भारत में बलूचिस्तान का मुद्दा सबसे पहले तब गरमाया, जब 2009 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गिलानी के साझा बयान में इसका जिक्र हुआ था. 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से बलूचिस्तान का जिक्र कर इस मामले का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की कोशिश की. जब तक मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, तब तक भारत यह कहता आया था कि बलूचिस्तान के किसी भी मामले का भारत से रिश्ता नहीं है.
लेकिन अब नरेंद्र मोदी ने खुले रूप से मदद देने की बात कही है. इस बदलाव से भारत को फायदा होगा या नुकसान, इसका आकलन करना फिलहाल मुश्किल है, लेकिन ये बात जरूर है कि बलूचिस्तान के लोगों को राहत मिली है. पहली बार बलूचिस्तान की बात अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठी है.
संयुक्त राष्ट्र में बलूचिस्तान का मामला उठा. जनरल एसेंबली के दौरान बलूच लोगों ने प्रदर्शन कर दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा. यूरोपियन यूनियन से मदद का भरोसा मिला. फिलहाल, मामला ये है कि कई बलूच नेता भारत के प्रति आभार प्रकट कर रहे हैं. बलूचिस्तान का मामला क्या है, बलूचियों की मांग क्या है, उनकी परेशानी क्या है, वहां पाकिस्तान की सरकार, सेना और आईएसआई क्या करती है? यह समझना जरूरी है.
पाकिस्तान का सबसे बड़ा राज्य है बलूचिस्तान. यह पाकिस्तान के दक्षिण पश्चिम में स्थित है, जो दक्षिण में अरब सागर, पश्चिम में ईरान और उत्तर में अफ़ग़ानिस्तान की सीमा से सटा है. यह पाकिस्तान के क्षेत्रफल का 43 प्रतिशत है, लेकिन जनसंख्या के हिसाब से यहां पाकिस्तान की कुल जनसंख्या के स़िर्फ पांच प्रतिशत लोग ही रहते हैं. इसकी वजह यह है कि बलूचिस्तान का ज़्यादातर इलाक़ा पहाड़ और रेगिस्तान है. यहां पानी की कमी है, इसलिए जनसंख्या कम है. बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा है. यहां के मुख्य निवासी बलूच और पठान हैं.
बलूचिस्तान पाकिस्तान का सबसे ग़रीब और विकास की धारा से सबसे दूर है. इसी बदहाली का नतीजा है कि लोग पाकिस्तान की हु़कूमत को अपना नहीं मानते हैं. बलूचिस्तान में खनिज पदार्थों का भंडार है, लेकिन यहां के लोग ग़रीब हैं. इस राज्य की साक्षरता दर सबसे कम है. पाकिस्तान की सरकार बलूचिस्तान के लोगों को शिक्षा, रोज़गार, पीने का साफ पानी, स्वास्थ्य सेवा आदि ज़रूरत की चीज़ें मुहैया कराने में असफल रही है. लोग अपनी परेशानियों को लेकर आंदोलित हैं.
उनकी सुनने वाला कोई नहीं है, इसलिए आए दिन बलूचिस्तान से हिंसा की ख़बरें आती रहती हैं. जब भी लोग अपनी समस्याओं को लेकर आंदोलन करते हैं, तो पाकिस्तान की सरकार और एजेंसी इन्हें कभी आतंकवादी तो कभी भारत का एजेंट बताकर उनके ख़िलाफ़ सैनिक कार्रवाई करती है. बलूचिस्तान में हिंसा का एक और कारण है, अफ़ग़ानिस्तान से आए पश्तून शरणार्थी, जो यहां की डेमोग्राफी को बदल रहे हैं. इनमें कुछ ऐसे भी हैं, जो आतंकवादियों के समर्थक हैं. वास्तव में बलूची एक सेकुलर समुदाय है.
उनको लगता है कि धर्मनिरपेक्ष बलूच राष्ट्रवाद को ख़त्म करने के लिए एजेंडे के तहत इस्लामाबाद ने जानबूझ कर रिफ्यूजियों के लिए सीमा खोल दिया है. आज हालात ये है कि बलूचिस्तान सीधे तौर पर आईएसआई के अधीन है और वह यहां चल रहे आंदोलन को बाहरी ताक़तों की करतूत बता कर अपनी चाल चल रही है. पाकिस्तान की जनता को भ्रमित करने के लिए सरकार बलूचियों को भारत का एजेंट बताती है. इस दुष्प्रचार का असर पाकिस्तान की जनता पर भी दिखता है. यह पाकिस्तान की सामूहिक चेतना का हिस्सा बन चुका है, लेकिन बलूचिस्तान के लोगों की कहानी कुछ और ही है.
