बिहार विधानसभा चुनाव में एक ही मुद्दा छाया है कि गोमांस खाना चाहिए या नहीं खाना चाहिए. कोई भी शख्स यह नहीं बताता कि वह बिहार में क्या करेगा और कैसे करेगा. भारतीय जनता पार्टी ने अवश्य कहा है कि वह लड़कियों को स्कूटी देगी और उसका पेट्रोल भी देगी. जो लिखी हुई बातें हैं, वे ही लोगों के पास नहीं पहुंच पा रही हैं. बिहार में कितना लोगों को रोज़गार मिलेगा, कैसे भूखों को भोजन मिलेगा, कैसे विकास होगा, रा़ेजगार के अवसर कैसे बढ़ेंगे, यह सब किसी की ज़ुबान पर नहीं है, किसी के भाषणों में नहीं है. ऐसा लगता है कि बिहार चुनाव की पुरानी प्रयोगशाला से आगे नहीं बढ़ पाया है.
बिहार के लोगों ने वोट डाले हैं, काफी आशा से वोट डाले हैं. कुछ लोगों का मानना है बिहार में जाति के ऊपर वोट पड़ा है, कुछ का मानना है कि धर्म के ऊपर वोट पड़ा है और कुछ का मानना है कि खेल-खेल में वोट पड़ा है. अगर ऐसा है, तो यह बिहार का दुर्भाग्य माना जाएगा. बिहार के भविष्य का फैसला करने का ज़िम्मा और अपने लिए सबसे अच्छी सरकार चुनने का मौक़ा बिहार के लोगों को मिला है. बिहार के लोग इस मा़ैके को अगर गंवा देंगे, तो यह मा़ैका अगले पांच वर्षों तक दोबारा नहीं आने वाला. एक ही स्थिति में दोबारा आएगा, अगर सरकार किसी की न बन पाए और एक बार बिहार में यह हो चुका है.
ऐसी स्थिति में हम राजनीतिक दलों को दोष दें या बिहार की जनता को? अब राजनीतिक दलों को दोष देने का वक्त गया, क्योंकि देश के राजनीतिक दल अपनी न दिशा बदलेंगे, न अपनी दशा बदलेंगे और न अपना तरीका बदलेंगे. जनता अगर यह मानती है कि राजनीतिक दल उसके हित के लिए काम करेंगे, तो यह फिर एक बार मृग-मरीचिका साबित हो सकती है. लेकिन जनता के सामने विकल्प भी नहीं है. जनता के सामने इसलिए विकल्प नहीं है, क्योंकि जनता अगर निर्दलीय उम्मीदवारों को वोट देती है, तो वे जीतकर मंडी में खड़े हो जाते हैं और कभी इस तऱफ, तो कभी उस तऱफ जाने की बात करते हैं. बिहार की जनता कैसे बदलेगी. वर्षों पहले चुनाव में मतदाता शिक्षण का काम बहुत सारे स्वयंसेवी संगठन करते थे, लेकिन अब मतदाता शिक्षण का काम कोई नहीं करता, क्योंकि लोगों को लगता है कि मतदाता शिक्षण की ज़रूरत है ही नहीं. मतदाता शिक्षित हो गया है, इतना शिक्षित ज़रूर हो गया है कि वह ईवीएम का बटन दबाए, लेकिन बिना लोभ-लालच के बटन दबाए, इतना शिक्षित तो अभी नहीं हुआ है. अगर इतना शिक्षित नहीं हुआ है, तो फिर क्या करना चाहिए?
अक्सर यह होता है कि जब चुनाव आता है, तो लोग अपने सपने भूल जाते हैं, अपनी तकलीफें भूल जाते हैं और अपना भविष्य भूल जाते हैं. उन्हें स़िर्फ याद रह जाती है अपनी जाति और धर्म. इसलिए बिहार चुनाव गोमांस खाना चाहिए या नहीं खाना चाहिए, इसके ऊपर सिमट कर रह गया है. हर शख्स सोच रहा है कि यह विषय उसके हित में है, इसलिए वह जानबूझ कर इसे बढ़ा रहा है.
मुझे ऐसा लगता है कि बिहार की जनता शायद इस बार थोड़ी समझदारी से काम करे, पर जिस तरह की खबरें समाचार-पत्रों और टेलीविजन चैनलों में आ रही हैं या जिस तरह की बहस टेलीविजन चैनलों के ऊपर हो रही है, वे कहती हैं कि इस तरह की आशा अभी नहीं करनी चाहिए.
बिहार की जनता देश की जनता से शायद अलग नहीं है. देश की जनता ने दिल्ली में जैसी सरकार चाहिए थी, वैसी सरकार चुनी. लेकिन, वह सरकार भी अभी तक लोगों की कसौटी के ऊपर क़दम नहीं बढ़ा सकी है. हालांकि, एक बहुत बड़ी घटना पिछले दिनों हुई, जब देश से काला धन विदेश भेजने के लिए बैंकों का इस्तेमाल किया गया. इनमें निजी बैंक भी हैं और वे बैंक भी हैं, जो विदेशी बैंक कहे जाते हैं और उनके साथ भारत के राष्ट्रीयकृत बैंक भी जुड़ गए हैं. यह इतना बड़ा खुलासा हुआ है और इस खुलासे के ऊपर अभी तक कोई क़दम नहीं उठाया गया.
