ईद पर हमने प्रार्थना की थी कि सभी के घर ख़ुशियां दस्तक दें, लेकिन दस्तक महंगाई ने दी, दरवाज़ा ऩफरत ने खटखटाया, यहां तक कि देश में होने वाले कॉमन वेल्थ खेलों को न होने देने की धमकी बाहर से भी मिली और अंदर से भी. अब होली आई है. इच्छा हो रही है कि भगवान, अल्लाह, गॉड और वाहे गुरु से हाथ जोड़ कर कहें कि इस देश के आम आदमी की ज़िंदगी में थोड़ी ख़ुशियों के रंग बिखरें. कम से कम हमें मालूम तो हो कि हमारे अल्लाह, भगवान, गॉड और वाहे गुरु हमारी ओर से लापरवाह नहीं हैं. देखें क्या होता है, पर दुआ तो अच्छे के लिए ही करनी चाहिए.

होली ख़ुशियों का त्योहार है, पर ख़ुशियां मनाएं कैसे. एक बड़ी आबादी अपनी ही सरकार के ख़िला़फ लड़ रही है और सरकार उन्हें नेस्तनाबूद करने की धमकी दे रही है. अपने देश के लोग अगर रोटी, रोज़ी, विकास की मांग करें और अब तक इसे पूरा न करने की कमी पर गुस्सा ज़ाहिर करें तो क्या सरकार को गोलियां और बम आधारित नीति पर चलना चाहिए या सारे देश में एक नई संतुलित विकास नीति पर चलना चाहिए.

