muzaffar nagarसितंबर 2013 में एक हफ्ते तक सांप्रदायिक दंगा हर लिहाज से अजीबो-गरीब था. इसने इस क्षेत्र की राजनीति व समाज सब कुछ बदलकर रख दिया. दंगा शुरू होने से ठीक पहले सात सितंबर को नगला मांडोर की पंचायत में मंच पर बैठे सभी भाजपा नेताओं की अब बल्ले-बल्ले है. तीन भाजपा नेताओं पर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) लगा था, वो विधायक बन गए. एक मंत्री भी बन चुके हैं. तीन लोग जो मंच पर बैठे थे, आज सांसद हैं. यह है राजनीतिक बदलाव. जहां तक सामाजिक बदलाव की बात है, जाट व मुस्लिमों की एकता टूट गई, जिससे क्षेत्र का समाज विभाजित हो गया. ये दोनों एक साथ राजनीति करते थे. खेत-खलिहान में साथ-साथ थे. सबकुछ प्रभावित हो गया. इस दंगे में लगभग एक लाख मुसलमान बेघर हो गए. आधे अभी भी इधर-उधर कैम्पों या किसी के मकानों में रह रहे हैं. वे दयनीय स्थिति में जिंदगी गुजारने को मजबूर हैं.

टू सर्किल्स डॉट नेट के पत्रकार आस मोहम्मद कै़फ कहते हैं कि मुजफ्फरनगर दंगा अनोखा था. यही कारण है कि यहां की पुलिस के पाठ्‌यक्रम में इस दंगे को शामिल किया गया है. मुरादाबाद ट्रेनिंग सेंटर और एकेडमी दोनों में इस फसाद का दूसरे फसादों से अंतर, एक्शन रिएक्शन और प्रस्तावित कदम पढ़ाया जा रहा है. पुलिस अधिकारियों का कहना है कि ये अलग किस्म का दंगा था, जिसके आधार पर भविष्य में रोकथाम के कदम बताए जा रहे हैं.

राजनीतिज्ञों का चरित्र

इस सिलसिले में जो सवाल सबसे पहले उठता है, वो यह है कि सात सितंबर 2013 की उक्त विशाल सभा आखिर क्या थी? एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया की आठ सितंबर 2017 को कांस्टीट्‌यशन क्लब नई दिल्ली में रिलिज की गयी रिपोर्ट ‘बेघर और बेआसरा- मुजफ्फरनगर और शामली के महाजरिन को किए गए टूटे वादों की दास्तान’ के अनुसार, ये सभा उस क्षेत्र में एक झगड़े के दौरान दो हिन्दू लड़कों की हत्या पर बातचीत करने के लिए बुलाई गई थी. उससे पहले भी दूसरी जगहों पर इस झगड़े से संबंधित बड़ी सभाएं बुलायी जा चुकी थी, जिनमें मुसलमानों द्वारा आयोजित सभाएं भी शामिल थीं. बहरहाल, सात सितंबर की इस सभा में जाट कम्युनिटी के हिन्दू नेताओं ने एक लाख से भी ज्यादा लोगों की भीड़ को संबोधित किया.

एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया की वर्तमान रिपोर्ट के अनुसार इस सभा में भाजपा के नेताओं ने कथित तौर पर भड़कीले भाषण दिए, जिनमें हिन्दुओं को उनकी मौत का बदला लेने के लिए उकसाया गया. इस सभा के बाद पड़ोस के जिलों में भी हिंसा भड़क उठी, जिसमें 60 से ज्यादा लोग मरे और लगभग 140 गांवों के हजारों लोग अपने घरों से भागकर राहत कैंपों में शरण लेने पर मजबूर हुए. इन बेघर लोगों में अधिकतर अब भी परेशानी की जिंदगी गुजार रहे हैं. आइए उनका मौजूदा हाल जानते हैं इस विशेष रिपोर्ट से, जिसे अगस्त 2016 और अप्रैल 2017 के दौरान एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया और अ़फकार एनजीओ ने एक दर्जन रिसेटलमेंट कॉलोनियों में 190 परिवारों की दस्तावेजों की समीक्षा के बाद तैयार की है.

