महंगाई के ऊपर प्रतिक्रियाएं आनी बंद हो गई हैं, शायद महंगाई कम हो गई है या फिर महंगाई के ऊपर राजनीति करने वालों का वार्षिक कर्तव्य समाप्त हो गया है. एक दिन का भारत बंद और इस बंद में भाजपा से लेकर वामपंथियों तक का शामिल होना तथा यह दावा करना कि इसे आम आदमी का समर्थन प्राप्त है, एक आंशिक सच्चाई है. सुबह की शुरुआत शरद यादव और लालकृष्ण आडवाणी के बयानों से हुई कि पिछले बीस सालों में यह पहली बार हुआ है, मगर शाम ए बी वर्धन के गुस्से से हुई, जिसमें उन्होंने कहा कि कहां है भाजपा, कैसी है भाजपा. आम आदमी कहीं छला गया है. उसे लगा था कि महंगाई को ही लेकर सही, राजनैतिक दल सरकार पर दबाव डालने के लिए अपने विचारात्मक मतभेदों को समाप्त कर साथ तो आए हैं. शायद सरकार पर दबाव बढ़े और वह महंगाई कम करने के रास्ते तलाशे. लेकिन अब लगता है कि महंगाई का विरोध भी एक प्रतीकात्मक विरोध था, उसमें गंभीरता नहीं थी.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सन बयानवे में वित्तमंत्री पद पर आने के बाद संसद में अपना प्रसिद्ध भाषण दिया था कि नई आर्थिक नीतियों की वजह से दो हज़ार दस में बिजली पर्याप्त हो जाएगी, सड़कें बन जाएंगी, चिकित्सा व शिक्षा का नया ढांचा खड़ा हो जाएगा तथा ग़रीबी बहुत हद तक दूर हो जाएगी. विकास की रफ्तार तेज़ हो जाएगी, जिससे देश महाशक्ति बन जाएगा. आज उसी दो हज़ार दस में हम हैं. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को हम कहना चाहते हैं कि वह अपना भाषण एक बार फिर पढ़ें और हमें बताएं कि यह सब क्यों नहीं हो पाया.
सरकार से कुछ कहना व्यर्थ है, क्योंकि सरकार की नज़र में आम आदमी अब कहीं है ही नहीं. कल्याणकारी सरकार की समाजवादी अवधारणा अब समाप्त हो चुकी है. संविधान में व्यर्थ ही लिखा है और अब हमें प्रतीक्षा करनी चाहिए कि जल्दी ही संविधान संशोधन आएगा और संविधान में लिखा समाजवादी समाज का संकल्प समाप्त कर दिया जाएगा. अब सरकार की पहली प्राथमिकता बाज़ार और भारत के पैसे वाले हैं, जिनके लिए वह अपनी नीतियां बना रही है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सन बयानवे में वित्तमंत्री पद पर आने के बाद संसद में अपना प्रसिद्ध भाषण दिया था कि नई आर्थिक नीतियों की वजह से दो हज़ार दस में बिजली पर्याप्त हो जाएगी, सड़कें बन जाएंगी, चिकित्सा व शिक्षा का नया ढांचा खड़ा हो जाएगा तथा ग़रीबी बहुत हद तक दूर हो जाएगी. विकास की रफ्तार तेज़ हो जाएगी, जिससे देश महाशक्ति बन जाएगा. आज उसी दो हज़ार दस में हम हैं. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को हम कहना चाहते हैं कि वह अपना भाषण एक बार फिर पढ़ें और हमें बताएं कि यह सब क्यों नहीं हो पाया.
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल ने एक बार अच्छे राजनीतिज्ञ की परिभाषा बताई थी कि अच्छा राजनीतिज्ञ वही है, जो भविष्यवाणी करे और बाद में उसे पूरा न होने के कारणों के बारे में भी उसी तार्किकता के साथ बताए. मनमोहन सिंह शायद चर्चिल के ज़्यादा योग्य मानने वालों में हैं, क्योंकि वह कभी इसे बताएंगे ही नहीं. भारत सरकार की ऐसी ही एक और घोषणा है कि दो हज़ार पंद्रह तक देश से बालश्रम और बाल दासता समाप्त हो जाएगी. पांच साल बाद हम देखेंगे कि समस्या और विकराल हो गई है और सरकार का दावा या वादा क्यों पूरा नहीं हो पाया, इसे हम कभी जान
नहीं पाएंगे.
