bjpउत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव के परिणाम आ चुके हैं. चुनाव परिणाम को लेकर अब किस्म-किस्म की समीक्षाएं पेश होंगी और तरह-तरह के आरोप-प्रत्यारोप लगेंगे, लेकिन जमीनी यथार्थ यही है कि सबसे अधिक जनसंख्या वाले उत्तर प्रदेश और उसके ही शरीर से बने उत्तराखंड के लोगों ने भ्रष्टाचार और कुशासन की राजनीति को सिरे से खारिज कर दिया है.

2017 का चुनाव परिणाम राजनीतिक दलों के लिए सीख लेने वाले संदेश की तरह सामने आया है. यह समेकित संदेश है. इसमें धर्म और जाति का भेद नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश को यह समझाने में पूरी तरह कामयाब हो चुके हैं कि वे भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ खड़े हैं.

जनता के दिमाग में इस समझ के स्थापित होने के कारण ही तमाम प्रचारों-दुष्प्रचारों के बावजूद नोटबंदी कहीं कोई मुद्दा नहीं बना और कुशासन की पृष्ठभूमि पर बैठे सपा, बसपा और कांग्रेस जैसे दलों की इस बार कोई दाल नहीं गली. भाजपा के पक्ष में वोटों का आच्छादन बताता है कि उसे समाज के प्रत्येक वर्ग का वोट मिला. मुसलमानों का भी वोट मिला, इसमें मुस्लिम महिलाओं ने भाजपा का अधिक पक्ष लिया.

भाजपा की ऐसी ऐतिहासिक जीत से सपा, बसपा, कांग्रेस बौखला गई हैं. सपा के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने यहां तक कह दिया कि भाजपा ने जनता के साथ धोखाधड़ी की, लोगों को बांटा और बरगलाया. इस पर सपा के ही वरिष्ठ नेता शिवपाल यादव ने कहा कि यह हार समाजवादियों की नहीं, घमंडियों की हार है. वहीं बसपा नेता मायावती ने आरोप लगा दिया कि भाजपा ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के साथ छेड़छाड़ की और अपने मन-मुताबिक परिणाम निकलवा लिया.

हालांकि इस आरोप को पुष्ट करने के लिए मायावती ने कोई प्रमाण नहीं दिया. उन्होंने इस बात पर भी आश्चर्य जाहिर किया कि भाजपा द्वारा एक भी मुस्लिम प्रत्याशी नहीं दिए जाने के बावजूद मुस्लिम बहुल क्षेत्र में भाजपा को भारी वोट कैसे मिले! मायावती ने कहा कि वोंटिग मशीन में ‘सेंटिग’ की वजह से बसपा हार गई.

मायावती बोलीं कि वर्ष 2014 में भी ऐसी ही गड़बड़ी की आशंका जताई गई थी और हाल में महाराष्ट्र में हुए महानगर पालिका के चुनावों में भी ईवीएम में ‘मैनिपुलेशन’ की शिकायत सामने आई है. अखिलेश यादव ने भी ‘ईवीएम-मैनिपुलेशन’ की तरफ इशारा किया और यह भी कहा कि जनता का फैसला उन्हें स्वीकार है. उन्होंने उम्मीद जताई कि नई सरकार बेहतर काम करेगी.

अखिलेश ने कहा कि नई सरकार के गठन के बाद पहली कैबिनेट बैठक में जो निर्णय आएंगे, उसका हम सबको इंतजार रहेगा. किसानों का कर्ज माफ हुआ, तो उन्हें बहुत खुशी होगी.

उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के जनादेश ने सपा-कांग्रेस गठबंधन तकनीक और बसपा की नई धार्मिक-अभियांत्रिकी को उनकी खोलों में समेट कर रख दिया. मैदान से लेकर पहाड़ तक भाजपा का दबदबा कायम हो गया. इसकी सबसे बड़ी खासियत यह रही कि मुस्लिम बहुल इलाकों में भी भाजपा को जीत मिली. सपा-कांग्रेस गठबंधन नंबर दो और बसपा नंबर तीन पर स्थान बना पाई.

पहले और दूसरे के बीच संख्या की खाई बहुत ज्यादा गहरी है. उत्तराखंड में तो बसपा शून्य में ही रह गई. देश के पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में लोगों का सबसे ज्यादा ध्यान उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव पर ही लगा था. यूपी की 403 विधानसभा सीटें पूरे देश की राजनीति का ताप बदल देती हैं.

