स्टेन स्वामी की मृत्यु के बाद कुछ भी लिखने-कहने की फूहड़ता से बचने की बहुत कोशिश की मैने.
मुझे लगता रहा की यह अवसर ऐसा है की हम आवाज़ ही नही, सांस भी बंद कर लेते तो बेहतर ! लेिकन
घुटन ऐसी ही वैसा कर के भी हम अपने कायर व क्रुरु अस्तित्व से बच नही पाएंगे तो कुछ बोलना या
पूछना ज़रूरी हो जाता है. और पूछना आपसे है रमण साहब !
मेरे पूछने मे थोड़ी तली और बहत सारी बेबाकी हो तो मै आशा करता हु की आप इसे अदालत की अवमानना नही, लोकतंत मेलोक की अवमानना की अपमानजनक पीड़ा की तरह समझेगे, क्युकि इस अदालत की अवमानना भी का करना !! और यह भी शुरू मे ही कह दू की आप से यह सब कह रहा हूँ तो इसिलए नही की हमारी तथाकिथत नायपािलका के सबसे बड़े पालक है आप ! यह बहत पीड़ाजनक है और यह कहने मे मुझे सच, बहत पीड़ा हो भी रही है और गािन भी लेकिन यही सच है की अपनी नायपािलका के सबसे बड़े पालको सेइधर के वर्षो मे कुछ कहने या सुनने की साथरकता बची ही नही थी.
लेकिन गांधी ने हमे सिखाया की एक चीज़ होती है अंतराता; और वह जब छई जा सके तब छने की कोशिश करनी चाहिए. मै वही कोिशश कर रहा हु और इसके कारण भी आप ही है. अहमदाबा द मे आयोजित जिस मे पी.डी. देसाई मेमोिरयल ट्रस्ट के वाखान मे अभी-अभी आपने कुछ ऐसी नायाब बाते कही की जिनसे लगा की कही, कोई अंतराता हैजो धड़क रही है. मै उसी धड़कन के साथ जुड़ने के लिए यह लिख रहा हूँ।
मी लॉड, 84 साल का एक थरथराता-कांपता बूढ़ा, जो सुन भी नही पाता था, कह भी नही पाता था, चलने-खाने-पीने मे भी जिसकी तकलीफ नंगी आँखों से दिखाई पड़ती थी वह नायपािलका के दरवाजे पर खड़ा होकर अपनी रिहाई नही, इतना ही तो मांग रहा था की उसे अपने घर मे, अपने लोगो के बीच मरने की इजाजत देदी जाए ! उसने कोई अपराध नही किया था, राज ने उसे अपराधी माना था. इस आदमी पर राज का आरोप था की यह राज का तखा पलटने का षडंत रच रहा है,की राज-पमुख की हता की दुरभिसंधि मे लगा है. इस आरोप के बारे मे हम तो का कह सकते है, कहना तो आपको था. आपने नही कहा. हो सकता है की न्याय की नई पिरभाषा मे यह अधिकार भी नायपािलका के पास आ गया हो की न्याय करना की न करना उसका विशेष अधिकार है।
हमे तो अपनी प्राइमरी स्कुल की किताब मे पढ़ाया गया था, और हमे उसे ठस करने को कहा गया था की न्याय मे देरी सबसे बड़ा अन्याय है. इसिलए स्टेन स्वामी के अपराधी होने, न होने की बात हम कुछ नही कहते है लेकिन जानना यह चाहते है की जीवन की अंतिम सीढ़ी पर कांपते-थरथराते एक नागिरक की अंतिम इचा का समान करना, का नायपािलका की मनुषता से कोई रिश्ता रखता है ? फांसी चढ़तेअपराधी से भी उसकी आखरी इचा पूछना और यथा संभव उसे पूरा करना नाय के मानवीय सरोकार को बताता है. अगर ऐसा है तो स्टेन स्वामी के मामले मे अपराधी नायपािलका है. मी लार्ड, आपका तो काम ही अपराध की सजा देना है, तो इसकी का सजा देगे आप अपनी नायपािलका को ?
आपने अपने वाखान मे कहा की कुछ सालो मे शासको को बदलना इस बात की गारंटी नही है की समाज सता के आतंक या जुर्म से मुक्त हो जाएगा. आप की इस बात से अपनी छोटी समझ मे यह बात आयी की सता जुर्म भी करती है और आतंक भी फैलाती है. तो फिर अदालत मे बार-बार यह कहते स्टेन स्वामी की बात आपकी नायपािलका ने को नही सुनी की वे न तो कभी भीमा कोरेगांव गए है, न कभी उन सामग्रियों को देखा-पढ़ा जिसे रखने-पचािरत करने का साक्षिवाहीन मन माना आरोप उन पर लगाया जा रहा है ?
