टिशु नैपकिन
कैन्टीन में कॉफी पीते हुए
वहाँ टेबुल पर रखे
टिशु नैपकिन पर तुम
अपने बॉलपेन से
अक्सर मेरा स्कैच बनाया करती थी;
तब मैं तुम्हारी कोख में पड़ा
तुम्हारी बेतरतीब ड्राइंग देखकर
खूब हंसता था…
मेरे जन्म पर, मुझे अपने
स्कैच जैसा असामान्य पाकर
तुम हो गयी निराश
और टिशु नैपकिन की तरह
वहीं छोड़ गई
मुझे ऐबस्ट्रेक्ट पीस ऑफ आर्ट समझ कर,
घर तो ले जाती…
शायद…
कभी तुम्हें समझ में आ जाता मै…
— पूनम सूद
कइसन हो रामचन्द्र???
माथे पर चिंता की रेखा
सिमेटे भूख और प्यास
अन्न उपजाये वाला कृषि
बैठा सिर पर रखे हाथ
एक दाँव बाढ़ बाटे
अगले भयो रे सूखा
अरे रामचन्द्र तोसे काहे राम रुठा?
कर्ज लेकर करी बुआई
बिन जल बिजली
कइसन होय सिंचाई
बड़न ऊंच संग प्रीत लगावे
हम संग सावन करत ढिठायी
तकदीर का दामन छूटा
अरे रामचन्द्र तोसे काहे राम रुठा?
घर मा बाटे मक्खीमच्छर
बाहिर भेड़ियन का डर
पा न सकिहें नींद तनिक भी
नाही चैन पल भर
नेता कहिन सब्र से काम लो
हमहू लागिन सब झूठा
अरे रामचन्द्र तोसे काहे राम रुठा?
बीमारी ने पसारे पाँव
चपेट में लीना सारा गाँव
न दवा, न आहार
नाष भया पशुअन, पइसा, व्यापार
आभाव ने छीन लीना सौहार्द प्यार
कइसन मुसीबत का पहाड़ टूटा
अरे रामचन्द्र तोसे काहे राम रुठा?
कर्ज पड़ा जस का तस
ब्याज बढ़त जात है
रोटी के टुकड़े खातिर
घर का बच्चा, बड़़ा बिलबिलात है
दम तोड़ती माँ, तन मन तोड़ती महरारु
गरीबी ने अन्धकार को लूटा
अरे रामचन्द्र तोसे काहे राम रुठा?
अब नाहिं अपनन की पीड़ा देखत जात है
बंद रस्ता मा कहाँ मंजिल सुझात है
मूंद लई आँखई जग से तो
समझिओ झगड़ा समाप्त हई
आपन खेल खत्म करे का यह
कइसन विचार मन मा फूटा
अरे रामचन्द्र- तू क्यों राम से रुठा?
तू क्यों राम से रुठा?
— पूनम सूद
ताले
ताले अकसर फुला लेते हैं मुँह
देख अनजान चाबियाँ
हठीली भाभीयों सी चाबियाँ
कहाँ हटती हैं छेड़खानी से…
खुल जाता है ताले का दिल
किसी एक ताली के रास आने से
जैसे खुश हो जाता है प्रियतम
प्रयसी के पास आ जाने से…
कुछ गलत चाबियों से भी
खुल जाती हैं अलमारियाँ
कुछ नाजायज़ रिश्ते बना कर
लूट ली जाती हैं जन्मों की पूँजियाँ
विज्ञान की तरक्की भी
कहाँ बचा पाती हैं ख़जाने
रोक पाते हैं भला कब पहरेदार
काल के मुख में जाती हुई जानें
ताले जाते हैं खुशी से खुल
अपने मन मेल खाती चाबी से
नहीं तो जाते हैं रुठ और
तोड़कर खोलना पड़ता है उन्हें
मेरे अकेले मकान के द्वार पर
लटका अकेला प्रौढ़ उम्र का ताला
अपनी हमउम्र ताली के स्पर्श आभास से ही
इतमिनान से जाता है खुल
ऐसा ही इतमिनान था मुझे
जब इस मकान में रहती थी वो
जिसके स्पर्श मात्र से
यह मकान बन गया था घर।
कितने उत्साह से इस द्वार पर लगाकर ताला
हम निकलते थे घूमने और
फिर हँसी खुशी खोल इस ताले को
घर में करते थे प्रवेश…।
आज इस ताले को बंद करने में
मेरी अधेड़ उम्र आड़े नहीं आती
पर काँप जाती हैं उंगलियाँ
वापिस अपने मकान में आकर
खोलने में यही ताला
जहाँ दफ़न है अंधेरों में
ख़जाना तुम्हारे स्पर्श का…।
–पूनम सूद