देश में हिंदू मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की मांग फिर जोर पकड़ रही है। विश्व हिंदू परिषद लंबे समय से यह मांग करती आ रही है की इस सम्बन्ध में केन्द्रीय कानून बनाया जाए। आज विभिन्न राज्यो में सरकार द्वारा गठित देवस्थानम बोर्ड और ट्रस्ट हिन्दुओं के मंदिरों का प्रबंधन कर रहे हैं। मंदिरों को सरकारी नियंत्रण मुक्त करने के पीछे दो अहम तर्क हैं। पहला तो यह कि जब देश में सरकार ‘धर्मनिरपेक्ष’ है तो फिर वह हिंदू मंदिरों का नियंत्रण क्यों करती है? क्या यह धर्मनिरपेक्ष राज्य की भावना के विपरीत नहीं है? दूसरा, जब हिंदूतर धर्मों जैसे इस्लाम, ईसाइयत, सिख, जैन और बौद्ध धर्मों के धार्मिक स्थलों का नियंत्रण उनकी अपनी संस्थाएं करती हैं तो हिंदू मंदिरों में ही सरकारी प्रतिनिधि क्यों बैठें? क्या इस व्यवस्था से हिंदू मंदिरों का प्रबंधन बेहतर और अविवादित हुआ है? इसी के साथ यह सवाल भी जुड़ा है कि हिंदू मंदिरो को सरकारी नियंत्रण मुक्त कर दिए जाने के बाद क्या वो परिस्थितियां फिर से पैदा नहीं होंगी, जिनकी वजह से इन मंदिरो के प्रबंधन के लिए सरकारों को हस्तक्षेप करना पड़ा था?
इन तमाम सवालों के उत्तर मंदिरों को सरकार मुक्त करने की मांग की तुलना में काफी जटिल हैं। क्योंकि कई हिंदू मंदिर केवल धार्मिक पूजा स्थल ही नहीं, अनमोल पुरातात्विक धरोहरें भी हैं। शायद यही कारण है कि सरकारें इस बारे में अभी तक कोई निर्णय नहीं ले पाई हैं। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ताजा केदारनाथ यात्रा का उल्लेख जरूरी है, जहां चारों धाम के तीर्थ पुरोहितो के प्रतिनिधिमंडल ने पीएम को ज्ञापन सौंपकर उत्तराखंड देवस्थानम् (जो राज्य में मंदिरों का प्रबंधन देखता है) को समाप्त करने की मांग की थी। देश में तमिलनाडु पहला राज्य है, जहां मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण की शुरूआत हुई थी, जबकि ‘देवभूमि’ कहलाने वाले उत्तराखंड जैसे राज्य में भाजपा शासनकाल में ही 2017 में तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत राज्य के चारों धाम यानी यमुनोत्री, गंगोत्री, बद्रीनाथ और केदारनाथ समेत राज्य के 53 मंदिरों के संचालन के लिए सरकारी बोर्ड बनाने का फैसला लिया गया। इस बारे में एक्ट पारित हुआ,जिससे मंदिरों के बोर्ड में मंत्री, अफसर, पूर्व राजपरिवारों के सदस्य तथा पुजारियों के प्रतिनिधि शामिल किए गए। वैसे देवस्थानम् बोर्ड बनने से पहले भी उत्तराखंड में चार धाम सहित सभी मंदिरों का प्रबंधन परंपरागत तरीके से चलता था। पहले मंदिरों में ये नियुक्तियां सम्बन्धित राजा द्वारा की जाती थीं।
भारत में मंदिरों की कुल संख्या कितनी है, इसका एकजाई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। लेकिन अनुमानत: देश भर में करीब 10 लाख मंदिर हैं। यानी औसतन प्रति 10 हजार की हिंदू आबादी पर एक मंदिर। देश का प्राचीनतम मंदिर बिहार के कैमूर जिले का मुंडेश्वरी दुर्गा मंदिर माना जाता है। जिसका निर्माण 108 ईस्वी में हुआ था। इसके पहले के मंदिर नहीं मिलते, क्योंकि हमारे पूर्वज आर्य मूर्तिपूजा के बजाए यज्ञ करते थे। मूर्ति पूजा हिंदू धर्म की सनातन शाखा की परंपरा है।
