हिंदुत्व की विचारधारा का अधिक प्रचार-प्रसार उच्च जाति, खास तौर पर ब्राह्मणों द्वारा किया जाता है. इस बात पर कोई बहस नहीं होती कि निम्न जाति के लोग पौराणिक कथाओं और ब्राह्मणवादी दर्शनशास्त्र पर क्या सोच रखते हैं. ज्योतिबा फुले पहले आधुनिक लेखक थे, जिन्होंने तीखे ब्राह्मणवाद विरोधी विचार व्यक्त किए. डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर ब्राह्मणवादी आध्यात्मिकता के दिखावे के विरोध में लगातार आलोचनात्मक लेख लिखते रहे. भगवद्गीता पर उनकी आलोचना पढ़ने के बाद आपको पता चलेगा कि ब्राह्मणवाद के इस महान ग्रंथ को पिछड़ी जाति के लोग कितने अलग तरीके से देखते हैं.
ईसाई प्रार्थना की एक पंक्ति है कि जब एक भी पापी या गुनहगार प्रायश्चित करता है, तो स्वर्ग में खुशी मनाई जाती है. हालांकि, विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) शायद ऐसी संस्था नहीं है, जिसे ईसाई-गुनहगार दायरे में दाखिल किया जा सके, लेकिन अच्छी खबर यह है कि वीएचपी ने प्रायश्चित कर लिया है. आ़िखरकार उसने पता लगा लिया है कि शायद छुआछूत ही वह वजह थी, जिसके चलते दलितों ने सनातन धर्म छोड़कर अधिक समतावादी धर्म अपना लिए. और, अब भला कोई क्यों घर वापसी करेगा, जबकि उसे पता है कि उस घर में उसके साथ बुरा सुलूक किया जाएगा? इसमें हैरानी की कोई बात नहीं कि बहुत सारे दलितों ने हिंदू धर्म त्याग दिया. दरअसल, हैरानी की बात यह है कि उनकी बड़ी संख्या ने हिंदू धर्म नहीं छोड़ा. हिंदू राष्ट्रवाद के समर्थकों की सोच में एक बुनियादी गड़बड़ी है. हमसे बार-बार कहा जाता है कि हिंदू धर्म इतना सहिष्णु है कि धर्मनिरपेक्षता इसकी आत्मा में समाहित है. आपको धर्मनिरपेक्ष भारत और हिंदू भारत में भेद करने की आवश्यकता नहीं है. यह सहिष्णुता एक मिथ्या ज़रूर है, लेकिन हक़ीक़त से बहुत दूर भी नहीं है.
दरअसल, हिंदू धर्म सहिष्णु हो सकता है, लेकिन हिंदू समाज असहिष्णु और भेदभावपूर्ण है. अद्वैतवाद की प्रशंसा तो की जा सकती है, लेकिन शूद्र और अति-शूद्र के लिए जो अवमानना का भाव है, उसका सामंजस्य आप एक सार्वभौमिक ब्राह्मण व्यवस्था के साथ कैसे स्थापित करेंगे? हिंदू समाज अपनी बहुसंख्यक आबादी के साथ दुर्व्यवहार करता रहा है. यहां तक कि भगवद्गीता भी इस पूर्वाग्रह को रेखांकित करती है, जहां वह दो उच्च वर्णों की तुलना वैश्य और शूद्र वर्णों के सांसारिक पात्रों से करती है (अध्याय 18, श्लोक 41-48). वेदों एवं उपनिषदों की तमाम आध्यात्मिकता और महत्व के बावजूद, यह एक अभेद्य तथ्य है कि दलित पुरुषों से साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था. दलित महिलाओं के साथ तो उससे भी बदतर व्यवहार किया जाता था, उन्हें एक वासना की वस्तु समझा जाता था. शूद्र कभी अच्छा कर ही नहीं सकते थे. बहुजन (बहुमत) हिंदू समाज में नुक़सान उठाने वाले लोग थे.हिंदुत्व की विचारधारा का अधिक प्रचार-प्रसार उच्च जाति, खास तौर पर ब्राह्मणों द्वारा किया जाता है. इस बात पर कोई बहस नहीं होती कि निम्न जाति के लोग पौराणिक कथाओं और ब्राह्मणवादी दर्शनशास्त्र पर क्या सोच रखते हैं.