मी लॉड, कोई एक ही बात सही हो सकती है – या तो आपने सत्ता के आतंक व जुर्म की जो बात कही, वह; या आतंक व जुर्म से जो सत्ता चलती है वह ! स्टेन स्वामी तो अपना फैसला सुना कर चले गए, आपका फैसला सुनना बाकी है. आपने अपने व्याख्यान में यह बड़े माकेर् की बात कही की आज़ादी के बाद से हुए 17 आम चुनावों में हम नागिरकों ने अपना संवैधािनक दाियत्व खासी कुशलता से निभाया है. फिर आप ही कहते हैं की अब बारी उनकी है जो राज्य के अलग-अलग अवयवों का संचालन नियमन करते हैं की वे बताएं की उन्होंने अपना संवैधािनक दाियत्व कितना पूरा किया. तो मैं आप से पूछता हूं की न्यायपािलका ने अपनी भूिमका का कितना व कैसा पालन किया ? न्यायपािलका नाम का यह हाथी हमने तो इसी उम्मीद में बनाया और पाला की यह हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों की पहरेदारी करेगा. हमने तो आपका काम एकदम आसान बनाने के लिए यहां तक किया की एक किताब लिख कर आपके हाथ में धर दी की यह सविधान है जिसका पालन करना और करवाना आपका काम है. तो फिर मैं पूछता हूं की उस सविधान का पालन करते व
करवाते हुए यह कैसे संभव ही हुआ की नागिरकों के लोकतांत्रिक अिधकारों पर पाबंदिया डालने वाले इतने
सारे कानून बनते चले गए ?
हमारा सविधान कहता है की संसद कानून बनाने वाली एकमात्र संस्था है लेिकन वही सविधान यह
भी कहता है की कोई भी कानून सविधान सम्मत है या नहीं, इसका फैसला करने वाली एकमात्र संस्था
न्यायपािलका है. संसद आतंक व जुर्म की ताकत से राज करने वाले कानून बना ही सकती है लेिकन उसे
न्यायपािलका असंवैधािनक घोिषत कर निरस्त कर सकती है.फिर मी लॉड, ऊपा जैसे कानून कैसे बन गए
और न्यायपािलका ने उसे पचा भी लिया जो इसी अवधारणा पर चलती हैं की इसे न्यायपािलका न जांच कर
सकती है, निरस्त कर सकती है ? जो न्यायपािलका को अपना संवैधािनक दाियत्व पूरा करने में असमर्थ
बना दे, ऐसा कानून सविधान सम्मत कैसे हो सकता है ? भीमा कोरेगांव मामले में जिन्हे पकड़ा गया है, उन
सब पर मुकदमा चले और उन्हें कानून सम्मत सजा हो, इस पर किसी को एतराज कैसे हो सकता है ?
लेिकन बिना मुकदमे के उनको जेलों में रखा जाए और हमारी न्यायपािलका वषोर्ं चुप रहे , यह किस तर्क से
समझा जाए ?
कश्मीर अगर यह पूछे की क्या हमारी न्यायपािलका पूरे देश के लिए है कश्मीर को छोड़ कर आपने उस व्याख्यान में बहुत खूब कहा की कानून जनता के लिए हैं इसिलए वे सरल होने चाहिए और उनमें किसी तरह की गोपनीयता नहीं होनी चािहए. मी लॉड, यह हम कहें तो आपसे कहेंगे, आप कहते हैं तो किस्से कहते हैं ? आपको ही तो यह करना है की सविधान की आत्मा को कुचलने वाला, जिटल, समझ में न आने वाला और अपराध के बारे में अमानवीय गोपनीयता रखने वाला कोई भी कानून प्रभावी न हो. ऐसा क्यों नहीं होता है ? गांधी ने ऐसा सवाल कितनी ही बार, कितनी ही अदालतों में पूछा था. लेिकन तब हम गुलामों को जवाब कौन देता ? लेिकन अब ? अब तो लोकतंत्र भी है और आप भी हैं? अब तो एक ही सवाल पूछने को रह जाता है : जो न्यायपािलका सरकार की कृपादृिष्ट के लिए तरसती हो, वह न्यायपािलका रह जाती है क्या ? सवाल तो और भी हैं, जवाब आपकी तरफ से आना है.