‘लव जिहाद’ मामले में विचित्र स्थिति बनती जा रही है। एक तरफ भाजपा सरकारें देश में लव जिहाद रोकने ऐलानिया तौर पर सख्त से सख्त कानून बनाए जा रही हैं, दूसरी तरफ ‘लव जिहाद’ के मामले कोर्ट में फेल हो रहे हैं। गोया यह ‘लव जिहाद’ और अदालत के ‘लाॅ जिहाद’ में एक अघोषित मुकाबला हो। भाजपा सरकारों का नजरिया साफ है कि हिंदू लड़कियों को प्रेम पाश अथवा मोह जाल में फंसाकर मुस्लिम लड़के उनसे विवाह न करें।
करें भी तो उन लड़कियों को अपना धर्म बदलने पर मजबूर न करें। करेंगे तो उन्हे कड़ी सजा मिलेगी। क्योंकि यह जबरिया धर्मातंरण का मामला है। केवल धर्मांतरण की नीयत से कोई विवाह किया जाएगा तो नए कानून के तहत उसे शून्य घोषित किया जा सकेगा। अर्थात कोर्ट ऐसे विवाह को अमान्य कर सकती है।
लेकिन इसमे पेच यह है कि अगर कोई अदालत में यह कहे कि उसने मर्जी से धर्म बदला है तो कोर्ट और कानून क्या करेंगे? यह कैसे साबित होगा कि जिसने धर्म बदला है, वह बलात है या स्वैच्छिक? उप्र और मप्र लव जिहादरोधी कानूनों की न्यायिक समीक्षा अभी होनी हैं। लेकिन व्यवहार और संवैधानिक अधिकारों की सतह पर ये कितना टिक पाएंगे, कहना मुश्किल है। क्योंकि कोई भी कानून व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हरण नहीं कर सकता, हां संविधान को ही खारिज कर दें तो और बात है।
‘लव जिहाद’ के मामले में पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट और अब कर्नाटक हाई कोर्ट ने भी यही फैसला दिया कि कोई भी बालिग अपनी इच्छा से किसी से भी शादी कर सकती है या कर सकता है। इलाहाबाद हाई कोर्ट की डबल बेंच ने ऐसे ही एक मामले में अहम फैसला दिया था कि किसी भी व्यक्ति को अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने का मौलिक अधिकार है। महज अलग-अलग धर्म या जाति का होने की वजह से किसी को साथ रहने या शादी करने से नहीं रोका जा सकता है।
दो बालिगों के रिश्ते को सिर्फ़ हिन्दू या मुसलमान मानकर नहीं देखा जा सकता।‘ हालांकि इसी मामले में कोर्ट की सिंगल बेंच ने उलट फैसला दिया था। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने साफ़ कहा कि ‘अपनी पसंद के जीवन साथी के साथ शादी करने वालों के रिश्ते पर एतराज जताने और विरोध करने का हक न तो उनके परिवार को है और न ही किसी व्यक्ति या सरकार को। अगर राज्य या परिवार उन्हें शांतिपूर्वक जीवन में खलल पैदा कर रहा है तो वो उनकी निजता के अधिकार का अतिक्रमण है।’
न्याय की इसी लकीर को आगे बढ़ाते हुए कर्नाटक हाई कोर्ट ने ‘लव जिहाद’ के मामले में निर्णय दिया कि ‘अपनी मनपसंद की शादी करने के लिए दो वयस्क व्यक्तियों को संवैधानिक व्यवस्था के तहत मौलिक अधिकार मिला हुआ है। धर्म या जाति के आधार पर वयस्क कपल को मिली इस स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने यह फैसला एक मुस्लिम युवक वाजिद खान द्वारा हिंदू युवती से अंतरधर्मीय विवाह के बाद लगाई गई अपनी प्रेमिका राम्या की बंदीप्रत्यक्षीकरण याचिका पर दिया। हाई कोर्ट ने कहा कि राम्या पढ़ी-लिखी युवती है। अपना भला-बुरा समझने में सक्षम है।
