SP-Singhएसपी हमेशा रिपोर्टरों को ध्यान में रखकर काम सौंपते थे. उन्हें कभी गलतफहमी नहीं हुई कि कौन, क्या काम कर सकता है. उनके द्वारा सौंपी रिपोर्ट की ज़िम्मेदारी हर संवाददाता ने बखूबी निभाई. केवल उदयन शर्मा और मुझमें अघोषित मुकाबला रहता था. मुझे लगता था कि उदयन का साथ एसपी अपनी मित्रता के कारण देते हैं, जबकि उदयन को लगता था कि एसपी अतिरिक्त ध्यान देकर मुझे उनके मुकाबले में खड़ा कर रहे हैं. उदयन हर रिपोर्ट पर झपट पड़ते थे तथा किसी के साथ बाइलाइन बांटना उन्हें पसंद नहीं था. ऐसी कई रिपोर्ट हैं, जिन पर पहली जानकारी से लेकर आख़िर तक काम मैंने किया, पर बाद में देखा कि उस पर नाम उदयन का छपा है और वह रिपोर्ट बदली हुई है. कई रिपोर्ट मैंने भेजी, छपीं, पर उसका एक हिस्सा उदयन से भी एसपी ने लिखवा लिया. तब बहुत अखरता था, पर बाद में समझ में आया कि यह एसपी की रणनीति ही नहीं, मुझे संवारने की कला भी थी. उन्हें पता था कि उदयन की सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि अधिक परिपक्व है तथा रिपोर्ट के छूट गए कुछ पहलू उदयन ही लिख सकते हैं. उदयन बड़े संवाददाता तो थे ही, उनमें रिपोर्ट करने का जुनून भी था. आज जब रविवार के पुराने अंक पलटता हूं, तो उदयन की रिपोर्ट पढ़कर सब कुछ याद आ जाता है.
एसपी हमेशा ध्यान रखते थे कि उनके संवाददाताओं की रिपोर्ट कैसे संवारी जाए. डेस्क की उनकी टीम हर रिपोर्ट को बहुत ही आलोचनात्मक दृष्टि से देखती थी तथा कभी-कभी उनका मजाक भी उड़ाती थी, पर एसपी अपने उप-संपादकों को हमेशा समझाते थे कि उनका यही बुनियादी दायित्व है कि वे रिपोर्ट की कमियों को, वाक्य विन्यास की गलतियों को दूर करके तथा तथ्यों में कुछ आवश्यक हो, तो जोड़-घटाकर रिपोर्ट को सर्वोत्तम बनाएं.
उप-संपादकों की अपनी पसंद-नापसंद थी, रिपोर्ट को लेकर भी और रिपोर्टर को लेकर भी. सुरेंद्र जी इसे जानते थे तथा हमेशा सावधान रहते थे कि डेस्क के पूर्वाग्रह का शिकार कहीं कोई संवाददाता न हो जाए. हम सभी उन दिनों डेस्क से डरे रहते थे, पर सुरेंद्र जी ने अपनी पूरी ताकत संवाददाताओं को न्याय दिलाने में लगाई. उनका मत था कि रिपोर्ट को धारदार बनाने में तथा उसे सजाने-संवारने में डेस्क का सबसे महत्वपूर्ण रोल होता है.
संवाददाता को हमेशा कुछ नया और अलग करने की वे प्रेरणा देते रहते थे. उन्होंने कभी किसी को इस बात के लिए निरुत्साहित नहीं किया कि उसने हल्का सुझाव क्यों दे दिया, बल्कि उसमें कुछ जोड़कर वे उस सुझाव को महत्वपूर्ण समाचार की भूमिका बना देते थे. वे अक्सर टारगेट दे देते थे और हम सब उसे पूरा करने में लग जाते थे. इसीलिए रविवार की रिपोर्ट हमेशा पाठकों को अलग तेवर वाली, नए रहस्य खोलने वाली और अपने पक्ष की लगीं. एसपी के लिए ख़बर ज़्यादा महत्वपूर्ण थी, लिखने की शैली को वे दूसरा स्थान देते थे. उनका मानना था कि शैली कमजोर हो, तो उसे ठीक कर सकते हैं, पर अगर ख़बर नहीं है, तो किसी भी तकनीक से ख़बर नहीं पैदा कर सकते.