ये 190 वो परिवार हैं, जो हर्जाने के बगैर अपनी जिंदगी को फिर से बहाल करने के प्रयत्न में लगे हैं. उत्तर प्रदेश सरकार 2013 में उजड़े हुए लोगों को फौरी तौर पर राहत प्रदान करने में असफल रही है. इन दंगों के चार वर्ष बाद भी मुजफ्फरनगर में सैकड़ों परिवार अपने अधिकार और गरिमा से वंचित हैं. दरअसल मुजफ्फरनगर पीड़ितों पर एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के शोधकर्ताओं की यह दूसरी रिपोर्ट है. पहली रिपोर्ट इस वर्ष के प्रारंभ में उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले जारी की गयी थी, जिसमें न्याय के लिए गैंग रेप की शिकार औरतों पर फोकस किया जा चुका है. (देखिए मुजफ्फरनगर गैंग रिपोर्ट-सियासी पार्टियों की बेहिसी ‘चौथी दुनिया’ अंक नंबर 350, 27 फरवरी से 5 मार्च 2017)

विस्थापित लोगों के कैंपों की समीक्षा

विस्थापित लोगों की समीक्षा करना अतिआवश्यक है. उनके इस हालत में रहने के सिलसिले में ये ़खबर अक्सर मीडिया में आती रहती है कि ये लोग मुफ्त जिंदगी गुजारने के अभ्यस्त हो गये हैं और इसी हालत में रहना चाहते हैं. अपने पैतृक गांव के घरों में वापस जाने में इनकी अब कोई दिलचस्पी नहीं रही है. मानव अधिकार कार्यकर्ता हर्षमंदर इन कैंपों में लगातार काम कर रहे हैं और वहां के तथ्यों से अपनी रिपोर्टों द्वारा विश्व को परिचित भी करा रहे हैं.

वे बताते हैं, ‘मैंने सरकारी अधिकारियों को कहते हुए सुना है कि दंगा पीड़ित बुनियादी तौर पर कैंपों में इसलिए रह रहे हैं कि इन्हें मुफ्त खाना चाहिए. मैं चाहूंगा कि ये दावा करने वाले सरकारी अधिकारी दंगा पीड़ितों पर आरोप-प्रत्यारोप और छींटाकशी से पहले किसी एक कैंप में अपने परिवार के साथ एक रात गुजारें और देखें कि क्या कोई व्यक्ति अपनी मर्जी से ऐसी स्थिति में रहना पसंद करेगा, जहां गरिमा, गोपनीयता और सेहतमंद स्थिति उपलब्ध न हो और उसे सख्त मौसम व अधिकारियों की दुश्मनी का सामना करना पड़े.’

इसके अतिरिक्त दिसंबर 2013 में दंगों से संबंधित कई याचिकाओं की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने राहत कैंपों में पचास से ज्यादा बच्चों की मौत की मीडिया में आई खबरों पर चिंता व्यक्त की और राज्य सरकार को फौरन कार्रवाई करने का आदेश दिया. इसके बाद राज्य सरकार ने राहत कैंपों को हटाना प्रारंभ कर दिया और खौ़फ के साए में अपने घरों को छोड़कर राहत कैंप में आए लोगों को जबरन बेदखल कर दिया.

एमनेस्टी की ये रिपोर्ट बताती है कि गैर सरकारी संगठनों की मदद से 30 हजार मुसलमानों को मुजफ्फरनगर स्थित 28 और शामली स्थित 37 रिसेटलमेंट बस्तियों में स्थानांतरित कर दिया गया. सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार, अबतक मुजफ्फरनगर में नौ गांवों के 980 और शामली में 820 परिवारों को हर्जाना मिला. परन्तु इन गांवों के 200 परिवार स्थानांतरण के हर्जाने की प्रतीक्षा में हैं. उक्त नौ गांव में मुजफ्फरनगर के छह गांव फगाना, कोटबी, कोटबा, ककड़ा, मोहम्मदपुर रायसीन और मुंडभर व शामली के तीन गांव लिसाढ़, हसनपुर, लानक और बहावड़ी हैं.

केवल नौ गांवों का चयन क्यों?

