मोदी सरकार 2.0 के दूसरे विस्तार में निहित संदेश को राजनीतिक प्रेक्षक अलग-अलग ढंग से पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। लुब्बो लुआब यही है कि चुनाव जीतना। चुनाव जीतना और उसके लिए हर संभव रणनीति बनाते रहना मोदी सरकार की हर गतिविधि की प्राथमिकता रही है। क्योंकि सत्ता है तो सब कुछ है। मंत्रिमंडल के इस विस्तार में भी तीन दूरगामी लक्ष्य दिखते हैं। पहला पिछड़ों और दलितों में अपनी पैठ बढ़ाकर उत्तर प्रदेश का अगले साल होने वाला विधानसभा जीतना, दूसरा, 2024 के लोकसभा चुनाव जीतने के लिए जातीय, क्षेत्रीय गुणाभाग के साथ अभी से तैयारी शुरू करना तथा तीसरा नेतृत्व की दूसरी पीढ़ी को तैयार करना। इसके अलावा अपनी ही पुरानी थ्योरी ‘मिनिमम गवर्मेंट, मेक्सिमम गवर्नेंस’ को खारिज कर, ‘मेक्सिमम गवर्मेंट’ की ओर लौटना, जोकि शायद देश की लोकतांत्रिक मजबूरी भी है।
एक बात साफ है कि देश के कई राज्यों में भाजपा ने पिछड़े वर्ग में अपनी गहरी पैठ बना ली है। इसका कारण हिंदुत्व के साथ साथ पहली बार प्रधानमंत्री के रूप में देश की सत्ता पिछड़ों के हाथ में होने का आत्म संतोष भी है। यानी जब तक मोदी पीएम है, देश में पिछड़े वर्ग का बड़ा तबका आम चुनावो में मोदी और प्रकारांतर से भाजपा के साथ ही खड़ा होगा। यही आजमाइश अब दलितों पर भी की जा रही है। ब्राह्मणवाद के तमाम विरोध और दलित प्रताड़ना की आए दिन होने वाली घटनाअों के बावजूद कई दलित जातियां भाजपा के साथ खड़ा होने में ज्यादा दिक्कत नहीं महसूस करतीं। उत्तर प्रदेश में इन दो वर्गो के मतदाताओ की संख्या काफी बड़ी है।
शायद इसीलिए मोदी मंत्रिमंडल में नए बने 43 मंत्रियों में 27 तो पिछड़े वर्ग से हैं, जो अलग-अलग 15 राज्यों से आते हैं। आठ राज्यों के 12 दलित चेहरों को मौका दिया गया है। मध्यप्रदेश से भी जिन दो चेहरों को लिया गया है, उनमें भी एक वीरेन्द्र खटीक दलित हैं। जबकि अल्पसंख्यक सिर्फ 5 हैं। एक और महत्वपूर्ण बात केन्द्रीय मंत्रिमंडल में महिलाओ का बड़ा प्रतिनिधित्व है। कुल 11 महिलाएं अब मंत्री हैं, जो कि देश की आधी आबादी को अच्छा संदेश दे सकती हैं। राज्यवार देखें तो यूपी से सर्वाधिक 7 मंत्री हैं। गुजरात, कर्नाटक से 5-5 और महाराष्ट्र व बंगाल से 4-4 मंत्री हैं। उत्तर प्रदेश और गुजरात में अगले साल ही विधानसभा चुनाव होने हैं।
मोदी मंत्रिमंडल के विस्तार में एक संदेश उन नेताओ के लिए भी है, जो अपनी पार्टियों में असंतुष्ट हैं और बाहर निकलने का बहाना खोज रहे हैं। राजनीतिक शब्दावली में इसे ‘दम घुटना’ कहा जाता है जबकि नई पार्टी में जाकर ताजे दम की आॅक्सीजन लेने को आम बोलचाल में ‘दलबदल’ कहा जाता है। इस मायने में वरिष्ठ भाजपा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने दूसरे दलों में ‘घुटते दम’ या ‘अन्याय झेलने’ वाले नेताओ को हारी बाजी जीतने की नई राह दिखाई है। क्योंकि विरोधी दलों का कमजोर होना भाजपा के लिए किसी न किसी रूप में फायदेमंद ही है। शायद इसीलिए पूर्व में असम गण परिषद से आए सर्वानंद सोनोवाल, शिवसेना से व्हाया कांग्रेस भाजपा में आए नारायण राणे और तृणमूल कांग्रेस से
बीजेपी में आए निशीथ प्रामाणिक को मंत्री पद से नवाजा गया है। यानी जो भाजपा में आएगा, उसका कल्याण होगा। अलबत्ता यही संदेश बीजेपी के उन निष्ठावान कार्यकर्ताओ व नेताओ के लिए नकारात्मक हो सकता है, जो दरी उठाने से लेकर सत्ता की पालकी उठाने का काम सालों से बिना उफ् किए कर रहे हैं, करते जा रहे हैं। लेकिन उनमें से उंगली पर गिनने लायक लोगों को ही सत्ता की मलाई मिल सकी है। तमाम समर्पण और अनुशासन का काढ़ा पीते रहने के बाद भी इनमे से बहुतों का दम पार्टी में इसलिए घुटने लगा है कि सत्ता का जो जाम उनके होठों से लगना था, वह गैरों के हाथों में शान से झूल रहा है। यानी आयातित नेताओ को चुनावी टिकट तो मिल ही रहे थे, अब सत्ता की कुर्सियां भी उनके नाम से पहले ही आरक्षित हो रही हैं। इस निराशा को यह तर्क देकर बहुत दिन तक नहीं दबाया जा सकता कि तुम्हें कुछ न मिला तो क्या हुआ, सरकार तो अपनी है।