एसपी ने जो पत्रकारिता शुरू की थी, उस पर प्रारंभ में पीत पत्रकारिता जैसे आरोप भी लगे. उन दिनों सब कुछ साहित्यिक भाषा में गोलमोल लिखने की आदत ज़्यादा थी, पर सुरेंद्र जी ने इसे तोड़ दिया. इसलिए साहित्य के बड़े लोगों को यह सब पसंद नहीं आया. पीत पत्रकारिता का मूल तत्व होता है, ब्लैकमेल और बेडरूम स्टोरी, जिसे रविवार ने कभी नहीं अपनाया. यह ठीक उसी तरह है, जैसे बंदूक से आप दुश्मनों और हमलावरों को मारें, तो आप बहादुर कहलाएंगे, पर यदि अपने दोस्तों और घरवालों को मारें, तो हत्यारे कहलाएंगे. इसमें दोष बंदूक की नहीं, उसे इस्तेमाल करने वाले की होती है. वैसे ही पत्रकारिता की कला का इस्तेमाल आप किसके लिए करते हैं, यह महत्वपूर्ण है. एसपी ने हमेशा पत्रकारिता के हथियार का इस्तेमाल सच के लिए करना सिखाया और निडर होकर करना सिखाया.
वह संक्रमण काल था. साहित्यकार ही पत्रकार होता था. एसपी ने सौम्य शब्दों में इस स्थिति की व्याख्या की थी. उनका कहना था, हिंदी में पीत पत्रकारिता पर मेरा यही मानना है कि पीत पत्रकारिता कोई नई बात नहीं है. हिंदी के जो गिने-चुने महान पत्रकार कहलाते हैं, उनके जमाने में भी घासलेटी साहित्य लिखा जाता था. यह मेरा शब्द नहीं है, दरअसल हिंदी के एक महान पत्रकार ने हिंदी के एक दूसरे महान पत्रकार की पत्रकारिता के लिए इन शब्दों का प्रयोग किया था. ये दोनों महान साहित्यकार थे. मतलब यही है कि एक-दूसरे की टांग खींचने की पत्रकारिता तो पहले भी होती थी. जब आप आम आदमी से संवाद करने जाएंगे, तो उस ऊंचाई पर बैठकर बात नहीं कर सकते, जिस ऊंचाई पर साहित्य, इतिहास अथवा दर्शन रचा जाता है. इसलिए थोड़ी-बहुत पीत पत्रकारिता तो होगी ही. जिस समाज में हम काम कर रहे हैं, जिस स्तर पर हम काम कर रहे हैं, ये उसके एबरेशंस हैं.
एसपी का मानना था कि पत्रकारिता और साहित्य को अलग होना ही चाहिए. उन्होंने ही इसकी पहल भी की. उनके शब्दों में, पत्रकारिता को मैं साहित्य हरगिज नहीं मानता. साहित्य और पत्रकारिता में जिन लोगों ने घालमेल कर रखा है, वे ही ऐसा कहते हैं, वरना पत्रकारिता और साहित्य दोनों अलग-अलग विधाएं हैं. कुछ हुए हैं महान साहित्यकार, जो महान पत्रकार भी थे, तो कुछ महान राजनीतिज्ञ भी महान पत्रकार हुए. गांधी जी बहुत बड़े पत्रकार थे. पत्रकारिता और साहित्य पर मैं एक बार फिर कहूंगा कि हिंदी पत्रकारिता और हिंदी साहित्य दोनों एक-दूसरे से स्वतंत्र अलग-अलग विधाएं हैं. मैं ऐसा नहीं मानता कि हिंदी साहित्य से अलग होकर हिंदी पत्रकारिता रसातल में जा रही है, बल्कि मुझे लगता है कि विकास की दृष्टि से यह समय हिंदी पत्रकारिता के लिए स्वर्णकाल है. हां, स्तर को लेकर जो चिंताएं हैं, वे ठीक हो जाएंगी.

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