राज्य सरकार की तरफ से केवल नौ गांवों का चयन करना भी किसी की समझ में नहीं आया. इस संबंध में हर्षमंदर कहते हैं कि केवल नौ गांव का चयन कर राज्य प्रशासन ने दंगा पीड़ितों के लिए बेरुखी और भेदभाव का रवैया अख्तियार किया है. सरकार ने केवल उन गांवों का चयन किया है, जहां जान-माल का काफी नुकसान हुआ. प्रशासन ने उन गांवों की अनदेखी की, जहां से लोग डर के मारे अपने घरों को छोड़कर भाग गए या फिर इसलिए छोड़ आए कि उनके घरों को बर्बाद कर दिया गया था या आग लगा दी गई थी.

पीड़ितों का दर्द

इस रिपोर्ट में सरकार द्वारा सबसे अधिक प्रभावित नौ गांवों के लगभग 190 परिवारों ने एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया को बताया कि उन्हें राज्य द्वारा मिले हर्जाने से वंचित रखा गया, जिसके फलस्वरूप कई परिवार अपने बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य खर्चे बर्दाश्त करने में असमर्थ हैं और राहत कॉलोनियों में गुजर-बसर कर रहे हैं. इदरीस बेग रिसेटलमेंट कॉलोनी मुजफ्फरनगर में एक व्यक्ति 75 वर्षीय मुहम्मद इस्लाम हैं, जिनके पांच बेटे हैं मिनत्याज, शमशाद, राशिद, जुबैद और दिशाद. मिनत्याज और शमशाद के पांच बच्चे  और राशिद के दो बच्चे हैं. दंगों से पहले मिनत्याज, शमशाद और राशिद काकड़ा गांव में अलग-अलग रहते थे. इनके राशन कार्ड में अलग-अलग पते हैं. हमलों के बाद सभी परिवारों को अपने गांव छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा और अब ये सभी दंगा पीड़ितों की कॉलोनी में रहते हैं. उल्लेखनीय है कि 2014 में हर्जाने के तौर पर 50 हजार रुपये केवल मोहम्मद इस्लाम को मिले थे. उनके तमाम पुत्रों को इस बुनियाद पर हर्जाने से वंचित रखा गया कि वो एक परिवार की तरह एक साथ रहते हैं अर्थात उनकी मजबूरी का भी ख्याल नहीं रखा गया.

इसी तरह एक और पीड़ित समीना बताती हैं कि मेरे पति अपने परिवार की चिंता में मर गए. हमें कोई हर्जाना नहीं मिला. हमारे पास कोई घर नहीं है और अब हम कामचलाऊ घर में रहते हैं. मुझे अपने बच्चों की देखभाल करनी है और नौकरी मिलनी बहुत मुश्किल है. हमारे ऊपर बहुत कर्जा है. मैं उसे कैसे अदा कर सकता हूं. किसी-किसी दिन तो खाना मिलना भी मुश्किल होता है और हमें भूखे ही रहना पड़ता है. अगर कोई बीमार हो गया तो मैं इलाज का खर्च कैसे उठाऊंगी.

अ़फकार इंडिया फाउंडेशन एनजीओ के अकरम अख्तर चौधरी कई परिवारों से मिले, जिन्हें हर्जाने से वंचित रखा गया था. सरकार ने कई परिवारों को संयुक्त परिवार के रूप में जोड़ना शुरू कर दिया था. आप मुझे बताइए चार भाई जिन्होंने अपनी जमीन, अपना घर, अपनी पूरी संपत्ति पीछे छोड़ दी हो और जो अविवाहित हैं और जिनके बच्चे हैं, वो कैसे एक बार दिए गए पचास हजार रुपए में जीवन जी सकते हैं? उनका ये भी कहना है कि हर्जाने के लिए जो सर्वे किया गया था, उसमें भेदभाव किया गया था.