यहां सात विभिन्न चरणों में चुनाव हुए. पहले चरण में 11 फरवरी को 15 जिलों की 73 विधानसभा सीटों पर वोट डाले गए. दूसरे चरण में 15 फरवरी को 11 जिलों की 67 सीटों के लिए चुनाव हुए. तीसरे चरण में 69 सीटों पर 19 फरवरी को चुनाव कराया गया. चौथे चरण में 53 सीटों पर 23 फरवरी को वोटिंग हुई. पांचवें चरण में 52 सीटों के लिए 27 फरवरी को और छठे चरण में 49 सीटों पर 4 मार्च को चुनाव हुए. सातवें चरण में 40 सीटों पर 8 मार्च को हुए मतदान के बाद चुनाव की प्रक्रिया समाप्त हुई.

2017 के विधानसभा चुनाव की खासियत यह रही कि इसने राम मंदिर आंदोलन काल में भाजपा को मिले जनादेश को भी पीछे धकेल दिया. उस समय भाजपा को 221 सीटें, यानि, करीब 32 प्रतिशत वोट मिले थे. पिछले (2007) चुनावी नतीजों का विश्लेषण करें, तो पाएंगे कि 28 फीसदी से अधिक वोट पाने वाली पार्टी बसपा की सरकार बनी थी. 2007 में बसपा ने 206 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत प्राप्त की थी. वर्ष 2012 में समाजवादी पार्टी को 224 सीटों के साथ 29.13 प्रतिशत वोट मिले थे और वह सत्ता पर काबिज हुई थी.

2012 के चुनाव में बसपा को 25.91 प्रतिशत वोट मिले थे. 2007 में सपा को 25.5 फीसदी मत मिले थे. भाजपा को उन दोनों चुनावों में महज 17 प्रतिशत के आसपास वोट मिले थे. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का भाग्य पलटा और उसे 42.3 प्रतिशत वोट के साथ 73 सीटें हासिल हुईं. ठीक वही हाल 2017 के विधानसभा चुनाव में हुआ, जिसमें भाजपा को तीन चौथाई से भी ज्यादा सीटें हासिल हुईं. भाजपा को 403 सीटों में अकेले 312 सीटें मिलीं.

भाजपा की सहयोगी अपना दल को नौ सीटें मिलीं, जबकि दूसरी सहयोगी भारतीय समाज पार्टी को भी चार सीटें मिली हैं. यानि, 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन को कुल 325 सीटें हासिल हुई हैं. समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन को महज 54 सीटें हासिल हुईं. इनमें 47 सीटें सपा को और सात सीटें कांग्रेस को मिली हैं. बसपा का हाल सबसे खराब रहा. उसे महज 19 सीटों पर संतोष करना पड़ा.

फिर से याद दिलाते चलें कि 2012 के चुनाव में सपा को 224 सीटें मिली थीं और कांग्रेस 28 सीटों पर विजयी हुई थी. भाजपा की जीत को मार्जिन के नजरिए से देखें, तो पाएंगे कि सपा, बसपा और कांग्रेस की ‘जमानत’ जब्त हो गई. उत्तराखंड में भी भाजपा को 69 में से 56 सीटें मिलीं और तीन चौथाई बहुमत हासिल हुआ. कांग्रेस को महज 11 सीटें मिलीं. मुख्यमंत्री हरीश रावत दो सीटों से चुनाव लड़े थे, दोनों जगह से हार गए. उत्तराखंड में विधानसभा की कुल सीटें 70 हैं.

यूपी में चुनाव परिणाम आने के बाद सपा नेता भी कहने लगे हैं कि मुलायम परिवार का झगड़ा न हुआ होता, तो न पार्टी टूटती, न कांग्रेस से गठबंधन होता और न इतने बुरे दिन देखने पड़ते. सपा के राज्यसभा सदस्य अमर सिंह ने कहा भी, ‘घर को लगी आग, घर के चिराग से.’ अमर सिंह ने कहा कि मुलायम परिवार की कलह और अखिलेश का अहंकार पार्टी को ले डूबा.

उन्हें सभी उम्रदराज नेताओं का सम्मान करना चाहिए था. ऊपर से कांग्रेस के साथ गठबंधन करके 105 सीटें और बेकार कर दीं. अमर सिंह ने कहा कि अगर मुलायम ने पहले ही सत्ता की कमान संभाल ली होती, तो हार का अंतर इतना बड़ा नहीं होता. सपा को कम से कम 120 से 130 सीटें तो मिल ही जातीं.

