आदर्शवाद बुरा राजनेता बनाता है, जबकि यथार्थवादी किसी भी क़ीमत पर जीतना चाहते हैं. वे वापस सत्ता में आना चाहते हैं और इसके लिए वे धर्मनिरपेक्षता और मंडल से जुड़ी हर एक चाल अपनाएंगे.  अब लोग उन्हें सुनते हैं या नहीं, यह इस पर निर्भर करेगा कि नरेंद्र मोदी समावेशी विकास के अपने वादे को कितनी तेजी से पूरा करते हैं. अगर वह सफल होते हैं, तो कोई वैकल्पिक राजनीति कामयाब नहीं होगी. लेकिन, अगर भाजपा कमंडल राजनीति करती है, तो लोहियावादियों के पुराने समूह के लिए उम्मीद बाकी है.

09JANATAदिल्ली पर बुरा वक़्त आया हुआ है. पहली आप सरकार इसलिए गिरी, क्योंकि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को यह भ्रम था कि सत्ता में रहने के बावजूद वह सत्ता का स्थायी तौर पर विरोध करने वाले एक छात्रनेता हैं. अब वही रागनी फिर से गाई जा रही है, लेकिन इस बार हंगामे के केंद्र में कोर ग्रुप के मेंबर हैं. उनमें हर कोई यह समझ रहा है कि एक वही उन आदर्शों का पालन कर रहा है, जिन पर पार्टी बनाई गई थी और बाकी जो हैं, वे अवसरवादी खलनायक हैं. खैर, ऐसा तो देर-सबेर होना ही था. आइए, इस पर एक नज़र डालते हैं. अभी तक खेल खत्म नहीं हुआ है. जब कोई पार्टी 70 सीटों में से 67 सीटें जीत जाती है, तो आप देखेंगे कि अधिकतर एमएलए कभी न कभी खुद को ग़ैर ज़रूरी ज़रूर महसूस करते होंगे. उन्हें लगता है कि सरकार चलाने के लिए महज 36 विधायक ही तो ज़रूरी हैं. फिर सरकार चलाने और महत्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए तो पार्टी के चार लोग ही काफी हैं. साधारण अर्थ में आप एक राजनीतिक दल नहीं है. यह आदर्शों से भरे हुए एक आंदोलन के तौर पर शुरू हुई थी. यह पार्टी अवास्तविकता से भरी हुई है, इसमें आंतरिक लोकतंत्र बहुत कम है. पार्टी एक बैंड ऑफ ब्रदर्स है, जिसमें सबको लगता है कि वह खास है. अरविंद केजरीवाल को लगता है कि वही केवल पार्टी के सबसे अच्छे नेता हैं. यह अजीब नहीं है कि वे लोग, जिन्होंने सोचा था कि वे भी प्रसिद्ध हैं, खुद को पीछे पाने लगे. चूंकि पार्टी के पास साधारण मनुष्य के रूप में भी सदस्यों के साथ व्यवहार के लिए कोई उचित प्रक्रिया नहीं थी, इसलिए भाइयों के बीच विवाद लगातार बढ़ता चला गया. और तो और, लोकपाल को भी उचित सूचना दिए बिना बर्खास्त कर दिया गया.
बहरहाल, इस ग़लती को भी मा़फ किया जा सकता था, यदि केजरीवाल कुछ प्रभावी शासन दे रहे होते. आदर्शवाद शुरुआत में ठीक है, सदाचार के लिए इनाम हो सकता है, लेकिन जैसे ही लोगों के जीवन में बदलाव लाने की शक्ति आपके पास आती है, वैसे ही सदाचार दूसरे स्थान पर चला जाता है. उससे पहले काम करने की क्षमता आ जाती है. राजनीतिक दलों से प्रभावी होने की उम्मीद की जाती है, न कि शुद्ध होने की. हमारे पास एक प्रधानमंत्री थे, जिनकी व्यक्तिगत शुचिता संदेह से परे है, लेकिन उनकी प्रभावशीलता को लेकर कई सवाल उठे.
आदर्शवादी या यथार्थवादी लाइन के दूसरे छोर पर पुरानी जनता पार्टी के टुकड़ों के बीच नए विलय की कहानी है. पाठकों को याद होगा कि पिछले साल मई में भाजपा की विजय के बाद मैंने संभावना जताई थी कि भाजपा या एनडीए के ़िखला़फ केवल एक व्यवहारिक गठबंधन पुराने लोहियावादी समूह से आएगा. पुराने और अनुभवी नेताओं के साथ आने से उन पर आदर्शवाद का आरोप लगाए जाने की संभावना नहीं है. और, फिर वे केजरीवाल की तरह किशोर विपक्ष की तरह व्यवहार भी नहीं करेंगे.
उत्तर प्रदेश एवं बिहार के यादवों के साथ जुड़ने, बिहार में अपने कुर्मी आधार के साथ जद (यू) और फिर जद (एस) गठजोड़ से इन दो राज्यों के 120 संसदीय क्षेत्रों में भाजपा के लिए एक चुनौती की शुरुआत हो गई है. जैसा कि अमेरिकी कहेंगे, यह कई पार्टी चीफ का समूह है, न कि पर्याप्त भारतीयों का. उक्त सारे नेता एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी रहे हैं और हो सकता है कि फिर से एक बार प्रतिद्वंद्वी हो जाएं. थोड़ी देर के लिए ही सही, लेकिन मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार और दक्षिण से एचडी देवेगौड़ा का साथ आना अहम होगा. उद्घाटन के अवसर पर तृणमूल कांग्रेस और राकांपा के उपस्थित रहने के दावे किए जा रहे हैं. आप याद कर सकते हैं कि पुरानी जनता पार्टी के कोर मेंबर कांग्रेसी ही थे, जिन्हें इंदिरा गांधी ने बर्खास्त कर दिया था. उक्त नेता सालों पुराने हैं, ओबीसी पॉलिटिक्स में उनका पुराना अनुभव रहा है तथा वे सत्ता पाने और शासन चलाने के तौर-तरीकों से भलीभांति परिचित हैं. यदि राकांपा और तृणमूल अच्छी तरह से शामिल हो जाएं, तो बाहर स़िर्फ इंदिरा कांग्रेस बचेगी, जो पहले से बुरी हालत में है.
आदर्शवाद बुरा राजनेता बनाता है, जबकि यथार्थवादी किसी भी क़ीमत पर जीतना चाहते हैं. वे वापस सत्ता में आना चाहते हैं और इसके लिए वे धर्मनिरपेक्षता और मंडल से जुड़ी हर एक चाल अपनाएंगे. अब लोग उन्हें सुनते हैं या नहीं, यह इस पर निर्भर करेगा कि नरेंद्र मोदी समावेशी विकास के अपने वादे को कितनी तेजी से पूरा करते हैं. अगर वह सफल होते हैं, तो कोई वैकल्पिक राजनीति कामयाब नहीं होगी. लेकिन, अगर भाजपा कमंडल राजनीति करती है, तो लोहियावादियों के पुराने समूह के लिए उम्मीद बाकी है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here