कॉलोनियों में मूल सुविधाओं की कमी

दंगा पीड़ितों के लिए निर्माण की गई कॉलोनियों में मूल सुविधाओं की जबरदस्त कमी है. उदाहरण के तौर पर मुजफ्फरनगर में 28 में 8 कॉलोनियों और शामली में 37 में से 11 में टायलेट नहीं है, जबकि शामली में मात्र तीन फीसदी सार्वजनिक शौचालय हैं. मुजफ्फरनगर में 61 फीसदी कॉलोनियों में और शामली में 70 फीसदी कॉलोनियों में ड्रैनेज की सुविधा नहीं है. मुजफ्फरनगर में 80 फीसदी कॉलोनियों और शामली में 97 फीसदी कॉलोनियों में पीने का स्वच्छ पानी नहीं है. मुजफ्फरनगर में 54 फीसदी कॉलोनियों और शामली में 81 फीसदी कॉलोनियों में  बिजली कनेक्शन नहीं है. इस बारे में अफकार फाउंडेशन के अकरम अख्तर चौधरी का कहना है कि रिसेटलमेंट कॉलोनियों में शौचालय, पीने का पानी और अन्य मूल सुविधाएं नहीं होने के अहम कारणों में से एक यह है कि यह राज्य में राजनीतिक पार्टियों के लिए प्रमुख मुद्दा नहीं है. राज्य में चुनाव के दौरान किसी ने भी इन दंगा पीड़ितों के जिंदगी गुजर-बसर करने के संबंध में कोई बात नहीं की. मसला यह है कि किसी को इसकी परवाह ही नहीं है.

उभरते हुए सवाल

सवाल यह है कि दंगे आए और गए. मगर सवाल ये है कि चार वर्ष बाद 50 हजार पीड़ित अभी तक बेघर क्यों हैं? इनकी वापसी के बारे में सिविल सोसाइटी या राज्य और केन्द्रीय सरकार द्वारा क्यों नहीं सोचा गया? क्या ये बेघर होकर किसी तरह अपनी जिंदगी गुजारते रहेंगे? जबतक ये कैंपों में हैं, तबतक अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय कानूनों के तहत इन्हें मुनासिब सुविधाएं क्यों प्रदान नहीं की जा रही और इन्हें अमानवीय ढंग से जीवन व्यतीत करने पर क्यों मजबूर किया जा रहा है? प्रश्न यह भी है कि जब 2002 में गुजरात त्रासदी के अधिकतर पीड़ित अपने पैतृक स्थान पहुंच चुके हैं, विभिन्न समय में असम में बंगाली भाषा बोलने वाले लोग, कभी बोडो तो कभी किसी और मामले में बेघर हुए और उनमें से भी अधिकतर अपने असल गांव में वापस लौट आए हैं, तो मुजफ्फरनगर और शामली के बेघर कब तक कैंपों या रिसेटलमेंट कॉलोनियों में जीवन व्यतीत करते रहेंगे?

एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया रिपोर्ट की स़िफारिश, उत्तर प्रदेश सरकार से

  • मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान परिवारों को हुए नुकसान पर रिव्यू के लिए स्वतंत्र तंत्र बनाया जाए और नुकसान की भरपाई पूरी तरह से हो, जिसमें हर्जाना, पुनर्वास और पुनर्निर्माण शामिल हों.
  • इस बात को य़कीनी बनाया जाए कि रिसेटलमेंट कॉलोनियों में रहने वाले तमाम परिवारों को अविलंब आवास खाना-पानी और इलाज समेत सभी जरूरतों को पूरा करने में मदद प्राप्त हो.
  • रिसेटलमेंट कॉलोनियों की स्थिति की समीक्षा की जाए और मुजफ्फरनगर दंगों के कारण उजड़े हुए लोगों के साथ सलाह करके इन तमाम लोगों के लिए आवास, पानी, सफाई, इलाज और अन्य अधिकार को य़कीनी बनाने के लिए कदम उठाए जाएं.

केंद्र सरकार से

  • संप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए और उससे निपटने के लिए एक मजबूत कानून बनाया जाए, जिसमें राहत, वापसी और पुनर्वास के लिए अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार के कानून शामिल हों.
  • अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार के तय मानकों के अनुसार अंदरूनी तौर पर उजड़ने पर एक समग्र राष्ट्रीय पॉलिसी बनायी जाए, जिसमें उजड़ने के कारण और अन्य किस्म की जानकारियां जमा करने और उजड़ने को रोकने, फौरी तौर पर जरूरतों को पूरा करने और पुनर्वासियों, पीड़ितों से मिलने और सलाह के साथ एकीकृत हल को संभव बनाने के कदम उठाने वाले प्रावधान शामिल हों.
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