विधानसभा चुनाव के आखिरी चरण के दिन ही मुलायम की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता ने अखिलेश द्वारा अपने पिता मुलायम का अपमान करने की बात कह कर आखिरी कील ठोक दी. साधना गुप्ता ने यह भी कहा कि शिवपाल यादव का कोई दोष नहीं है, सब रामगोपाल का किया धरा है. साधना गुप्ता ने कहा कि उनका बहुत अपमान हुआ, वे अब और सहन नहीं करेंगी. उन्होंने शिवपाल का पक्ष लिया और कहा, उन्हें गलत ढंग से पार्टी से किनारे किया गया. चुनाव परिणाम के बाद प्रो. रामगोपाल यादव परिदृश्य से गायब हैं.

यह सही है कि नरेंद्र मोदी की लहर के बारे में सपा समेत किसी भी पार्टी को अनुमान नहीं लग पाया. खुद भाजपा को भी यह भान नहीं था कि अंदर-अंदर इतनी बड़ी सुनामी की शक्ल ले रही है. लेकिन इतनी दयनीय स्थिति पर पार्टी को ला खड़ा करने के लिए अखिलेश ही नहीं, मुलायम भी उतने ही दोषी हैं. प्रो. रामगोपाल भी उतने ही दोषी हैं. परिवार के अंदरूनी विवाद को सार्वजनिक मंचों पर लाकर मुलायम ने उसे अधिक सड़ाया. घर का झगड़ा सड़क तक ला दिया. यह झगड़ा भी लगातार चलता रहा और गहराता रहा.

मुलायम और उनके बेटे के बीच या चाचा शिवपाल और भतीजे अखिलेश के बीच राजनीतिक वर्चस्व का झगड़ा था, तो इसे सड़क पर लाने की क्या जरूरत थी? उसे घर में निपटाने के बजाय उसे पार्टी के सार्वजनिक मंचों पर निपटाया जाने लगा. इसे पूरी दुनिया ने देखा.

इसे उत्तर प्रदेश की जनता ने देखा. आम लोगों की तरफ से ये सवाल उठे कि प्रदेश की जनता ने वर्ष 2012 में सपा को जनादेश क्या परिवार का झगड़ा देखने के लिए दिया था? जनता ने भीतर-भीतर यह तय कर लिया था कि इस कलह का पुरस्कार सपा को कैसे देना है. पिता को जबरन पार्टी से बेदखल कर खुद को राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित करने वाले अखिलेश यादव के सिपहसालार भी उन्हें डुबोने के लिए आमादा थे. कांग्रेस से गठबंधन करने की सलाह देने वाले उनके परामर्शदाता राजनीतिक दूरदृष्टि के हिसाब से पूरे विकलांग ही साबित हुए.

मुख्यमंत्री और स्वयंभू राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव इतने सत्ता दंभ में थे कि कांग्रेस से गठबंधन को लेकर किसी वरिष्ठ नेता से कोई सुझाव लेने की जरूरत नहीं समझी. सारे वरिष्ठों को वे धकिया चुके थे, तो सलाह किससे लेते! हालांकि उपेक्षित किए जाने के बावजूद मुलायम ने कांग्रेस से गठबंधन को सपा के लिए आत्मघाती बताया था.

लेकिन मुलायम की सुन कौन रहा था! चाटुकारों की भीड़ के अलावा अखिलेश के पास कोई दूसरा कार्यकर्ता फटक भी नहीं पा रहा था. लेकिन ऐसे आचरणों से कार्यकर्ताओं में नकारात्मक संदेश तो जा ही रहा था. राहुल तो अपनी खाट खड़ी करने पर आमादा थे ही, उन्होंने अखिलेश के माथे पर भी टूटी खाट पटक दी.

लोग कहते हैं कि कानून व्यवस्था अखिलेश सरकार के लिए बड़ा मुद्दा बना. लेकिन असलियत यह है कि खराब कानून व्यवस्था से अधिक खराब माना गया था, अखिलेश द्वारा यादव सिंह जैसे भ्रष्ट अधिकारियों और गायत्री प्रजापति जैसे भ्रष्टतम मंत्रियों को संरक्षण दिया जाना. इस अनैतिक संरक्षण के कारण अखिलेश जनता के सामने बुरी तरह एक्सपोज़ हुए, लेकिन उन पर जैसे इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था. पर जनता के बीच अखिलेश का यह रवैया भीषणरूप से नापसंद किया जा रहा था.

