भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य (मोटो) है, सत्यमेव जयते. सत्य हमें स्वतंत्रता देगा, गांधी जी अक्सर यह मंत्र पढ़ा करते थे. इसके बावजूद सरकार भारतीय वास्तविकता के कुछ पहलुओं की आलोचना पर बार-बार प्रतिबंध और निषेध लगा देती है. अब इसमें घबराने की क्या बात है, अगर ग्रीनपीस (जिसकी अधिकतर फंडिंग भारतीय दानकर्ताओं द्वारा होती है) से जुड़ा कोई भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता लंदन जाकर वहां के सांसदों की एक ग़ैर सरकारी समिति के समक्ष देश (भारत) के आदिवासियों की दुर्दशा बयान करना चाहता/चाहती है? सरकार अनावश्यक रूप से उसे वहां जाने से क्यों रोकना चाहती है? ऐसा करके क्या हासिल किया जा सकता है? इसका दुनिया में यह संदेश जाएगा कि भारत के पास कुछ रहस्य हैं, जिन्हें वह छिपाना चाहता है, जो उस विषय पर पहले से मौजूद जानकारियों से बदतर हैं.
भारत एक खुला और उदार समाज है. यहां नागरिकों को अभिव्यक्ति की आज़ादी की गारंटी है और एक स्वतंत्र मीडिया है. क्या शासक वर्ग यह समझता है कि किसी एक कार्यकर्ता के विदेश दौरे पर पाबंदी लगाकर हम देश की छवि बेहतर बना सकते हैं? क्या यह गर्व करने लायक विषय न होता कि उस कार्यकर्ता को वहां जाकर अपनी बात रखने का मौक़ा दिया जाता? ऐसा करने से यह साबित हो जाता कि झूठ और दुष्प्रचार पर सच्चाई की जीत होती है. और, अब 16 दिसंबर, 2012 के दिल्ली सामूहिक बलात्कार कांड के बारे में दस्तावेज़ी फिल्म (डाक्यूमेंट्री) पर प्रतिबंध! अब सवाल उठता है कि क्या यह बलात्कार नहीं हुआ था और क्या इसकी वजह से भारत और दुनिया के लोग सकते में नहीं आ गए थे? अगर अपराधियों में से एक शख्स किसी फिल्म निर्माता के सामने उक्त बलात्कार प्रकरण में अपना पक्ष रखता है, तो इसमें फिल्म पर प्रतिबंध लगाने का क्या औचित्य है? क्या फिल्म पर प्रतिबंध लगा देने से उस अपराधी में सुधार आ जाएगा? क्या यह प्रतिबंध ऐसे लोगों के व्यवहार की जानकारी लोगों तक नहीं पहुंचने देगा? क्या भारत एवं दुनिया के लोग इस मामले और भारतीय नारी के साथ रोजाना होने वाले बलात्कार, छेड़छाड़ व उत्पीड़न की घटनाएं भूल जाएंगे?
इन दोनों घटनाओं में एक समानता है यानी विदेशियों से डर (जेनोफोबिया), जो कभी-कभी साम्राज्यवाद विरोध के नाम पर वामपंथ और देशभक्ति का लबादा ओढ़ लेता है. हम विदेशियों से नफ़रत क्यों करें या उनसे डरें क्यों? उत्तर कोरिया या क्यूबा की तरह अधिनायकवादी राष्ट्र सच्चाई दबा सकते हैं, लेकिन एक उदार लोकतंत्र ऐसा क्यों करे? क्या विदेशियों को केवल भारत का गुणगान करना चाहिए और जब वे एक सैलानी रूप में यहां आएं, तो उन्हें यहां की रोजाना की वास्तविक ज़िंदगी के बारे में कुछ मालूम न हो? दरअसल, सरकारी अधिकारी समझते हैं कि किसी चीज़ पर प्रतिबंध लगाने से वह हमेशा के लिए गायब हो जाएगी. प्रभावशाली लोगों को भ्रम है कि वे आम जनता के दिलोदिमाग पर जिस तरह से चाहें, शासन कर सकते हैं और उसे अपनी रैयत समझ सकते हैं. उस पर इतना विश्वास नहीं किया जा सकता कि वह अपने लिए सोच सके. एक ज़माना था, दुनिया के हर हिस्से में शक्तिशाली एवं प्रभावशाली लोगों की यही सोच थी. भला हो लोकतंत्र और मानवाधिकार के लिए सालों तक चलने वाले संघर्ष का, जिसके चलते लोगों को खुद सच्चाई जानने का अधिकार मिला. गांधी एवं टैगोर जैसे महापुरुष भी दृढ़ता से इस बात के पक्षधर थे कि बिना किसी डर के हर तरफ़ से अच्छे विचारों को आने देना चाहिए.
जब रिचर्ड ऐटनबरो गांधी पर अपनी फिल्म बना रहे थे, तो सरकारी अधिकारियों ने फिल्म की स्क्रिप्ट पर कई सवाल खड़े किए थे. किसी ने यहां तक सुझाया था कि गांधी की तस्वीर के बजाय एक जलते हुए दीपक को दिखाया जाए. ऐटनबरो ने यह कहकर इस विचार को खारिज कर दिया था कि वह टिंकर बेल पर कोई फिल्म नहीं बना रहे हैं! उनकी जिद की वजह से गांधी एक कभी न भुलाई जाने वाली क्लासिक फिल्म बन सकी. यह वह फिल्म थी, जिसने गांधी का परिचय उस नस्ल से कराया, जो उनकी मौत के दशकों बाद पैदा हुई थी. यह सच्चाई है कि नेहरू के ऊपर कोई फिल्म नहीं बनी, क्योंकि परिवार को यह डर था कि उसमें एडविना माउंटबेटन के साथ उनका प्रेम प्रसंग दिखाया जाएगा, जो एक खुला राज़ था. जब सत्ता के वंशानुगत संरक्षक अपनी खामियां छिपाना चाहते हैं, तो वे आम जनता को बच्चा समझने लगते हैं.
जिन्ना के ऊपर बनी फिल्म पर भी तमाशा खड़ा किया गया था. मैं उन गिने-चुने लोगों में से था, जिन्होंने यह बेहतरीन फिल्म देखी थी. यह फिल्म भारत और पाकिस्तान में प्रतिबंधित थी! पाकिस्तान में इस फिल्म पर पाबंदी लगाने की वजह यह थी कि इसमें जिन्ना को धूम्रपान, मदिरापान और सूअर के मांस का सेवन करते हुए दिखाया गया था. भारत में प्रतिबंध की वजह यह थी कि उन्हें सींग वाले शैतान के बजाय एक सामान्य इंसान के रूप में दिखाया गया था. खुशकिस्मती से अब सेंसरशिप कारगर नहीं होती. दिल्ली सामूहिक बलात्कार प्रकरण पर बनी दस्तावेज़ी फिल्म (डाक्यूमेंट्री) इंटरनेट द्वारा दिखाई जाएगी. केवल मंत्री यह सोचते हैं कि वे सच्चाई पर पाबंदी लगा सकते हैं.
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