जहां तक मंदिरों पर नियंत्रण की बात है तो लगता है यहां असली झगड़ा मंदिरो से होने वाली आय का है। क्योंकि हिंदू मंदिर शुरू से बहुत समृद्ध रहे हैं और इसी कारण विदेशी आंक्राताअोंके निशाने पर भी रहे हैं। लेकिन हिंदू मंदिरों ने निर्माण, रखरखाव, संचालन आदि की कोई केन्द्रीकृत और एकरूप व्यवस्था कभी नहीं रही। आदि शंकराचार्य ने चारो पीठों के लिए नियम बनाए, अखाड़े कायम किए, लेकिन शीर्ष से लेकर निचले स्तर पर मंदिर प्रबंधन कैसा हो, इसकी कोई निश्चित संहिता नहीं है। वैसे प्रमुख हिंदू मंदिरों का संचालन आगम शास्त्रों के हिसाब से और सम्बन्धित सम्प्रदाय की मान्यताअों के अनुसार होता है। मंदिर कहां कैसा होना चाहिए, इसमें भी कोई निश्चित नियम नहीं है। कहीं दी देव प्रतिमा स्थापित कर मंदिर शुरू कर दिया जाता है। कुछ स्थानों पर सिंदूर पोतकर पत्थर रख दिए जाते हैं। उनकी विधिवत प्राण प्रतिष्ठा भी नहीं होती। लेकिन भोले श्रद्धालु उसके आगे भी मत्था टेकने लगते हैं और चढ़ावा चढ़ाने लगते हैं।
पारंपरिक व्यवस्था में मंदिरों को भक्तों के चढ़ावे और दान से होने वाली आय मंदिर की व्यवस्था से जुड़े लोगों और संचालको के पास जाती रही है। यह धर्मकार्य के बदले प्रतिदान जैसा है। नई व्यवस्था से उनके हित प्रभावित हुए। क्योंकि ये संचालक प्राय: पुश्तैनी पंडे- पुजारी ही रहते आए हैं। बोर्ड बनने के बाद सारी आय बोर्ड या मंदिर ट्रस्ट के खाते में जाती है। इस आय और खर्च का ऑडिट भी कराना होता है। परंपरावादी इसे सनातन धर्म की भावना के खिलाफ मानते हैं। क्योंकि सरकार के हस्तक्षेप के बाद मंदिरों में राजनीति का सीधा प्रवेश भी हो गया। व्यवस्था, बोर्ड, ट्रस्ट आदि में ‘अपने आदमियों’ की नियुक्तियां शुरू हो गईं, जिसमें राजनीतिक झुकाव और वैचारिक प्रतिबद्धता को प्रधानता मिलने लगी। साथ ही प्रबंधन में धार्मिक आस्था से ज्यादा सरकारी मानसिकता हावी होने लगी।
वैसे हिंदू मंदिरों में सत्ता का दखल नई बात नहीं है। बाॅम्बे हाईकोर्ट के जाने माने वकील अभिनव चंद्रचूड ने पिछले दिनो एक लेख में बताया था कि इसके बीज उपनिवेश काल में ही पड़ गए थे। क्योंकि इंग्लैड खुद धर्मनिरपेक्ष देश नहीं है। वहां चर्च (ईसाई धर्म) और राज्य के बीच कोई विभेदक दीवार नहीं है। राजा ही चर्च का भी प्रमुख होता है। यह अधिनियम वहां राजा हेनरी अष्टम के समय 1534 में ही लागू हो गया था। लेकिन भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने कब्जे वाले इलाकों में मंदिरों, मस्जिदों और चर्चों की जमीनो को कंपनी की सम्पत्ति घोषित कर दिया। इसका मुखर विरोध क्रिश्चियन मिशनरियों ने किया। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद सीधे ब्रिटिश सरकार ने भारत का शासन सीधे अपने अधीन ले लिया। अंग्रेज सरकार ने 1863 में कानून बनाया, जिसके तहत सरकार का धार्मिक स्थलों में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप रोक दिया गया। इसका सीधा अर्थ था कि राजसत्ता और धर्मसत्ता अलग-अलग रहेंगे।
