भारतीय सेना के पास जो हथियार हैं, उनमें से 68% हथियार आउट डेटेड हैं. जबकि पुरानी टेक्नोलॉजी के हथियारों का औसत 33% से अधिक नहीं होना चाहिए. अब आप खुद सोच सकते हैं कि इतने पुराने और घिसे-पिटे हथियारों के बूते भारतीय सेना आपकी कितनी और कैसे सुरक्षा करेगी?
क्या सेना वाकई हथियारों की कमी से जूझ रही है? यह महज़ एक राजनीतिक आरोप भर नहीं है. अब तो सेना ने भी कह दिया है कि अगर दुश्मन देशों के साथ पूर्ण युद्ध लड़ने की नौबत आ जाए तो भारतीय सेना के पास 10 दिनों से ज़्यादा का गोला बारूद नहीं है. आदर्श स्थिति में सेना के पास 40 दिनों के लिए युद्ध सामग्री का भंडार सुरक्षित रहना चाहिए. रक्षा मामलों की संसदीय समिति के सामने यह खुलासा किसी और ने नहीं, बल्कि भारतीय सेना के सबसे वरिष्ठ ले. जनरल शरत चंद ने किया है. शरत चंद अगले सेनाध्यक्ष होने वाले हैं. संसदीय समिति की यह रिपोर्ट पिछले बजट सत्र में राज्य सभा के पटल पर रखी गई थी.
रिपोर्ट में जिन तथ्यों का खुलासा किया गया है, उससे देश के लोग सकते में हैं. लोगों की चिंता यह है कि आए दिन दो पड़ोसी मुल्कों को सरहद पर सबक सिखाने की बातें करने वाली सरकार के सुरक्षा-प्रबंध कितने खोखले और हवा-हवाई हैं.
ले. जनरल शरत चंद का कहना है कि सेना के आधुनिकीकरण के लिए, जो 21388 करोड़ का बजट आवंटित किया गया है, वह नाकाफी है. इस बजट से सेना का आधुनिकीकरण तो दूर, सेना के निर्माणाधीन 125 प्रोजेक्टों को पूरा कर पाना भी मुश्किल होगा. सेना के जो प्रोजेक्ट चल रहे हैं, उनमें मेक-इन-इंडिया कार्यक्रम के तहत एडवांस बख्तरबंद गाड़ियों के निर्माण समेत 24 अन्य प्रोजेक्ट भी शामिल हैं. हैरानी की बात यह है कि सेना के लिए आवंटित 2018-19 के बजट में पिछले साल के मुकाबले केवल 7.81% की बढ़ोतरी की गई है.
संसदीय समिति की रिपोर्ट में यह भी खुलासा हुआ है कि भारतीय सेना के पास जो हथियार हैं, उनमें से 68% हथियार आउट डेटेड हैं. जबकि पुरानी टेक्नोलॉजी के हथियारों का औसत 33% से अधिक नहीं होना चाहिए. अब आप खुद सोच सकते हैं कि इतने पुराने और घिसे-पिटे हथियारों के बूते भारतीय सेना आपकी कितनी और कैसे सुरक्षा करेगी?
इंस्टिट्यूट ऑफ डिफेन्स स्टडीज के ब्रिगेडियर गुरमीत कंवल का कहना है कि हथियारों के मौजूदा स्तर के बूते भारतीय सेना न तो कोई पूर्ण युद्ध लड़ सकती है और न ही जीत सकती है. यह सेना के मनोबल को डिगाने वाली बात नहीं है. सच्चाई यह है कि सेना के पास गोला-बारूद की कमी हमारे राजनीतिक बड़बोलेपन को ही जाहिर करती है. सूत्र बताते हैं कि सेना के पास 40 फीसदी गोली बारूद की कमी है. थल सेना के पास युद्ध के लिए बेहद जरूरी 152 हथियारों में से 61 का भारी अकाल है, बावजूद इसके कि भारत इस समय दुनिया का सबसे बड़ा हथियार-आयातक देश है. इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट-स्टॉकहोम की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में बेचे जा रहे हथियारों में 13% का खरीददार अकेला भारत है.
हालांकि हथियारों और गोला-बारूद की इस कमी के मद्देनज़र मोदी सरकार ने रक्षा बजट को बढ़ाकर कुल बजट का 17% यानी 3.60 लाख करोड़ कर दिया है. इसके बावजूद रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि आवंटित बजट सेना की वास्तविक जरूरतों को पूरा करने के लिए अब भी नाकाफी है. रक्षा मामलों की संसदीय समिति की दिसम्बर 2017 में जारी रिपोर्ट में भी कहा गया है कि सेना के लिए अपेक्षित 1.96 लाख करोड़ के ‘कैपिटल एक्सपेंडीचर’ बजट के सापेक्ष मात्र 86 हज़ार करोड़ का आवंटन हमारी रक्षा तैयारियों के लिहाज़ से ऊंट के मुंह में जीरा साबित होगा. इसका सीधा असर ‘मेक इन इंडिया’ के तहत होने वाले रक्षा उत्पादनों पर पड़ेगा.