मुजफ्फरनगर के दंगे से लेकर मां-बेटी के साथ सामूहिक बलात्कार की लोमहर्षक घटनाओं ने अखिलेश का बड़ा नुकसान किया. नोटबंदी पर सपा, कांग्रेस और बसपा की गिरोहबंदी ने रही सही कसर पूरी कर दी. जनता को उकसाने की उनकी कोशिशें नाकाम रहीं और चुनाव में लोगों ने उन तिकड़मों का हिसाब-किताब बराबर कर दिया.

भाजपा सांसद व पार्टी के अनुसूचित जाति जनजाति प्रकोष्ठ के अध्यक्ष कौशल किशोर कहते हैं कि अखिलेश के नारे ‘काम बोलता है’ ने सपा का ‘काम लगा दिया’, क्योंकि जनता को यह सफेद झूठ पसंद नहीं आया. बसपा नेता मायावती के बारे में कौशल कहते हैं कि मायावती ने बाबा साहब अंबेडकर के सिद्धांतों को ताक पर रख दिया, तो व्यापक दलित समुदाय ने मायावती और उनकी पार्टी को ही ताक पर रख दिया.

मोदी लहर का असर पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में भी दिखा, जहां से कांग्रेस का ‘भक्क-काटा’ हो गया. हरीश रावत सरकार में काबीना मंत्री रहे नेता तो चुनाव हारे ही, खुद मुख्यमंत्री हरीश रावत भी हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा सीट से चुनाव हार गए. उत्तराखंड की 69 सीटों (खबर लिखे जाने तक एक का परिणाम बाकी था) में से भाजपा को 57 और कांग्रेस को 11 सीटें ही मिलीं. हालांकि इस आकर्षक जीत के बावजूद भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट चुनाव हार गए. गढ़वाल के सांसद और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी ने उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी की जीत को मोदी की कार्यशैली की जीत बताया.

चुनाव में भाजपा के ‘परफॉर्मेंस’ को लेकर तमाम आशंकाएं जताई जा रही थीं. कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए नेताओं को टिकट दिए जाने से लेकर तमाम ‘बाहरियों’ को टिकट दिए जाने से भाजपा के पुराने नेताओं और कार्यकर्ताओं में नाराजगी थी. कई दिग्गज भाजपा नेता बागी प्रत्याशी के बतौर चुनाव मैदान में भी आ डटे थे. ऐसा लग रहा था कि असंतुष्टों और बागियों की वजह से भाजपा को अपेक्षित सफलता न मिल पाए. लेकिन ऐसी आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं. टिकट नहीं दिए जाने से नाराज भाजपा महिला मोर्चा की पूर्व प्रदेश मीडिया प्रभारी लक्ष्मी अग्रवाल सहसपुर से निर्दलीय खड़ी हो गई थीं.

कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में आए यशपाल आर्य और उनके बेटे संजीव आर्य दोनों को टिकट दिए जाने से वे नाराज थीं. भाजपा ने इस बार एक दर्जन से अधिक उन नेताओं को टिकट दिए, जो कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए थे. कांग्रेस से भाजपा में आए सतपाल महाराज चौबटाखाल से लड़ रहे थे. उनके लिए भाजपा ने तीरथ सिंह रावत का टिकट काट दिया. रावत चुनाव नहीं लड़ रहे थे, लेकिन उनके करीबी कवींद्र इस्टवाल सतपाल महाराज के मुकाबले खड़े थे.

भाजपा ने नरेंद्र नगर सीट पर कांग्रेस से आए सुबोध उनियाल को टिकट दिया. इससे नाराज ओम गोपाल रावत बागी प्रत्याशी के बतौर खड़े हो गए थे. कांग्रेसी से भाजपाई बने हरक सिंह रावत की वजह से ही भाजपा के शैलेंद्र रावत को इस्तीफा देना पड़ा. हरक सिंह रावत को भाजपा ने कोटद्वार से टिकट दिया, जहां से शैलेंद्र चुनाव लड़ना चाहते थे. शैलेंद्र बाद में कांग्रेस में चले गए और कांग्रेस ने उन्हें गढ़वाल की यमकेश्वर सीट से टिकट दे दिया था.

