चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को बने आज सौ साल पूरे हुए। अपने लगभग 9 करोड़ सदस्यों के साथ वह वास्तव में दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है और सबसे शक्तिशाली पार्टी है। हमारी भाजपा अपने 12 करोड़ सदस्यों के साथ दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करती है लेकिन उसके नेताओं को पता है कि जिस दिन उनके नीचे से कुर्सी खिसकी, ये 12 के 2 करोड़ों को भी बचाना मुश्किल हो जाएगा। इस साल चीनी पार्टी की सदस्यता के लिए 2 करोड़ अर्जियां आईं लेकिन उनमें से सिर्फ 20 लाख को ही सदस्यता मिली।

इसके अलावा इस पार्टी की खूबी यह है कि पिछले 72 साल से यह लगातार सत्ता में है। यह एक दिन भी सत्ता से बाहर नहीं रही। चीन में इसने किसी अन्य पार्टी को कभी पनपने नहीं दिया। इस पार्टी में 1921 से लेकर अब तक आतंरिक सत्ता-संघर्ष कभी-कभी हुआ, वरना इसका नेता पार्टी, सरकार और फौज— इन तीनों को हमेशा अपने कब्जे में रखता रहा। 1917 में रुस में हुई कम्युनिस्ट क्रांति से प्रेरित होकर चार साल बाद 1921 में दो चीनी बुद्धिजीवियो— चेन दूश्यू और ली दझाओ ने शांघाई में इस पार्टी की नींव रखी। माओ त्से तुंग इसके संस्थापक सदस्यों में थे। माओ के नेतृत्व में इस पार्टी ने चीन को कोइमितांग सरकार और बाद में जापानी हमलावरों से लगभग 30 वर्षीय युद्ध लड़ा और 1949 में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनाई। 1949 से 1976 तक माओ का एकछत्र राज्य रहा।

1978 से तंग श्याओ फिंग ने फरवरी 1997 तक चीन पर अपना नियंत्रण बनाए रखा। उनके बाद च्यांग चेमिन और हू चिनताओ ने पार्टी को सम्हाला और अब 2012 से अभी तक या जब तक वे जीवित रहेंगे, तब तक शी चिन फिंग चीन की संपूर्ण सत्ता सम्हाल रहे हैं। माओ के ज़माने में मार्क्सवाद को कई नए रुप दिए गए। कम्यून पद्धति, ऊंची उड़ान, सांस्कृतिक क्रांति जैसे कार्यक्रमों में लाखों लोगों की जानें गई, गरीबी बनी रही और आम लोग पार्टी तानाशाही में पिसते रहे लेकिन तंग श्याओ फिंग ने चीनी अर्थ-व्यवस्था में वैसे ही बुनियादी परिवर्तन किए, जैसे नरसिंहराव ने नेहरुवादी अर्थव्यवस्था में किए थे।

नतीजा यह हुआ कि पिछले 40 साल में चीन की प्रति व्यक्ति आय 80 गुना बढ़ गई जबकि भारत में सिर्फ 7 गुना बढ़ी है। तंग ने मार्क्सवादी विचारधारा के शिकंजे को जरा ढीला किया और एक सूत्रवाक्य कहा कि ‘‘बिल्ली काली है कि गोरी है, इससे हमें मतलब नहीं। हमें देखना यह है कि वह चूहा मार सकती है या नहीं ?’’ इसी सूत्र ने चीन के 80 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाया है। चीनी अर्थव्यवस्था ने लगभग तीन लाख करोड़ डाॅलर की विदेश पूंजी को आकर्षित किया है। आज वह दुनिया का सबसे अधिक ताकतवर और मालदार देश बनने की कोशिश कर रहा है।

मुझे वह अमेरिका की उपभोक्तावादी जीवन-पद्धति का अंधानुयायी- जैसा लगता है। चीन के दर्जनों शहरों और सैकड़ों गांवों में अपनी कई यात्राओं के दौरान मैंने पाया है कि वह अब पूंजीवाद का पथिक बन गया है लेकिन उसकी राजनीति अभी भी स्तालिनवादी पटरी पर ही चल रही है। उसकी आक्रामक विदेश नीति और जबर्दस्त विदेशी विनियोग से एक नए और सूक्ष्म साम्राज्यवाद की घंटियां बज रही है। पिछले सौ साल में चीन तो बदल गया लेकिन उसकी शासन-पद्धति ज्यों की त्यों बनी है।

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