संसदीय समिति का यह भी मानना है कि देश की पश्चिमी सीमा पर सुरक्षा संकट बढ़ा है. सीमा पार से प्रेरित आतंकवाद की घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा है. वर्ष 2017 में पाकिस्तान की सीमा पर सीजफायर उल्लंंघन की 860 घटनाएं हुई हैं. जनवरी 2018 में ही पाक सेना ने 124 बार युद्धविराम का उल्लंंघन किया है. इसके अलावा कश्मीर में आतंकवादी हिंसा की घटनाओं में 30 फीसदी बढ़ोतरी हुई है. वर्ष 2016 में जहां 26% लोग आतंकी वारदातों में मारे गए थे, वहीं 2017 में 34% लोग इस हिंसा के शिकार हुए. डोकलाम- विवाद के बाद देश की उत्तरी-पूर्वी सीमा पर भी तनाव बढ़ा है. कुल मिलाकर देश का रक्षा-परिदृश्य लगातार संगीन बना हुआ है.
चीन से सटी भारतीय सीमा पर सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण 73 सड़कों का निर्माण जरूरी आंका गया था. इनमें से 61 सड़कों के निर्माण का जिम्मा सीमा सड़क संगठन को दे भी दिया गया. लेकिन इसके लिए स्वीकृत 4644 करोड़ बजट का 98 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ 22 सड़कों के निर्माण पर ही खर्च हो गया. लिहाज़ा, जरूरी बजट के अभाव में बाकी सड़कों के निर्माण का काम अधर में लटक गया है. सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार, इनमें से भी कुछ सड़कें सेना के भारी वाहनों के चलने लायक नहीं हैं. ऐसे में अगर पूर्वोत्तर सीमा पर सेना के तेज़ मूवमेंट की परिस्थिति आ जाए तो क्या हाल होगा, इसका सहज अंदाज लगा पाना मुश्किल है.
इसमें कोई दो-राय नहीं है कि इस समय भारतीय सेना की युद्ध क्षमता बेहद दयनीय स्थिति में है. सेना के पास बख्तरबंद गाड़ियों, आधुनिक टैंकों, एडवांस तकनीक वाली रायफलों के अलावा लड़ाकू विमानों, युद्धपोतों तथा परमाणु पनडुब्बियों की भारी कमी है. सरकार ने सेना के आधुनिकीकरण के लिए जो रकम आवंटित की है, वह पूर्व सैनिकों को दी जाने वाली सालाना पेंशन राशि से भी कम है. गौरतलब है कि भारत के परंपरागत प्रतिद्वंद्वी चीन और पाकिस्तान, जहां अपनी जीडीपी का दो प्रतिशत से ज्यादा बजट सेना पर खर्च करते हैं, वहीं हमारे यहां यह रकम देश के सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.58% ही है, जो पिछले पचास साल में सबसे कम है.
संसदीय समिति ने देश के भीतर डीआरडीओ द्वारा विकसित रक्षा उत्पादों की गुणवत्ता को लेकर भी सवाल खड़े किए हैं. समिति का विचार है कि पचास साल के व्यावसायिक अनुभव के बावजूद हमारी रक्षा इकाइयों द्वारा बनाए जा रहे हथियार विश्वस्तरीय नहीं हैं. भारतीय आयुध फैक्ट्रियों में बनी असाल्ट रायफल पिछले साल सेना के परीक्षण में खरी नहीं उतरी थी. अर्जुन टैंक और एचएएल में बने हल्के लड़ाकू एयरक्राफ्ट तेजस को भी दुनिया के दूसरे मुल्कों के समकक्ष उत्पादों के मुकाबले कमज़ोर आंका जाता है. रही बात ब्रह्मोस मिसाइल की तो इसके 65% पुर्जे आयातित ही हैं. इसी तरह हमारी सुरक्षा तैयारियों का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि जहां चीन में प्रति एक हज़ार की आबादी के लिए औसतन 2.23 सैनिक हैं, पाकिस्तान के पास 4.25 सैनिकों की उपलब्धता है, वहीं भारत में यह औसत 1.25 सैनिक ही है. इससे आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि कैसी तंगहाल सेना के हाथों में देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी है.