आजादी का आंदोलन तेज होने के साथ साथ 1919 में भारत में राजनीतिक और प्रशासनिक सुधार लागू हुए। राज्यों में लैजिस्लेटिव असेम्बलियां बनी। देश में सीमित लोकतंत्र प्रारंभ हुआ। लेकिन मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण की पहली कानूनी पहल तत्कालीन मद्रास राज्य (तमिलनाडु) में 1826 में हुई, जिसके तहत प्रांतीय सरकार ने बोर्ड बनाकर राज्य के मंदिरों का प्रबंधन अपने हाथ में लिया। ये बोर्ड मंदिरो को होने वाली अतिरिक्त आय शिक्षा, धार्मिक तथा धर्मादा कामो के लिए खर्च कर सकते थे। तब मद्रास में द्रविडवादी जस्टिस पार्टी का प्रभाव था, जो आज की डीएमके की पूर्वज पार्टी थी। मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण के पीछे मुख्य कारण उन्हें ब्राह्मणों के नियंत्रण के मुक्त कराना भी था। चंद्रचूड के अनुसार आजाद भारत में संविधान निर्माता बाबा साहब अंबेडकर धार्मिक मामलों में सरकारी दखल के खिलाफ थे।
उन्होंने कहा था कि राजसत्ता (सरकार) पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष संस्था है, उसका अपना कोई राजधर्म नहीं है। कहते हैं कि इस सम्बन्ध में एक ड्राफ्ट भी तैयार हो गया था। 1947 में मौलिक अधिकारों पर बनी उपसमिति में चर्चा के दौरान विद्वान के.एम.मुंशी तथा के.एन.पणिक्कर ने कहा कि वो इसे ‘रिड्राफ्ट’ करेंगे। लेकिन जब नया ड्राफ्ट उपसमिति के समक्ष पेश हुआ तो उसमें एस्टाब्लिशमेंट क्लाॅज ( धार्मिक प्रतिष्ठानो से जुड़ा प्रावधान) शामिल नहीं था। तात्पर्य यह कि अगर राज्यसत्ता धर्मनिरपेक्ष है तो उसे हिंदू मंदिरो के प्रबंधन में दखल क्यों देना चाहिए? यानी राज्यसत्ता अगर धर्मनिरपेक्ष नहीं है तो वह परोक्ष रूप से खुद को हिंदू हितैषी बताने का उद्यम भी न करे।
जहां तक मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण की बात है तो दक्षिण के लगभग सभी राज्यों में हिंदू मंदिर सरकार द्वारा गठित देवस्थानम बोर्ड के अधीन संचालित होते हैं। शेष भारत में भी सभी बड़े मंदिर बोर्ड और ट्रस्ट द्वारा संचालित हैं। सरकार ने इन सभी मंदिरों का नियंत्रण इस भावना के हाथ में लिया कि इससे मंदिर परिसरों का समुचित विकास होगा। मंदिरो की आय मंदिरों के विकास व प्रबंधन पर खर्च होगी। श्रद्धालुओ को बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी।
उधर आध्यात्मिक गुरू जग्गी वासुदेव ने भी एक लेख लिखकर मांग की कि तमिलनाडु में हिंदू मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जाए। इसके लिए उन्होंने एक मिस्ड काॅल अभियान’ भी चलाया था। उनका तर्क था कि जब सरकार रेल, विमान सेवा, खनन व्यापार आदि क्षेत्रो से अपने हाथ खींच रही है तब मंदिरों पर नियंत्रण रखने का कोई औचित्य नहीं है। अब सवाल यह कि मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण खत्म करने से आशय क्या है और यह भी कि पहले सरकारों ने ऐसा क्यों किया? मंदिरों को सरकार मुक्त करने के पीछे मकसद मोटे तौर पर मंदिरों को होने वाली आय और तमाम सम्पतियों को सरकारी निगरानी से बाहर लाना है। इसके पीछे तर्क यह है कि मंदिर की आय व उनकी सम्पत्तियों का प्रबंधन श्रद्धालुओ का काम है, सरकार का इससे कोई लेना-देना नहीं है। दूसरा है मंदिर प्रबंधन। मंदिर की दैनंदिन व्यवस्था धार्मिक कर्मकांड, रखरखाव आदि पहले भी व्यवस्थापक व संचालक करते थे, आगे भी होगा। सरकार इससे दूर रहे। वैसे भी स्वामीनारायण मंदिरों का उत्कृष्ट प्रबंधन बोचासनवासी अक्षर पुरूषोत्तम स्वामीनारायण संस्था ( बीएपीएस) तथा इस्काॅन मंदिरों का प्रोफेशनल प्रबंधन इंटरनेशनल सोसाइटी फाॅर कृष्णा कांशसनेस ( इस्काॅन) कर सकती है तो बाकी हिंदू मंदिरों में ऐसा क्यों नहीं हो सकता?