1993 में जब नरसिम्हाराव जी की सरकार थी और मनमोहन सिंह जी वित्त मंत्री थे, तब भी ऐसा घोटाला पकड़ में आया था, जिसमें पता चला था कि पांच हज़ार करोड़ रुपये विदेशी बैंकों ने हिंदुस्तान से विदेशों में साइफन-ऑफ कर दिए. कुछ दिनों तक अ़खबारों में उसकी चर्चा चली, फिर सरकार ने यह कहकर उस समय के संपादकों को मना लिया कि अगर यह ़खबर ज़्यादा चलाएंगे, तो उसे अपनी नई आर्थिक नीतियां लागू करने में दिक्कत पेश आएगी और विदेशी निवेश हिंदुस्तान में नहीं आएगा. 1992 से लेकर अब तक कितना विदेशी निवेश आया, इसका कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. हक़ीकत यह है कि कोई विदेशी निवेश आया ही नहीं. सारे के सारे बैंक बाज़ार के हवाले हो गए और जो लोग बैंकों का इस्तेमाल कर सकते थे, उन्होंने उनका जमकर इस्तेमाल किया.
अब फिर से बैंकों का एक घोटाला सामने आया है. हालांकि, यह घोटाला ऑडिटर्स की वजह से सामने आया, जो समझ नहीं पाए और बैंक भी समझ नहीं पाए कि यह जो क़ानून की पूरी सीमा के अंदर रहकर पैसा विदेश में भेजा जा रहा है और विदेश से आ रहा है, इसका मतलब क्या है? जब ईडी (इंफोर्समेंट डायरेक्टर) ने जांच की, तब पता चला कि यह तो एक बहुत बड़ा घोटाला है, आर्थिक अपराध है, जिसे बैंक के अधिकारी व्यापारियों के साथ मिलकर कर रहे थे. अगर 1993 में बैंकों को सुधारने की कोशिश की गई होती, तो शायद यह नौबत न आती. पिछले पांच, सात, आठ, नौ, दस और पता नहीं, कितने सालों से यह सारा घोटाला चल रहा है और अब यह डर है कि इसमें कई और बैंक शामिल होने वाले हैं. लेकिन, इस पूरी घटना को नए सिरे से दबाया जा रहा है. यह कहा जा रहा है कि इससे विदेशी निवेश आने में दिक्कत होगी. मेक इन इंडिया एवं डिजिटल इंडिया जैसी महत्वाकांक्षी योजनाएं प्रभावित हो जाएंगी, क्योंकि विदेश से पैसा नहीं आएगा. इसका मतलब यह कि बैंकों का इस्तेमाल करने वाले लोग इतने ताकतवर हैं कि वे बैंकों में सुधार होने ही नहीं देना चाहते. हालांकि, मेरा यह मानना है कि इतना बड़ा आर्थिक षड्यंत्र पकड़ना बिना प्रधानमंत्री की राय के नहीं हो सकता, पर प्रधानमंत्री की राय से पकड़ा जाने वाला यह आर्थिक षड्यंत्र दोबारा न हो, इसकी ज़िम्मेदारी वित्त मंत्री की है. अब देखना यह है कि वित्त मंत्री इस संबंध में क्या करते हैं.
बिहार जैसे प्रदेश, जहां बैंकों का रोल विकास में होना चाहिए, शायद वहां बैंकों का रोल विकास में इसलिए नहीं हो पा रहा है, क्योंकि बैंकों का प्रमुख क्षेत्र व्यवसायी हैं, जो बैंकिंग सिस्टम का इस्तेमाल अपने हित में कर रहे हैं. ग़रीबों को लोन नहीं मिलता, ग़रीबों को आर्थिक मदद नहीं मिलती और इसके लिए कोई योजना बैंकों में है नहीं. बहुत सारी जगहों पर, जहां बैंकों ने जन-धन खाते खोले हैं, उनमें शून्य पैसा है और उनका कोई इस्तेमाल ग़रीबों के लिए नहीं हो रहा है. कम से कम बिहार की तो यही स्थिति है.
अब मेरा स़िर्फ यह कहना है कि क्या इस चुनाव के बाद बिहार अपनी मौजूदा स्थिति से उबर पाएगा? मुझे आशा नहीं है, लेकिन फिर भी मैं जनता के ़फैसले से निराश नहीं हूं, क्योंकि जनता ने अगर एक ़फैसला दिया है, तो वह उस ़फैसले पर अमल कराने के लिए अपनी कोई ताकत ज़रूर बनाएगी. और, जयप्रकाश जी कहते थे कि एक्स्ट्रा पार्लियामेंट्री अपोजिशन होना चाहिए, जो राजनीतिक दलों से अलग हो. तो बिहार के लोग, जिन्होंने जयप्रकाश जी को सुना है, समझा है, आज भी वहां उन्हें चाहने हैं, वे सारे लोग अब बिहार में एक्स्ट्रा पार्लियामेंट्री अपोजिशन की शुरुआत करेंगे, ताकि आने वाली चुनी हुई सरकार अपने किए हुए वादों से दूर न हट सके और जनता से दूर न जा सके. प