इलाहाबाद हाई कोर्ट की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि ऐसे (अंतरधर्मीय) विवाहों पर एतराज और विरोध करने वालों की नज़र में कोई हिन्दू या मुसलमान हो सकता है। लेकिन क़ानून की नज़र में अर्जी दाखिल करने वाले प्रेमी युगल सिर्फ़ बालिग जोड़े हैं और शादी के पवित्र बंधन में बंधने के बाद पति-पत्नी के तौर पर साथ रह रहे हैं।
लेकिन अदालतों के इन फैसलों का लव जिहाद के खिलाफ छेड़े जा रहे राजनीतिक-सामाजिक जिहाद पर कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है। सबसे पहले यूपी में आदित्यनाथ सरकार ने राज्य में लव जिहादरोधी कानून बनाया और जबरिया धर्मांतरण कराने पर 10 साल की जेल का प्रावधान किया। नए कानून के तहत वहां एक मामला दर्ज भी किया जा चुका है। यूपी की तर्ज पर मप्र सरकार ने भी लव जिहादरोधी कानून बनाने का ऐलान कर दिया है। इसमें भी लव जिहाद (कानूनी भाषा में अंतरधर्मीय विवाह) रोकने के लिए कड़ी सजा है।
यह बात सही है कि इस देश में िकसी का भी जबरन धर्मांतरण अपराध है। क्योंकि धार्मिक विश्वास आपको या तो विरासत में मिलता है या फिर व्यक्ति की आस्था के हिसाब से उसे अपनाया जा सकता है। लेकिन यह पूरी तरह स्वैच्छिक और अंतरात्मा से प्रेरित होना चाहिए। जबरिया धर्म परिवर्तन कराना कानूनन जुर्म पहले से है। इसका किसी भी सूरत में समर्थन नहीं किया जा सकता। क्योंकि उसके पीछे बदनीयती है। लेकिन लव जिहाद के मामले में हमेशा ऐसा ही होता है, यह कहना और इसे अदालत में सिद्ध करना बेहद मुश्किल है।
क्योंकि ‘लव जिहाद’ में सजा तभी मिलेगी, जब कोर्ट में साबित हो कि यह जबरिया करवाया धर्मांतरण है। अलबत्ता ऐसे मामलों में सामाजिक प्रताड़ना हो सकती है। ऐसे मामले में ज्यादातर यह देखने में आया है कि धर्मांतरित युवती अदालत में यही बयान देती है कि उसने ‘मर्जी’ से ऐसा किया है। तब कोर्ट के पास संविधान के मौलिक अधिकारों के अनुरूप उसकी इच्छा का सम्मान करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता।
यह साबित करना कठिन है और आगे भी रहेगा कि सम्बन्धित युवती ने धर्म किसी दबाव में बदला है, उसे बहकाया गया है, उसने ऐसा भावुकतावश ऐसा किया है, उसकी विवेकशक्ति कुंद हो चुकी है या फिर सारे पहलुअों पर विचार करने के बाद उसने अपनी अंतरात्मा की ही सुनी है, बजाए बाहरी दबावों के। क्योंकि व्यक्ति अदालत में सौ फीसदी सच बोल रहा है या नहीं, यह कौन तय करेगा? और फिर कोई अगर धर्म बदलने में ही अपनी सामाजिक मुक्ति देख रहा हो तो उसे रोकने का नैतिक अधिकार तो वैसे भी किसी को नहीं है।
लेकिन यहां दो बातें अहम हैं। पहला तो प्रेम और दूसरा उस प्रेम की विवाह में परिणति के बाद धर्मांतरण की अनिवार्यता। अगर सच्चे प्रेम की बात की जाए तो यह दो मनो का मिलन है, जो धार्मिक आग्रहों से परे है। हिंदू- मुस्लिम, हिंदू-पारसी, ईसाई-हिंदू और अन्य अंतरधर्मीय विवाहों पर प्राथमिक दृष्टि से कोई आपत्ति इसलिए नहीं हो सकती, क्योंकि यह दो इंसानों के बीच का रिश्ता है। लेकिन इसी के समांतर सामाजिक और राजनीतिक दुराग्रह भी अपना काम करते हैं। समस्या यहीं से शुरू होती है।