यकीनन हो सकता है बशर्तें कि मंदिर प्रबंधन में वैसा पेशेवराना आग्रह हो। जो वैकल्पिक व्यवस्था बने वो प्रोफेशनल तरीके से मंदिरों का संचालन करे, जिसमें चढ़ावे में आने वाले धन के सदुपयोग के साथ पंडे पुरोहितों की कर्मकांडीय अर्हताएं भी शामिल हों। पौरोहित्य करने का अवसर सभी जाति व वर्गों को मिले। दक्षिण भारत में इसकी शुरूआत हो चुकी है। दुर्भाग्य से जमीनी हकीकत यह है कि ज्यादातर हिंदू मंदिर पंडे-पुजारियों की मनमानी और लूट के माध्यम ज्यादा हैं। सरकारी नियंत्रण के बाद भी कई मंदिरों में जिजमान से किसी भी कर्मकांड के नाम पर पैसे ऐंठना सामान्य बात है। हर मूर्ति के आगे ‘दक्षिणा रखवाने’ की जबर्दस्ती है। कई मंदिरों में तो असली-नकली पंडे-पुजारी प्रवेश द्वार से ही जिजमान को ‘घेर’ लेते हैं। दूसरे किसी धर्म में शायद ही ऐसा होता हो। हमारे देश में सबसे ज्यादा भिकारी भी हिंदू मंदिरों के आगे ही बैठे दीखते हैं। हिंदू धर्म में दान-धर्म का अपना महत्व है। लेकिन मंदिरों में प्रवेश ही भिखारियों के ‘गार्ड ऑफ ऑनर ’ से होना कोई गर्व की बात नहीं है। गरीबों की हर संभव मदद की जानी चाहिए, लेकिन मंदिर प्रबंधन को इसकी स्वतंत्र और सम्मानजनक व्यवस्था करनी चाहिए। मंदिरों में चढ़ावा भी स्वेच्छा है, अनिवार्यता नहीं। इसका उद्देश्य धार्मिक कर्मकांड कराने वालों की आजीविका सुचारू रूप से चलती रहे, यह है।
हिंदू मंदिरों में किसी जाति या समुदाय विशेष का वर्चस्व भी सरकारी हस्तक्षेप होने का बड़ा कारण है। अगर हिंदू धर्म सभी जातियों का है तो धार्मिक कर्मकांड में भी सबकी बराबरी की हिस्सेदारी होनी चाहिए। इसके लिए योग्य लोगों को समुचित प्रशिक्षण दिया जा सकता है। अगर व्यवस्थित प्रबंधन की ही बात की जाए तो देश में उत्तर और दक्षिण भारत के मंदिरों की व्यवस्था, प्रबंधन, पारंपरिकता और अनुशासन की तुलना की जा सकती है। कानूनन जुर्म होने के बाद भी कुछ हिंदू मंदिरों में अभी भी छुआछूत है। कुछ में दलितों के प्रवेश पर बवाल मचता है तो कुछ में रजस्वला महिलाअों का प्रवेश वर्जित है। परंपरा और राजनीति की आड़ में कई बार इसे सही ठहराने की कोशिश होती है। अगर हिंदू धर्म में समरसता की बात की जा रही है तो इस भेदभाव को जायज ठहराने का उद्देश्य क्या है?