन्य कारण थे।
इसी तरह ‘ताना बाना’ में इस बार केवल एक ही हिस्सा था चर्चा का । मैं कभी इस कार्यक्रम को पूरा नहीं सुन सका, अपने ही कारणों से। पर कल का कार्यक्रम नेहा सिंह राठौड़ के बहाने लोक गायन में प्रतिरोध को लेकर था । रोचक कार्यक्रम लगा । अंत तक देखा । खासतौर पर लोक गायक प्रहलाद सिंह तिपानिया और राकेश को सुनना अच्छा लगा। मुकेश जी को बधाई।
एक दिन अचानक रात दस बजे ‘आशुतोष की बात’ कार्यक्रम देखा तो उसमें आशुतोष गायब थे । उनकी जगह आलोक जोशी का चेहरा देख कर मन खिल उठा । सोचा आलोक जी को लिखा जाए कि यह कार्यक्रम भी आप ही पेश किया कीजिए। बेशक इसी नाम से। आशुतोष को ‘सत्य हिंदी’ के बिग बॉस की भूमिका दे दीजिए । वैसे वो हैं भी । पर उनके संचालन से तो भगवान बचाए। वे सिर्फ दूसरों के कार्यक्रम में पैनलिस्ट के रूप में भाते हैं या जब किसी एक का इंटरव्यू लेते हैं तब । ‘सत्य हिंदी’ की चर्चाएं इतनी फालतू होती जा रही हैं और कई पैनलिस्ट तो कई बार कह भी देते हैं बातचीत में ही कि हम इस पर चर्चा क्यों कर रहे हैं। आशुतोष जैसे लोग दर्शकों का भ्रम बनाए रखना चाहते हैं। कार्यक्रम शुरु करने से पहले ‘दर्शकों के लिए एक छोटी सी बात’ वैसे ही लगता है जैसे कोरोना महामारी के समय में किसी को भी फोन कीजिए तो कोरोना का थकाऊ मैसेज झेलिए। लोग इसी तरह आशुतोष का मजाक उड़ाते हैं। कहा जाता है कि लोग इन्हें पैसा दे नहीं रहे या बहुत पैसा आ रहा है पर हवस फिर भी नहीं मिट रही । जब आपके दर्शक बंधे बंधाए हैं तो उन्हें रोज रोज क्यों झिलाते हो भाई और रोज रोज उन्हीं लोगों को लेकर बैठने वालों के रटे रटाये परिचय देकर समय क्यों बरबाद करते हो । सतीश के सिंह ‘ज़ी न्यूज़ के पूर्व संपादक’ हजारों बार हो चुका। जो आदमी आते ही ‘डिस्क्लेमर’ दे देता है कि मुझे तो कुछ पता नहीं। फिर भी ऐसे आदमी को बुलाने की क्या मजबूरी है । मजबूरी दोस्ती की है । इसलिए वे हर किसी के यहां आते रहेंगे। उसी तरह जैसे नीलू व्यास के यहां अनिल सिन्हा और अश्विनी शाही । शाही सिन्हा पर ताना मारते हैं कि वो जब भी मुंह खोलते हैं तो हवा ही निकालते हैं। और सच बात यही है भी। पर नीलू ऐसे लोगों से मुक्त नहीं होना चाहती। इसीलिए ये कार्यक्रम सिर्फ मजे भर के लिए चल रहे हैं । पारदर्शी कपों में चाय सुड़कते हुए । इन्हें देख कर संतोष जी के मित्र की बात बराबर लगती है।
रवीश कुमार के कार्यक्रमों को लोग आज भी उसी प्रधानता के साथ सुन रहे हैं । रवीश की मेहनत और उपस्थिति की दाद देनी पड़ती है । दरअसल रवीश अब ऐसे मुकाम पर आ गये हैं जहां न वापस लौटते बनता है न थमते बनता है। अब हर हाल में उन्हें इसी तरह बढ़ते जाना है । मोदी सरकार का जो हो पर उन्हें अपने हिस्से का काम करते जाना है। यही शान से ‘शहीदी’ कहलाती है।
इसी तरह ‘वायर’ में आरफा खानम शेरवानी के प्रोग्राम और इंटरव्यू होते हैं । पिछले दिनों उनके कई कार्यक्रम काबिलेतारिफ रहे । मोदी किसी भी हाल में 2024 की बाजी हाथ से नहीं जाने देना चाहते। ‘जी 20’ देशों के सम्मेलन अगले बरस की शुरुआत तक हैं तब तक देशवासी मजबूत मोदी को देख लेंगे नहीं तो मीडिया का बड़ा वर्ग साबित ही कर देगा । और जीत करीब आ जाएगी । विपक्ष भी इसी तरह शिखंडी बना रहा तो किसी पुलवामा जैसे की जरूरत भी क्या रह जाएगी। जो होगा वह किसी को पता भी नहीं चलेगा और हो जाएगा। पर हम देश के बुद्धिजीवियों को कभी माफ नहीं कर पाएंगे।
यह समय इमरजेंसी के दौर से सौ गुना आगे का है । 2014 से पहले की राजनीति और उसके बाद की राजनीति के अंतर को जो नहीं समझा और जो पुराने किस्सेकोतों और प्रसंगों में उलझा रहा राजेश बादल और विनोद अग्निहोत्री की तरह तो वह खुद तो डूबेगा ही सबको डुबोएगा । ऐसों से बच कर चलिए।
काश मोदी जी ‘साम्प्रदायिक सौहार्द’ वाले तानाशाह होते …..
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