किसी ज़माने में बाबूलाल मरांडी झामुमो के घोर विरोधी रह चुके हैं, लेकिन इस बात बाबूलाल मरांडी महागठबंधन को लेकर सबसे उत्साहित दिख रहे हैं. उनकी पार्टी की फिलहाल यह कोशिश है कि कांग्रेस को इस बात पर राज़ी कर लिया जाए कि लोकसभा चुनाव तक विधानसभा के लिए नेतृत्व की घोषणा न किया जाय.
बाबूलाल मरांडी इसके लिए दलील यह दे रहे हैं कि विधानसभा के लिए नेतृत्व की अभी घोषणा करने से गठबंधन को इसका नुकसान हो सकता है. उनका कहना है कि एकजुट होकर चुनाव लड़ा जाए और विधानसभा के समय नेतृत्व पर फैसला हो, और नेतृत्व घोषित करने से पहले उसका नफा-नुकसान देख लिया जाय.
बाबूलाल की पार्टी लोकसभा चुनाव में गोड्डा एवं कोडरमा की दो सीटें चाहती है. कोडरमा से खुद बाबूलाल मरांडी चुनाव लड़ना चाहते हैं, jजहां उनकी अच्छी पकड़ है. वे पहले भी यहां संसद रह चुके हैं. लेकिन गोड्डा संसदीय सीट से कांग्रेस के फुरकान अंसारी भी अपनी दावेदारी पेश कर हैं और झाविमो प्रदीप यादव को यहां से मैदान में उतारना चाहती है.
प्रदीप यादव की भी पकड़ इस क्षेत्र में अच्छी है. राजद भी पलामू या चतरा पर अपनी दावेदारी पेश कर रहा है. इधर, पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की विधायक पत्नी गीता कोड़ा के कांग्रेस में शामिल होने के बाद चाईबासा सीट को लेकर मामला फंस रहा है. चाईबासा सीट पर कांग्रेस का दबदबा रहा है और इसके बागुन सुम्ब्रई आधा दर्जन बार यहां से जीत हासिल कर चुके हैं, पर झामुमो सभी आदिवासी सुरक्षित सीटों पर अपनी दावेदारी पेश कर रहा है.
कांग्रेस गीता कोड़ा को चाईबासा संसदीय सीट से उतारने का मन बना चुकी है. गीता कोड़ा के कांग्रेस के शामिल होने से भाजपा का भी गणित गड़बड़ा गया है. पिछले लोकसभा चुनाव में गीता कोड़ा ने भाजपा को पूरी मदद की थी, जिसके कारण भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुवा चाईबासा से चुने गए.
इधर यह भी कोशिश हो रही है कि महागठबंधन में कुछ छोटे दलों को भी मिलाया जाए. ज़ाहिर है छोटे दोलों को लोकसभा की सीट मिलने की संभावनाएं दूर दूर तक नहीं हैं, लेकिन विधानसभा में उन्हें समायोजित किया जा सकता है. बसपा, झारखंड पार्टी और वाम दलों से इस सम्बन्ध में बातचीत चल रही है.
कई विधानसभा क्षेत्रों में इन पार्टियों का दबदबा है. झाविमो अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी भी इन दलों को साथ लेकर चलने के पक्ष में हैं. खूंटी संसदीय क्षेत्र में एनोस एक्का की पार्टी की पकड़ मज़बूत है, वहीं पलामू एवं चतरा में बसपा का भी प्रभाव ठीक-ठाक है और इन सभी का फायदा यूपीए लेना चाहता है. वैसे महागठबंधन को लेकर राहुल गांधी से हेमंत एवं बाबूलाल मरांडी की कई दौर की वार्ता हो चुकी है और सभी दल भाजपा को शिकस्त देने के लिए एक साथ आना चाहते हैं.
विपक्षी दलों की यह मजबूरी भी है, क्योंकि पिछले लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव में अलग-अलग लड़कर वे अपना हस्र देख चुके हैं. लोकसभा चुनाव में तो केवल झामुमो ही अपनी इज्जत बचा पाया था, उसने दो सीटें जीती थी, जबकि अन्य 12 सीटें भाजपा के खाते में गईं. ठीक उसी तरह, विधानसभा चुनाव में भी हुआ. विपक्षी दलों में वोटों के बिखराव के कारण ही भाजपा झारखंड गठन के बाद पहली बहुमत की सरकार बना सकी. इसलिए, भले ही किसी दल को झुकना पड़े, भाजपा को शिकस्त देने के लिए सभी पार्टियों का एक मंच पर आना उनकी मजबूरी है.