एक आंग्लिकन ईसाई राजतंत्र में रहता हूं, किसी धर्मनिरपेक्ष देश में नहीं. इस देश के हाउस ऑफ लॉर्ड्स में 26 बिशप हैं और प्रत्येक नया दिन आंग्लिकन प्रार्थना के साथ शुरू होता है. इसके बावजूद ऐसा मानता हूं कि मैं एक अच्छे सहिष्णु समाज में रहता हूं. देश में बहुत सारे ईसाई स्कूल चलाए जाते हैं. बहुत सारे सरकारी स्कूल भी चलाए जाते हैं, जो धर्मनिरपेक्ष हैं. इसके अलावा यूरोप के कई देशों में ईसाई प्रजातांत्रिक और ईसाई समाजवादी पार्टियां भी हैं. लेकिन, कोई भी उनके बारे में ऐसा नहीं सोचता कि वे धर्मनिरपेक्षता को कमजोर कर रही हैं.
भारत में काफी समय से अगर कोई शब्द सबसे ज़्यादा डराने वाला रहा है, तो वह है हिंदुत्व. भाजपा को लगातार हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी के रूप में व्याख्यायित किया जाता रहा है. ऐसा माना जाता है कि पार्टी की यह छवि लगभग प्रत्येक भारतीय के भीतर चिंता तो भर ही देती है. जब लोकसभा चुनाव चल रहे थे, उस दौरान नरेंद्र मोदी को ऐसा नेता बताया जा रहा था, जो देश में हिंदुत्व थोप देगा. हिटलर से उनकी तुलना अक्सर की जाती थी. इसका मतलब यह था कि अगर वह प्रधानमंत्री बन जाएंगे, तो देश से मुसलमानों को समाप्त कर देंगे. कई धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को ऐसा लगा था कि मुसलमानों ने उनकी इस कहानी पर विश्वास कर लिया है और चुनाव में वे उन्हें ही वोट देंगे. लेकिन, दु:खद रूप से ऐसा हुआ नहीं. एक आंकड़े के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में प्रत्येक पांच में से एक मुसलमान ने भाजपा को वोट दिया. गोवा में कैथोलिक चर्च ने लोगों से यह अपील की थी कि किसी धर्मनिरपेक्ष पार्टी को वोट दीजिए, लेकिन परिणाम कुछ और ही हुआ. शायद लोगों ने तय कर लिया था कि उनके लिए भाजपा ही धर्मनिरपेक्ष पार्टी है.
आख़िर यह हिंदुत्व क्या है? यह इतना ख़तरनाक क्यों है, जैसा कि आलोचक इसे बनाना चाहते हैं? मुझे लगता है कि यह कुछ हद तक स़िर्फ हिंदू जैसा महसूस करने का तरीका भर है, जैसे पंजाबी लोगों में पंजाबियत का के्रज होता है. अगर हम आज़ादी के आंदोलन के पहले जाएं, तो देखेंगे कि महात्मा गांधी ऐसा मानते थे कि अंबेडकर हिंदुत्व से दूर थे. यह बात गलत भी नहीं थी. सावरकर, जिन्होंने हिंदुत्व के बारे में लेख लिखा था, एक नास्तिक थे और भारत के लिए यूरोपीय स्टाइल में विकास के पक्षधर थे. गांधी के साथ 1909 में हुई उनकी बातचीत के फलस्वरूप ही गांधी ने हिंद स्वराज्य नामक किताब लिखी थी. आज़ादी के बाद नेहरू ने सावरकर का रास्ता ही अख्तियार किया था. उन्होंने भारत के विकास को यूरोपीय स्टाइल में करने की कोशिश की थी और गांधी के विचारों को किनारे रख दिया था.
राष्ट्रवाद 19वीं सदी का एक यूरोपीय विचार है. 1900 के आस-पास कुछ यूरोपीय देशों से यह विचार पनपा. इटली उनमें से एक था. सावरकर ने इतालवी क्रांतिकारी मत्जिनी की आत्मकथा भी लिखी थी. प्रथम विश्व युद्ध के बाद साम्राज्य ध्वस्त हुए और कई यूरोपीय देशों की सीमाएं जब एक बार फिर से निर्धारित होनी शुरू हुईं, तो यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि एक राष्ट्र की परिभाषा क्या होगी? पोलैंड, हंगरी एवं रोमानिया और अन्य देशों ने एक राष्ट्र का विचार तय किया. उसी समय राष्ट्र, नस्ल जैसे शब्द एकदम से हवा में गूंजने लगे थे. अगर भारतीय आज़ादी के आंदोलन की बात की जाए, तो कांग्रेस के गठन के शुरुआती कुछ दशकों तक भारतीय संभ्रांत समाज के लोग जब कांग्रेस के सम्मेलन में शरीक होते थे, तो वे बड़े ही सभ्य तरीके से अंग्रेजी हुकूमत से कुछ रियायतों की मांग किया करते थे.
देश में दयानंद सरस्वती के नेतृत्व में हिंदू पुनर्जागरण आंदोलन हुआ. इसके अलावा विवेकानंद ने अलख जगाई और थोड़े राजनीतिक तौर पर बाल गंगाधर तिलक ने भी इस दिशा में क़दम उठाए. उनका लक्ष्य लोगों में देशप्रेम की भावना जगाना था. वहीं मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वालों में लोकतंत्र को लेकर एक तरह का संशय था कि बहुसंख्यक उनकी उपेक्षा कर सकते हैं. मुसलमानों को उचित स्थान दिलाने के लिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच लखनऊ में समझौता हुआ, जिसमें जिन्ना ने महत्वपूर्ण किरदार अदा किया था. हिंदू-मुस्लिम गठजोड़ की चरम अवस्था ख़िलाफत आंदोलन के रूप में सामने आई, जिसे महात्मा गांधी ने शुरू किया था और चौरी चौरा कांड के बाद स्थगित कर दिया था. हिंदू-मुस्लिम एकता उसी के बाद से अपना रास्ता भटक गई. वहीं सावरकर भारतीय राष्ट्रवाद के लिए यूरोपीय स्टाइल पर भरोसा कर रहे थे. इसी तर्क के आधार पर उन्होंने भविष्य में बनने वाले देश के लिए हिंदुत्व को व्याख्यायित करना शुरू कर दिया. इस दौरान उन्होंने ऐसे कई लेख लिखे, जिनमें यह व्याख्या की गई थी कि हिंदू शब्द फारसी से न होकर सिंधु नदी का व्युत्पन्न है. इसमें संशय नहीं है कि उनके विचार के मुताबिक, मुसलमानों को भारत का हिस्सा तब तक नहीं माना जा सकता था, जब तक कि मुसलमान भारत को अपनी मातृभूमि न मान लें.
इन सब घटनाओं को घटित हुए काफी समय बीत चुका है. भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र बन चुका है. भाजपा का चुनावी इतिहास बताता है कि कोई भी पार्टी स़िर्फ हिंदुओं के मतों के जरिये पूर्ण बहुमत नहीं हासिल कर सकती. न राम मंदिर मुद्दे और न ही बाबरी मस्जिद के ध्वंस ने भाजपा को पूर्ण बहुमत दिया. इससे यह सिद्ध होता है कि किसी हिंदू विचारों वाली पार्टी के लिए भी राष्ट्रवाद की परिभाषा संपूर्णतावाद होना चाहिए. मेरी नज़र में शायद मोदी ने लोगों के सामने यही विचार रखा और लोगों ने उसे स्वीकार भी किया. अब देखने वाली बात यह होगी कि वह अपने वादों पर कितने खरे उतर पाते हैं.
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