70 सीटों वाले उत्तराखंड की आधे से अधिक सीटों पर बागी खेल बिगाड़ने में लगे थे. यह अकेले भाजपा के साथ नहीं था. कांग्रेस भी बागियों से परेशान थी. बगावत ने कांग्रेस का तो खेल बिगाड़ा, लेकिन भाजपा का कुछ नहीं बिगड़ा. कांग्रेस के आर्येंद्र शर्मा का सहसपुर सीट से चुनाव लड़ना तय था, लेकिन ऐन मौके पर उनका पत्ता कट गया.

फिर वे निर्दलीय ही खड़े हो गए थे. वहीं से कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय मैदान में थे, जो इन्हीं वजहों से चुनाव हार गए. निवर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत ने उपाध्याय को उनकी परम्परागत टिहरी सीट से नहीं लड़वाया. इससे उपाध्याय नाराज भी थे. हालांकि हरीश रावत भी चुनाव में धराशाई ही रहे. कांग्रेस के समक्ष कई दिक्कतें थीं.

हरिद्वार की ज्वालापुर सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार एसपी सिंह के खिलाफ बागी ब्रजरानी खड़ी थीं, तो कुमाऊं की भीमताल सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी दान सिंह भंडारी के खिलाफ राम सिंह कैड़ा बागी उम्मीदवार के रूप में खड़े थे. कुमाऊं की ही द्वाराहाट सीट पर कांग्रेस के मदन बिष्ट के खिलाफ कुबेर कठायत खड़े थे. दिलचस्प यह रहा कि भाजपा ने कांग्रेस छोड़कर आए 13 नेताओं को टिकट दिया, तो कांग्रेस ने भाजपा से कांग्रेस में आए 7 नेताओं को टिकट दिया था.

सियासी कतरब्यौंत और परस्पर तिकड़मबाजी में उत्तराखंड के मूल मुद्दे हाशिए पर ही रहे. राजधानी गैरसैण ले जाने के साथ-साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, पलायन व रोजगार जैसे मसले किनारे रह गए. राज्य के पर्वतीय जिलों में डॉक्टरों का घोर अभाव है. राज्य में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों की सरकारें रही हैं, लेकिन किसी ने भी स्वास्थ्य क्षेत्र की गंभीर समस्याओं के हल के लिए कुछ नहीं किया. पहाड़ के गांवों से पलायन की स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि तीन हजार गांव ऐसे हैं, जहां आज एक भी मतदाता नहीं बचा है.

उत्तराखंड के 16 हजार 793 गांवों के 2 लाख 57 हजार 8 सौ 75 घरों में पलायन के कारण ताले लटक चुके हैं. इसके कारण राज्य के चीन से लगे सीमान्त क्षेत्र को गम्भीर सामरिक खतरा भी पैदा हो गया है. लोगों का पलायन रोकने के लिए राज्य और केंद्र सरकार की ओर से कोई पहल नहीं की गई. पर्वतीय प्रदेश की समस्याएं जस की तस सामने खड़ी हैं.

राज्य में रहने वाले बंगाली, पूरबिया, पंजाबी, मैदानी दलितों की उपेक्षा की बात तो खूब होती है, लेकिन पहाड़, पहाड़ी दलितों, पहाड़ की कुमाऊंनी वगढ़वाली भाषा और लोक-संस्कृति के विलुप्त होते जाने की कोई नेता चर्चा नहीं करता. महिलाओं की पीड़ा की बात किसी राजनीतिक दल ने नहीं की. पहाड़ के लोगों का कहना है कि पहली बार किसी विधानसभा चुनाव में लगा ही नहीं कि यह उत्तराखंड का चुनाव है. लगा कि जैसे यह चुनाव उत्तर प्रदेश में ही हो रहा है. केवल राज्य का नाम बदला है और कुछ नहीं. उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड एक राज्य के रूप में 9 नवम्बर 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग हुआ था.

उत्तर प्रदेश के 13 जिलों हरिद्वार, देहरादून, टिहरी गढ़वाल, उत्तरकाशी, चमोली, पौड़ी गढ़वाल, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़, चम्पावत, नैनीताल व उधमसिंह नगर को मिलाकर उत्तराखंड बना था. यहां केवल विधानसभा है, विधान परिषद नहीं. उत्तराखंड की पहली अंतरिम सरकार के मुख्यमंत्री भाजपा के नित्यानंद स्वामी बने थे, जो उसके पहले उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सभापति थे. अक्टूबर 2001 में भगत सिंह कोश्यारी मुख्यमंत्री बनाए गए. उत्तराखंड के चौथे विधानसभा चुनाव के तहत 15 फरवरी 2017 को 70 विधानसभा सीटों पर मतदान हुआ.