कुछ लोगों का मानना है कि ‘लव जिहाद’ महज एक काल्पनिक और सियासी शगूफा है, जिसे भाजपा और आरएसएस ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए गढ़ा है और लव जिहाद कानून भी इसी की अगली कड़ी है। लेकिन इसमें आंशिक सचाई है। ‘लव जिहाद’ अगर एक सुनियोजित अभियान न भी हो तो भी ऐसी घटनाएं हो रही हैं, इसको सिरे से खारिज करना भी सच्चाई से आंखें मूंदना होगा।
हिंदू- मुस्लिम से हटकर जो ताजा मामला सामने आया है, वो मुस्लिम-पारसी विवाह का है। जाने-माने संगीतकार मरहूम वाजिद खान की पत्नी कमालरूख ने सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया है कि पति की मौत के बाद ससुराल वाले उसे धर्म बदलने पर दबाव डाल रहे हैं। इसके लिए उसे प्रताडि़त किया जा रहा है। कमालरूख पारसी हैं ( कुछ लोग उनका नाम ‘कमलरूख’ यह समझ कर लिख रहे हैं कि वो हिंदू हैं) कमालरूख का शािब्दक अर्थ है सर्वोत्तमरूपा।
यानी कमालरूख वाजिद से तो प्रेम करती थीं,लेकिन वािजद के धर्म से नहीं। असली पेच यही है कि दिल की अदलाबदली में धर्म की बदली क्यों जरूरी है? क्या प्रेम विवाह ही काफी नहीं है, उसे धर्म से आच्छादित करना क्यों आवश्यक है? यहीं धार्मिक कर्मकांड और विश्वास आड़े आता है। पितृसत्तात्मक समाज का आग्रह है कि लड़की विवाह के पश्चात उस धर्म और सामाजिक आचारों का पालन करे, जो उसके पति का है।
इस मायने में यह विवाहिता के उपनामांतरण की अनिवार्यता का और ज्यादा सघन, कठोर तथा रूढि़वादी रूप है। सम्बन्धित अंतरधर्मीय प्रेम विवाह पर सामाजिक स्वीकृति के लिए भी यह जरूरी है। क्योंकि समाजों से वृहत्तर धार्मिक समाज आकार लेता है। और धार्मिक समाजों से ही राजनीतिक धाराओं का संचालन होता है।
दरअसल इस कानून को अर्धसत्य की तरह ज्यादा पेश किया जा रहा है। कानून के विरोधी इसे यह कहकर प्रस्तुत कर रहे हैं कि इसके बाद युवक-युवती मनपसंद साथी से विवाह नहीं कर सकेंगे। जबकि यह कानून पसंदीदा साथी के चयन को नहीं रोकता है, लेकिन इस पसंदगी की आड़ में धर्म परिवर्तन के आग्रह को अस्वीकार करता है।
लेकिन इसके व्यावहारिक पक्ष पर जाएं तो देश में ज्यादातर विवाह धार्मिक पद्धतियों से होते हैं और जब धर्म ही सबसे पहले है तो फिर मनपसंद से शादी की बात गौण हो जाती है। मामले को और गहराई से देखें तो हिंदू- मुस्लिम अंतरधर्मीय विवाहों में जो मामले पुलिस और कोर्ट के सामने आ रहे हैं, उनमें हिंदू युवती के इस्लाम में धर्मांतरण में दबाव बनाने के ज्यादा हैं, बनिस्बत मुस्लिम युवतियों के हिंदू धर्मांतरण के। ऐसा क्यों हो रहा है, इस पर भी गंभीरता से विचार जरूरी है। फिलहाल तो सवाल इस कानून के अदालत की चौखट पर टिकने का है।
वरिष्ठ संपादक
अजय बोकिल
‘सुबह सवेरे’