एक अहम बात मोदी मंत्रिमंडल के युवा होने की कही जा रही है। 77 सदस्यीय मंत्रिमंडल की औसत आयु 58 साल हो गई है, जो पहले 61 वर्ष थी। नई स्थिति में सबसे बूढ़े मंत्री वाणिज्य उद्दयोग राज्यमंत्री सोमप्रकाश हैं, जो 72 साल के हैं। जबकि पुराने मंत्रिमंडल के 60 पार के 13 सदस्यों को चलता कर दिया गया है, जिनमें संतोष गंगवार 72 साल के थे। इसे अगर कोई फार्मूला मानें तो स्वयं नरेन्द्र मोदी भी इसके दायरे में होंगे, क्योंकि वो भी अब 71 साल के हैं।
हालांकि मंत्रिमंडल के युवा या वृद्ध होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है उनका परफार्मेंस। मंत्री कितनी मेहनत और लगन से काम करते हैं और देश के विकास तथा पार्टी को फिर से सत्ता में लौटाने के लिए खुद को कितना झोंकते हैं। कहा जा रहा है कि रविशंकर प्रसाद, प्रकाश जावड़ेकर, डाॅ.हर्षवर्द्धन, रमेश पोखरियाल जैसे हैवीवेट मंत्रियो की कुर्सी अपेक्षित रिजल्ट न दे पाने के कारण गई। यानी पिछली मोदी कैबिनेट के 22 फीसदी मंत्री नाॅनपरफार्मर साबित हुए।
अंदरखाने लोगों का यह भी कहना है की दिल्ली में असल मंत्रिमंडल तो प्रधानमंत्री कार्यालय ही है। उसके बाद कोई सबसे ताकतवर मंत्री हैं तो वो हैं गृह मंत्री अमित शाह। थोड़ा बहुत दम नितिन गडकरी भी दिखा देते हैं। बाकी तो नामलेवा हैं। ऐसी स्थिति में नए मंत्री भी क्या अलग करेंगे, यह देखने की बात है। यूं प्रधानमंत्री किसी को किसी भी विभाग की जिम्मेदारी सौंपने में संकोच नहीं करते। सबसे आश्चर्यजनक किरण रिजीजू का देश का कानून मंत्री बनना है। अमूमन बहुत वरिष्ठ वकील-राजनेताअों को यह जिम्मा सौंपा जाता है। क्योंकि वे विधि-विधायी के बारीक जानकार होते हैं। लेकिन रिजीजू को पद संभालते ही यह सफाई देनी पड़ी कि उनके पास भी एलएलबी की डिग्री है। ऐसा तब भी हुआ था, जब मोदी 1.0 में बारहवीं पास स्मृति ईरानी को उच्च शिक्षा से जुड़े शिक्षा मंत्रालय (तब मानव संसाधन मंत्रालय) का दायित्व दिया गया था। जल्द ही यह विभाग उनसे वापस लेना पड़ा। बहरहाल इसे मोदीजी की प्रयोगधर्मिता ही मानना चाहिए।
इस मंत्रिमंडल विस्तार की सबसे अहम बात है मोदी सरकार का अपने इस नारे ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मेंक्सिमम गवर्नेंस’ से किनारा कर लेना। पहली बार देश का प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा था कि मैं केवल कामचलाऊ सरकार नहीं चाहता। मेरा फोकस इस ‘न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन’ पर रहेगा। इसी के तहत मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में पहली बार 57 मंत्री ही बनाए गए थे, जिनकी संख्या बढ़कर अब 77 हो गई है। परफार्मेंस के अलावा कुछ मंत्रियों के पास काम का बोझ ज्यादा था, उसे भी हल्का किया गया है। तो क्या अब मोदी सरकार ‘मेक्सिमम गवर्नमेंट, मेक्सिमम गवर्नेंस’ की राह पर लौट रही है? पहले की सरकारें भी तो यही करती थीं। वैसे भी चुनाव केवल मंत्रियों की संख्या घटाने- बढ़ाने, युवा या बूढ़े होने से नहीं जीते जाते।
वो कितनी दक्षता और जिम्मेदारी से अपना काम करते हैं, यह अहम है। आम जनता का परसेप्शन तय करता है कि कोई सरकार ठीक से और जन अपेक्षा के अनुरूप काम कर रही है या नहीं। कुछ भावनात्मक मुद्दे इस वस्तुनिष्ठ सोच पर हावी हो सकते हैं, लेकिन हवाबाजी हमेशा नहीं चलती। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के सवा दो साल बीत चुके हैं। अगर तीसरी बार सत्ता में लौटना है तो कुछ ठोस और जनआश्वस्तिकारक काम करने होंगे। वरना कोविड ने माहौल काफी खराब किया है। आर्थिक बदहाली और रोजगार आज सबसे बड़ा संकट है। इसकी गाड़ी पटरी पर न आई तो हालात बदतर होंगे। सरकार इससे कैसे निपटती है, इस पर देश और दुनिया का भी ध्यान है। मंत्रिमंडल विस्तार में चुनावी जीत की उम्मीदों के साथ यह गंभीर चुनौती भी छिपी है।