यूपी के 20 सीएम, पर कोई दो बार लगातार ‘रिपीट’ नहीं हुआ 

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे ऐतिहासिक सफलताओं के साथ भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में आए, लेकिन उत्तर प्रदेश की परम्परा एक बार एक मुख्यमंत्री को कुर्सी देने की रही है. यानि, कोई मुख्यमंत्री आज तक अपनी कुर्सी पर दो बार लगातार ‘रिपीट’ नहीं हो पाया है. गोविंद वल्लभ पंत से लेकर अखिलेश यादव तक कोई भी व्यक्ति निरंतरता में दोबारा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठ पाया. उत्तर प्रदेश में अब तक 20 मुख्यमंत्री हो चुके हैं. इनके अलावा तीन कार्यकारी मुख्यमंत्री भी हुए हैं, जिनका कार्यकाल छोटा रहा है. 2017 में निवर्तमान मुख्यमंत्री हुए अखिलेश यादव 15 मार्च 2012 को मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हुए थे.

उत्तर प्रदेश की पहली विधानसभा को 1952-57 तक गोविंद वल्लभ पंत के रूप में मुख्यमंत्री मिला. दूसरी विधानसभा 1957-62 तक चली, जिसमें सम्पूर्णानंद मुख्यमंत्री बने. इसके बाद चंद्रभानु गुप्त, सुचेता कृपलानी, चंद्रभानु गुप्त, चरण सिंह, चंद्रभानु गुप्त, चरण सिंह, त्रिभुवन नारायण सिंह, कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, नारायण दत्त तिवारी, राम नरेश यादव, बनारसी दास, विश्वनाथ प्रताप सिंह, श्रीपति मिश्र, नारायण दत्त तिवारी, वीर बहादुर सिंह, नारायण दत्त तिवारी, मुलायम सिंह यादव, कल्याण सिंह, मुलायम सिंह यादव, मायावती, राष्ट्रपति शासन, मायावती, कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्त, राजनाथ सिंह, मायावती, मुलायम सिंह यादव, मायावती और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने. इनमें से कई नेता दो बार तो मुख्यमंत्री बने, लेकिन कोई भी नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी पर एक से दूसरे सत्र में ‘रिपीट’ नहीं हुआ.

उत्तराखंड के सात सीएम, पर कोई दो बार लगातार ‘रिपीट’ नहीं हुआ

उत्तराखंड प्रदेश के निर्माण से लेकर अब तक सात मुख्यमंत्री हो चुके हैं. पर्वतीय प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री के बतौर नित्यानंद स्वामी का नाम दर्ज हो चुका है. स्वामी 9 नवम्बर 2000 से लेकर 29 अक्टूबर 2001 तक मुख्यमंत्री रहे. स्वामी के बाद 30 अक्टूबर 2001 से 01 मार्च 2002 तक भगत सिंह कोश्यारी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे. कोश्यारी के बाद प्रदेश में कांग्रेस का दौर आया और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता नारायण दत्त तिवारी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने.

एनडी 02 मार्च 2002 से 07 मार्च 2007 तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. एनडी के बाद फिर भाजपा के भुवन चन्द्र खंडूरी मुख्यमंत्री बने. खंडूरी 08 मार्च 2007 से 23 जून 2009 तक मुख्यमंत्री रहे. खंडूरी के बाद 24 जून 2009 से लेकर 10 सितम्बर 2011 तक रमेश पोखरियाल निशंक उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे. भुवन चन्द्र खंडूरी दोबारा मुख्यमंत्री बने और 11 सितम्बर 2011 से 13 मार्च 2012 तक सीएम की कुर्सी पर काबिज रहे.

इसके बाद फिर कांग्रेस का दौर आया, जब विजय बहुगुणा प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. बहुगुणा 13 मार्च 2012  से 31 जनवरी 2014 तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. उसके बाद ही कांग्रेस के हरीश रावत मुख्यमंत्री बने. रावत 01 फरवरी 2014 से अब तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. उत्तराखंड में भी कोई मंत्री लगातार दूसरी बार ‘रिपीट’ नहीं हुआ.

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