बलूचिस्तान के लोगों ने भारत के विभाजन का समर्थन नहीं किया था. यहां के लोग मानते हैं कि पाकिस्तान ने बंदूक की नोक पर बलूचिस्तान को छीन लिया और अपनी हु़कूमत स्थापित कर ली. बलूचिस्तान के लोगों ने आज़ादी से पहले जिन्ना से ज़्यादा गांधी जी और जवाहरलाल नेहरू को अपना नेता माना. आज भी उनकी आज़ादी के गीतों में भगत सिंह का नाम होता है.
विभाजन के बाद जब 1947 में भारत-पाकिस्तान में दंगे हो रहे थे, तब पाकिस्तान से हिंदू, सिख और ग़ैर-मुस्लिमों को भगाया जा रहा था. उस वक्त भी बलूचिस्तान अकेला ऐसा इलाक़ा था, जहां से किसी को भगाया नहीं गया, कोई क़त्लेआम नहीं हुआ. 1992 में जब हिंदू संगठनों ने भारत में बाबरी मस्जिद को गिरा कर देश को तोड़ने का काम किया, तो पाकिस्तान में इसकी जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई. पाकिस्तान के पंजाब में अधिकारियों की मदद से हिंदू मंदिरों को तोड़ा गया. उस दौरान भी बलूचिस्तान शांत रहा.
बलूचिस्तान में एक भी मंदिर पर हमला नहीं हुआ और न ही किसी हिंदू को क्षति पहुंची. ख़ैरबख्श मारी, अताउल्लाह ख़ान मेंगल, अकबर ख़ान बुग्ती जैसे कई बलूच नेताओं ने इस दौरान हिंदुओं और मंदिरों को अपने संरक्षण में ले लिया. इन नेताओं ने हिंदुओं को न स़िर्फ बचाया, बल्कि अपनी निगरानी में पूजा-पाठ भी कराया. बलूचियों और हिंदुओं की निकटता का गवाह है नवाब खान बुग्ती की हत्या. अगस्त 2006 में जब परवेज मुशर्रफ की सरकार ने एक सैनिक हमले में उनकी हत्या की, तो उनके साथ मरने वालों में कई हिंदू भी थे, जो उनके समर्थक थे.
बलूचिस्तान आंदोलन का इतिहास
बलूचिस्तान के निवासियों और पाकिस्तान की सरकार के बीच की यह तकरार नई नहीं है. 1947 से बलूचिस्तान में लोग आज़ादी की मांग कर रहे हैं. बलूच समुदाय शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहा है. बलूचिस्तान की प्राकृतिक संपदाओं और औद्योगीकरण से उनका फायदा नहीं हुआ है. इसका फायदा बाहर के लोग उठा रहे हैं. पंजाब और सिंध के लोगों के हितों की रक्षा के लिए सरकार यहां सैनिकों का जमावड़ा करती है और वक्त-बेवक्त उनका इस्तेमाल बलूचिस्तान की असहाय जनता पर करती है. पाकिस्तानी सेना के दमन के बावजूद बलूचियों की लड़ाई जारी है. 1947 से बलूचिस्तान का इतिहास पाकिस्तानी सेना और सरकार के दमन की कहानी है. बलूचिस्तान और पाकिस्तान के बीच चल रही लड़ाई के मुख्य बिंदु इस तरह हैं-
पहली लड़ाई (1948)
1947 में भारत के विभाजन के समय बलूचिस्तान पाकिस्तान में नहीं था. अप्रैल 1948 में पाकिस्तान सरकार ने सेना भेजी, जिसने मीर अहमद यार ख़ान को अपने राज्य को पाकिस्तान के हवाले करने को मजबूर कर दिया. उनके भाई प्रिंस अब्दुल करीम ख़ान ने पाकिस्तान सरकार के खिलाफ संघर्ष करने का फैसला किया. वह अफ़ग़ानिस्तान में रहकर पाकिस्तान की सेना के साथ गुरिल्ला युद्ध करते रहे. 16 मई 1948 को अब्दुल करीम ने एलान कर दिया कि वह बलूचिस्तान की आज़ादी के लिए आंदोलन करेंगे. उन्होंने बलूचिस्तान के बड़े राजनीतिक दलों का एक गठजोड़ बनाया. प्रिंस अब्दुल करीम ख़ान का संबंध न स़िर्फ वहां के शाही परिवार से था बल्कि वह मकरान राज्य के पूर्व गवर्नर भी थे.