हिंदू धर्म सहिष्णु हो सकता है, लेकिन हिंदू समाज असहिष्णु और भेदभावपूर्ण है. अद्वैतवाद की प्रशंसा तो की जा सकती है, लेकिन शूद्र और अति-शूद्र के लिए जो अवमानना का भाव है, उसका सामंजस्य आप एक सार्वभौमिक ब्राह्मण व्यवस्था के साथ कैसे स्थापित करेंगे? हिंदू समाज अपनी बहुसंख्यक आबादी के साथ दुर्व्यवहार करता रहा है. यहां तक कि भगवद्गीता भी इस पूर्वाग्रह को रेखांकित करती है, जहां वह दो उच्च वर्णों की तुलना वैश्य और शूद्र वर्णों के सांसारिक पात्रों से करती है (अध्याय 18, श्लोक 41-48).
ज्योतिबा फुले पहले आधुनिक लेखक थे, जिन्होंने तीखे ब्राह्मणवाद विरोधी विचार व्यक्त किए. डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर ब्राह्मणवादी आध्यात्मिकता के दिखावे के विरोध में लगातार आलोचनात्मक लेख लिखते रहे. भगवद्गीता पर उनकी आलोचना पढ़ने के बाद आपको पता चलेगा कि ब्राह्मणवाद के इस महान ग्रंथ को पिछड़ी जाति के लोग कितने अलग तरीके से देखते हैं. अंबेडकर ने जाति और ब्राह्मणवाद के खिला़फ अनथक लड़ाई लड़ी. जीवन के आ़िखरी पड़ाव पर उन्होंने अपने हिंदू साथियों को उनके समाज की खामियां बताना छोड़ दिया और खुद अपने समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया.
महात्मा गांधी ने भी हिंदू समाज को छुआछूत की बुराइयों का एहसास दिलाने का हर संभव प्रयास किया. वह स्वतंत्रता संग्राम में हिंदू जनसमर्थन का बंटवारा छुआछूत के मुद्दे पर नहीं चाहते थे. जबकि अंबेडकर इसे मुद्दा बनाना चाहते थे. इसके बावजूद वह सवर्णों को छुआछूत ख़त्म करने के लिए राजी नहीं कर पाए. दूसरे लोगों ने हरिजन सेवा के नाम पर केवल दिखावा ही किया, क्योंकि दलितों का शोषण जारी रहा और उनकी अवमानना भी होती रही. स्वतंत्रता के 67 वर्षों बाद भी भारत में अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति को आरक्षण मिल रहा है. इसकी वजह यह है कि इस संबंध में हिंदू समाज ने न तो अपने अंदर सुधार किया और न आत्मग्लानि महसूस की. हिंदू समाज इस मामले में सौभाग्यशाली है कि 600 सालों तक के मुस्लिम शासनकाल में जाति व्यवस्था ज्यों की त्यों बनी रही. उन्होंने दलितों का धर्मांतरण करवाया. लेकिन पूरे मुस्लिम शासनकाल के दौरान हिंदू समाज अक्षत बच गया. उसके बाद अंग्रेजों ने वह काम किया, जो धर्मांतरण से भी बदतर था. उन्होंने जाति की परवाह किए बिना सबको आधुनिक शिक्षा में प्रवेश देना शुरू कर दिया.
एक ऐसे समाज में, जहां शिक्षा पर केवल दो ऊंची जातियों का एकाधिकार माना जाता था, वहां यह एक क्रांतिकारी क़दम था. कोई श्याम कृष्ण वर्मा कभी संस्कृत का विद्वान न बन पता और न कोई मोहनदास कर्मचंद गांधी कभी बैरिस्टर बन पाते, अगर अंग्रेज आधुनिक शिक्षा और आधुनिक विचार अपने साथ न लाए होते. दरअसल, शिक्षा ने हिंदू समाज को ईसाइयत से अधिक चुनौती दी. दक्षिण भारतीयों ने इस क्रांति का अधिक लाभ उठाया. जस्टिस पार्टी द्वारा शुरू किए गए ब्राह्मण विरोधी आंदोलन और उसके बाद पेरियार के द्रविड़ आंदोलन ने दक्षिण भारत को उत्तर भारत से बिल्कुल अलग कर दिया. उत्तर के राज्य अभी भी अपने भूत से चिपके हुए हैं. दरअसल, यही वे बीमारू राज्य हैं, जो हिंदुत्व के गढ़ हैं. दक्षिण भारत ने मानव विकास सूचकांक पर उत्तर भारत को पीछे छोड़ दिया है. जाति व्यवस्था हिंदू समाज को बांटती है. विश्व हिंदू परिषद हिंदू राष्ट्र के सपने देख रही है, लेकिन हिंदू होने का मतलब है विभाजित और खंडित होना. और, यही वह चीज़ है, जो भारत को विश्व हिंदू परिषद से बचा लेगी.