सरकार ने अपना रास्ता तय कर लिया है और बता दिया है कि वह बाज़ार के नियमों की तरह देश को चलाएगी, जिसमें अस्सी करोड़ लोग बंधुआ मज़दूर की तरह ज़िंदा रहेंगे, लेकिन भारत के राजनैतिक दलों को क्या हुआ है. हर चीज़ का ढांचा, चाहे वह शिक्षा का हो, स्वास्थ्य का हो या विकास का हो, टूटा पड़ा है. महंगाई ऐसा सवाल बनकर सामने आई है, जिसे लेकर विरोधी दल जनता के बीच जा सकते थे तथा उसे नई राजनैतिक पहल के लिए तैयार कर सकते थे. आज जनता को समझाने की ज़रूरत है कि उसके लिए कैसी राजनैतिक व्यवस्था चाहिए. एक दिन के विरोध और फिर बिखराव ने बता दिया है कि महंगाई के सवाल पर विरोधी दलों में गंभीरता नहीं है. शायद संसद के सत्र में एक दिन या दो दिन शोर हो कि महंगाई बहुत बढ़ गई है, उसके बाद फिर ख़ामोशी छा जाएगी. लोकसभा में चिंता तो सभी व्यक्त करेंगे, लेकिन कारवाई के लिए साथ मिलकर कभी दबाव नहीं डालेंगे.
एक दिन के बंद में रेलें ज़बरदस्ती रोकी गईं, सड़कें बंद की गईं और कई जगहों पर ग़रीबों का सामान ग़रीबों ने ही लूट लिया. इस बंद ने नक्सलवादियों को तार्किक समर्थन दे दिया तथा उनके रेल बंद करने को लेकर अब किस मुंह से राजनैतिक दल उनकी आलोचना करेंगे. जिन इलाक़ों में नक्सलवादी चार से पांच दिन का बंद करते हैं, वहां की रिपोर्टें नहीं छपतीं, क्योंकि वहां बंद कामयाब होता है. जनता के लिए सरकार और विपक्षी दल बिल्कुल एक तरह से व्यवहार कर रहे हैं. सरकार लोकतांत्रिक ढंग से कही गई बात नहीं सुनती और दूसरी ओर विपक्षी दल लोकतांत्रिक ढंग से विरोध नहीं करते. दोनों अपने कामों से देश की जनता में यह संदेश भेज रहे हैं कि नक्सलवादी विचार के लोग ही ज़्यादा सही हैं. इससे नक्सलवादी विचारधारा का सपोर्ट बेस मध्यम वर्ग में तैयार हो रहा है. आज इसकी चिंता न सरकार को है और न विरोधी दलों को. लेकिन दो हज़ार चौदह का चुनाव ऐसे नतीजे देगा, जो सीख के रूप में हमेशा सामने रहेंगे.
महंगाई जैसे सवालों पर ध्यान हटाने के लिए सरकार का साथ विरोधी दल भी दे रहे हैं. अमेरिका में हेडली बंद है, जिसके बारे में दावा किया जा रहा है कि मुंबई हमलों का वह बड़ा साज़िश करने वाला रहा है. हमारी नई बनी सुरक्षा एजेंसी एनआईए के अफसर उससे पूछताछ करने अमेरिका गए. कुछ दिन रहने के बाद वे वापस आ गए. अचानक देश के कुछ अख़बारों में ख़बर छपी कि इशरतजहां आत्मघाती हमलावर थी, जो नरेंद्र मोदी को मारने गई थी. ये कौन अफसर हैं, जो अमेरिका से आने के बाद मीडिया में ख़बरें लीक कर रहे हैं. फिर ख़बर लीक करनी थी तो मुंबई हमलों के बारे में लीक करनी थी, जिससे पता चलता कि हमारे अफसरों को पूछताछ करनी आती भी है या नहीं. उन्हें आने के बाद प्रेस कांफे्रंस करनी चाहिए थी, पर हुआ उल्टा. उन्होंने तो नरेंद्र मोदी और उनके अफसर बंजारा को क्लीन चिट देने का पहला काम किया.
गृहमंत्री चिदंबरम का मैनेजमेंट लगता है अब सही रास्ते पर है. ख़बरें पहले भी आ रही थीं कि कांग्रेस के भीतर भी एक संघ लॉबी है, अब वह हक़ीक़त बनती दिखाई दे रही है. हेडली का नाम लेकर 26/11 की हक़ीक़त कभी नहीं बताई जाएगी, पर गुजरात के उन अफसरों के पक्ष में माहौल तैयार करने का काम होगा, जिन पर देश का सर्वोच्च न्यायालय भी शक करता है. इसे मनमोहन सिंह और चिदंबरम के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के एनआईए के अफसर कर रहे हैं. चिदंबरम को चाहिए कि अमेरिका जाने वाली टीम के नामों का खुलासा करें और उनसे कहें कि वे देश के प्रेस के सामने आकर हेडली से पूछताछ का पूरा ब्योरा दें. उन्हें देश के सामने अपना फर्ज़ निभाना है, न कि संघ का एजेंडा पूरा करने में अपनी क्षमता लगानी चाहिए.