दिल्ली में पिछले दिनों कुछ मुस्लिम संगठनों की बैठक हुई और उन्होंने रंगनाथ मिश्र कमीशन की स़िफारिशों को लागू करने के लिए आंदोलन करने की बात कही. हमें अच्छा लगा, क्योंकि रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट संसद में रखवाने में चौथी दुनिया की बड़ी भूमिका थी. लेकिन एक डर भी लगा कि कहीं इसका परिणाम कुछ और न निकले. हमारा अनुरोध उन सभी मुस्लिम जमातों से है, जो रंगनाथ मिश्र कमीशन की स़िफारिशें लागू कराना चाहती हैं कि वे इसकी अगुआई न करें. उन्हें चाहिए कि वे मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, रामविलास पासवान सहित वामपंथी दलों पर दबाव डालें कि वे इसे लागू करने की मुहिम की अगुआई करें. यह आवश्यक है.
अगर मुस्लिम संगठन इसकी अगुआई करेंगे तो देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश कुछ ताक़तें कर सकती हैं. ये ताक़तें स़िर्फ इंतज़ार ही इस बात का कर रही हैं कि कब मुस्लिम संगठन आवाज़ उठाएं और वे चिल्लाना शुरू करें. धर्म निरपेक्ष शक्तियों की भी यह परीक्षा है. रंगनाथ मिश्र कमीशन को यह काम सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की सलाह जैसे आदेश के बाद दिया था. सरकार को तो आगे बढ़ना ही चाहिए, पर सरकार अगर आगे नहीं बढ़ती तो कांग्रेस समेत सभी ऐसे दलों को आगे आना चाहिए, जिन्होंने इसका समर्थन किया है.
यह होली आई ऐसे मौक़े पर है, जब कुछ घटनाएं घटने या न घटने का इंतज़ार कर रही हैं. हरिद्वार में कुंभ हो रहा है. मार्च के दूसरे हफ़्ते में यहां विश्व हिंदू परिषद कोशिश करने वाली है कि राम मंदिर के लिए पुनः कुछ उग्र आंदोलन की भूमिका बने और कुंभ का इस्तेमाल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए किया जा सके. भारतीय जनता पार्टी की इंदौर कार्यकारिणी में अध्यक्ष नितिन गडकरी ने मुस्लिम समाज से अयोध्या में मंदिर निर्माण के लिए जगह मांगी है और पास में ही मस्जिद बनाने का वायदा किया है. मासूम सी दिखती इस अपील के पीछे देश को पुनः दंगों की आग में झोंकने का इशारा नज़र आ रहा है. जब देश ने भाजपा को दो बार लोकसभा चुनाव में नकार दिया तो फिर इस अपील का मतलब नहीं, क्योंकि दोनों बार भाजपा ने मंदिर निर्माण की बात उठाई थी. भाजपा के सामने देश के निर्माण का कोई नक्शा है ही नहीं. उसके पास ग़रीबी, बेकारी, बीमारी, महंगाई का मुक़ाबला करने की इच्छा शक्ति भी नहीं है. भाजपा शासित राज्यों में कोई नई पहल भी नहीं है. पहल तो कांग्रेस शासित राज्यों में भी नहीं है, पर भाजपा का ज़िक़्र इसलिए, क्योंकि उनके पास तो सोच भी नहीं है. वे बार-बार राम मंदिर का मुद्दा उठाते हैं, रामराज्य का नहीं. रामराज्य में कोई बेकार नहीं था, भूखा नहीं था, सबके पास समान अवसर था. काश इस होली पर भाजपा ख़ुशियों के रंग बिखेरने का फैसला लेती.
सनातन धर्म ने ही सिखाया है कि सब अपने हैं. सारी दुनिया एक कुटुंब है, सब सुखी रहें, सब साथ-साथ जिएं, सभी अपने से कमज़ोर का ध्यान रखें. सनातन धर्म की इस शिक्षा के विपरीत हिंदू नाम से चलाए जाने वाले धर्म ने हिंदुओं को मुसलमानों के ख़िला़फ, हिंदुओं को सिखों के ख़िला़फ, हिंदुओं को ईसाइयों के ख़िला़फ खड़ा करने की कोशिश शुरू कर दी है. परिणाम यह निकल रहा है कि दलित, पिछड़े, आदिवासी तक अपने को हिंदुओं से अलग मानने लगे हैं. इतना ही नहीं, देश की बहुसंख्या इन तथाकथित हिंदूवादियों के ख़िला़फ है और समय-समय पर अपना रुझान बताती रहती है.
होली ख़ुशियों का त्योहार है, पर ख़ुशियां मनाएं कैसे. एक बड़ी आबादी अपनी ही सरकार के ख़िला़फ लड़ रही है और सरकार उन्हें नेस्तनाबूद करने की धमकी दे रही है. अपने देश के लोग अगर रोटी, रोज़ी, विकास की मांग करें और अब तक इसे पूरा न करने की कमी पर गुस्सा ज़ाहिर करें तो क्या सरकार को गोलियां और बम आधारित नीति पर चलना चाहिए या सारे देश में एक नई संतुलित विकास नीति पर चलना चाहिए. छत्तीसगढ़, झारखंड, बंगाल, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार में सरकार से नाराज़गी प्रगट करने वालों की संख्या बढ़ती ही जा रही है.
यह नाराज़गी अब केवल सरकार से नहीं है, बल्कि पूरे राजनैतिक परिदृश्य से है, क्योंकि कोई भी राजनैतिक दल आम आदमी की तक़ली़फ को अपना मुद्दा नहीं बना रहा. चुनाव होंगे और कोई जीतेगा भी, लेकिन जीतकर भी अपनी जान की चिंता करे, यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है. जो लोग सरकार से कह रहे हैं कि इसे क़ानून व्यवस्था की समस्या न मान विकास और भ्रष्टाचार की समस्या मानें, उन्हें सरकार नक्सल या माओवादी समर्थक मान रही है. ज़िले स्तर पर जो पत्रकार इस स्थिति पर लिख रहे हैं, उन्हें कई प्रदेशों में पुलिस प्रताड़ित कर रही है और कई जगहों पर जेल भी भेज रही है. कई हैं, जो सालों-महीनों से जेल में हैं और जिनकी यह होली भी जेल में ही बीतेगी. स़िर्फ इसलिए, क्योंकि वे चाहते हैं कि सरकार चलाने वाले अपनी सोच बदलें. आज वे अकेले हैं, क्योंकि बड़े अख़बारों के पत्रकारों और संपादकों का ध्यान इस ओर है ही नहीं. उनका ध्यान जाएगा ज़रूर, जब उन पर हमला होगा.
सरकार चलाने वालों से, चाहे वे राज्य में हैं या केंद्र में, क्या इतनी आशा नहीं करनी चाहिए कि वे अपनी पुलिस को चुस्त-दुरुस्त बनाएं. शहरों या गांवों में रहने वाले लोग चैन से अपना जीवन गुज़ार सकें. पर यह आशा दिन का सपना जैसी है. चाहे मुंबई हो या दिल्ली या लखनऊ, पटना, हैदराबाद जैसे शहर, कहीं पर भी आम लोग सुरक्षित नहीं हैं. पुलिस थाना सौ गज़ दूर, लेकिन चोरी-डकैती हो जाती है. पुलिस को अपनी जान पर ख़तरा होने का अंदेशा बताते रहिए, जान चली जाती है. अब तो पुलिस में काम करने वाले ही लुटेरे गिरोहों के सरगना निकल रहे हैं. शायद इसीलिए क़ानून व्यवस्था तोड़ने वाले पुलिस अधिकारियों को ही सरेआम मारपीट रहे हैं. पुलिस का डर इसलिए नहीं रहा, क्योंकि अपराधियों को पता है कि पुलिस को कैसे साधना है.
हां, किसी शरीफ आदमी से छोटी ग़लती होने दीजिए, किसी राजनेता या किसी सरकारी अधिकारी को पुलिस के चंगुल में साधारण ग़लती पर फंसने दीजिए, फिर देखिए पुलिस अपनी सारी कुशलता कैसे साबित करती है. इस स्थिति को बदलने की आशा तो नहीं करते, लेकिन चाहते ज़रूर हैं कि यह स्थिति बदले, क्योंकि इसका स्वाभाविक परिणाम होगा कि पुलिस वालों पर खुलेआम हमले होंगे.
राजनैतिक दल ज़िम्मेदार बनें, जनता के प्रति जवाबदेह बनें और एक सार्थक विपक्ष का रोल निबाहें, इतनी सी आशा उनसे अगर जनता करती है तो क्या गुनाह करती है. राष्ट्रीय समस्याओं और राष्ट्रीय सवालों पर वे कम से कम एक राय बनाएं. अगर यह आशा की जाती है तो क्या बुरा किया जाता है. नरेगा जैसी योजनाओं का लाभ ग़रीबों को मिलें, तो क्या यह चाहना चांद चाहने जैसा है? देश में रहने वालों को सामान्य सुविधाएं मिलें, इसकी मांग क्या अपराध है? सभी धर्म, सभी वर्ग और समुदायों के लोग प्यार से साथ रहें और उन्हें आप रहने दें, इसका चाहना क्या देशद्रोह है?
देश के लोगों की ये कुछ छोटी-छोटी इच्छाएं हैं, जिनके लिए हम ईद, दीवाली और होली पर प्रार्थना करते हैं, दुआ मांगते हैं. चाहते हैं कि भगवान, अल्लाह, वाहे गुरु और गॉड इस पर ध्यान दें, क्योंकि इंसानों की सल्तनत से तो आशाएं टूट रही हैं.

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