दूसरी लड़ाई (1958-59)
जब प्रधानमंत्री चौधरी मोहम्मद अली ने पाकिस्तान में एक यूनिट की पॉलिसी का एलान किय, तो बलूचिस्तान में हंगामा मच गया. इस पॉलिसी के तहत पाकिस्तान का मक़सद संघीय ढांचे को ख़त्म कर चारों राज्यों को एक साथ मिलाना था. नवाब नवरोज ख़ान ने इस पॉलिसी के ख़िलाफ़ हथियार उठा लिया. उन्हें और उनके समर्थकों को देशद्रोह का दोषी बता कर पाकिस्तान की सरकार ने गिरफ़्तार कर लिया. उन्हें हैदराबाद जेल में डाल दिया गया. जब वे जेल में थे, तभी उनके परिवार के पांच सदस्यों को फांसी दे दी गई. इसके बाद जेल के अंदर ही नवाब नवरोज खान की मौत हो गई.
तीसरी लड़ाई (1963-69)
नवाब नवरोज ख़ान की मौत के बाद पाकिस्तान की सरकार ने बलूचिस्तान में सैनिकों को तैनात करना शुरू कर दिया. इसके विरोध में शेर मोहम्मद बिजरानी मारी ने गुरिल्ला युद्ध शुरू किया. इन लोगों ने रेलवे लाइन पर बमबारी की और कई सैनिक ठिकानों को अपना निशाना बनाया. पाकिस्तानी सेना ने इसका भयानक जवाब दिया और मारी जनजाति के कई इलाक़ों को तबाह कर दिया. इस युद्ध का नतीजा यह रहा कि याह्या ख़ान ने 1969 में एक यूनिट की पॉलिसी को ख़त्म कर दिया और बलूचियों के साथ शांति स्थापित की. इस पॉलिसी के ख़त्म होते ही बलूचिस्तान को नई पहचान मिली. आज यह पाकिस्तान का सबसे बड़ा राज्य है.
चौथी लड़ाई (1973-77)
1972 में राजनीतिक दलों ने फिर से एकजुटता दिखाई और पाकिस्तान की जुल्फिकार अली भुट्टो की सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू किया. उन्होंने सरकार में बलूच समुदाय की हिस्सेदारी का सवाल उठाया. इसके जवाब में पाकिस्तान सरकार ने वहां की सरकार गिरा दी, जिसके बाद बलूचिस्तान में हिंसा भड़क उठी. इस लड़ाई में आठ हज़ार से ज़्यादा बलूचियों की मौत हुई.
पांचवीं लड़ाई (2004) से अब तक
2005 में बलूच लीडर नवाब अकबर ख़ान बुग्ती और मीर बलाच मारी ने पाकिस्तान सरकार के सामने 15 प्वाइंट का एजेंडा रखा. इसमें बलूचिस्तान की प्राकृतिक संपदा, बलूचों की सुरक्षा और इला़के में सैनिक अड्डा बनाने पर रोक जैसे मुद्दे थे. सरकार ने इसे नज़रअंदाज़ कर दिया. पाकिस्तान सरकार के शोषण के ख़िलाफ़ बलूचिस्तान में फिर से आंदोलन शुरू हो गया.
पाकिस्तान सरकार ने राजनीतिक हल निकालने के बजाय बलप्रयोग किया. सैकड़ों राजनीतिक कार्यकर्ताओं, छात्रों, डॉक्टरों और नेताओं को बिना किसी ज़ुर्म के गिरफ़्तार कर लिया गया. इनमें से कई आज तक वापस लौट कर नहीं आए हैं. कई लोगों को जेल में भयंकर यातना दी गई, जिससे उनकी मौत हो गई. अगस्त 2006 को पाकिस्तानी सेना से लड़ते हुए नवाब अकबर ख़ान बुग्ती की मौत हो गई.
3 अप्रैल 2009 में बलूच नेशनल मूवमेंट के अध्यक्ष ग़ुलाम मोहम्मद बलूच और उनके साथी लाला मुनीर और शेर मोहम्मद को गिरफ़्तार कर लिया गया और पांच दिन बाद एक सुनसान जगह में उनकी लाशें मिलीं. उनकी लाशें गोलियों से छलनी थीं. बलूचिस्तान के लोग मानते हैं कि यह काम आईएसआई का है. अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों की कई रिपोर्ट में बलूचिस्तान में चल रहे दमन की कहानी मौजूद है.
आज जब दुनिया में इंटरनेट की वजह से संचार माध्यम में क्रांति हुई है, उसमें पाकिस्तान के झूठ को कोई मानने वाला नहीं है. पाकिस्तान की सेना आतंकवादियों को ख़त्म करने के नाम पर बलूचियों पर अत्याचार कर रही है. इंटरनेट पर ऐसी कई रिपोर्ट मौज़ूद हैं, जो पाकिस्तान की सेना की करतूत का पर्दाफाश करती हैं. हकीकत यह है कि बलूच आतंकवादी नहीं हैं.
वहां की समस्या आतंकवाद नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक है. जवान या बूढ़े, शहरी या ग्रामीण, पढ़े-लिखे या अनपढ़-सेकुलरिज़्म बलूचियों के ख़ून में है. यह बात भी सोचने वाली है कि इतनी ग़रीबी और पिछड़ेपन के बावजूद बलूच किसी जिहादी आतंकवादी संगठन के सदस्य नहीं बनते और न ही किसी बलूची का नाम भारत में आतंक फैलाने वालों की लिस्ट में है.
बलूच न तो अल-क़ायदा के समर्थक हैं और न ही तालिबान के. न ही आजतक कोई ऐसा उदाहरण है, जिसमें यूरोप या अमेरिका में पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकवादियों में कोई बलूच हो और आज तक कोई बलूच आत्मघाती आतंकवादी नहीं बना. हां, कुछ ऐसे उदाहरण ज़रूर हैं, जैसे कि डेनियल पर्ल की किडनैपिंग और हत्या, जिसमें येमेनी बलूच भी शामिल थे. यह उदाहरण एक अपवाद की तरह है, लेकिन साधारण तौर पर कहा जा सकता है कि बलूच जिहादी आतंकवाद के समर्थक नहीं हैं.
पाकिस्तान अगर बलूचिस्तान को भारत-पाकिस्तान के रिश्तों के बीच मोहरा बनाता है, तो आगे आने वाले दिनों में इसके भयानक परिणाम हो सकते हैं. यह बात भी तय है कि बलूचिस्तान में सेना और हथियारों के इस्तेमाल से शांति नहीं आने वाली है. पाकिस्तान को बलूचिस्तान में शांति के लिए सैनिकों को वापस बैरक में भेजना होगा.
बलूचियों को राजनीतिक और प्रजातांत्रिक अधिकार देने होंगे और उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी बलूच समुदाय के हाथों में ही देने की ज़रूरत होगी. साथ ही बलूचिस्तान में पाकिस्तान और विदेशी मीडिया पर लगे प्रतिबंधों को ख़त्म करने की ज़रूरत है, ताकि यहां की हक़ीक़त दुनिया के सामने आ सके. अगर ऐसा नहीं होता है, तो यह बलूचिस्तान के साथ अन्याय होगा. पाकिस्तान की सरकार को यह समझना चाहिए कि बंदूक के सहारे आतंकवादियों से तो लड़ा जा सकता है, लेकिन राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अधिकारों के लिए लड़ने वाली जनता का सामना टैंक से नहीं किया जा सकता.
अब तक पाकिस्तान बलूचिस्तान की समस्या के पीछे विदेशी ताक़तों को जिम्मेदार बताता रहा है. यह पाकिस्तान की नासमझी है, क्योंकि जैसे-जैसे दुनिया भर के देश बलूच आंदोलन को समर्थन देते जाएंगे, वैसे-वैसे पाकिस्तान की मुश्किलें बढ़ती जाएंगी. आतंकवाद के नाम पर बलूचियों के नरसंहार को रोकने में भारत की सरकार को अंतरराष्ट्रीय नियमों और क़ानूनों के तहत जो भी क़दम उठाए जा सकते हैं, उठाने चाहिए.