दरभंगा के बाबूद्दीन और मुजीबुर्रहमान के हौसले को सलाम
साल 1982 की बात है. बिहार के दरभंगा से रोजी-रोटी की तलाश में 16 साल का बाबूद्दीन हजार किलोमीटर दूर मेरठ आ गया था. मेरठ के हाशिमपुरा मोहल्ले में हथकरघा का काम होता है. बाबूद्दीन को अपने साथी मुजीबुर्रहमान के साथ हथकरघा चलाने का काम मिल गया. मुजीबुर्रहमान भी तब 15 साल का था और दरभंगा से ही काम की तलाश में यहां पहुंचा था. मजे से दोनों अपना काम कर रहे थे, लेकिन, 22 मई 1987 का दिन इन दोनों प्रवासी मजदूरों के जीवन में काला दिन बन कर आया था. 2 बजे दिन में बाबूद्दीन अपने घर में बैठे थे. अचानक पुलिस पहुंची. तलाशी के नाम पर सबको बाहर लाया गया. उसके बाद मुख्य सड़क पर, जहां पहले से ही करीब 300 लोग जमा किए गए थे, इन्हें लाया गया. रात 8 बजे करीब 50 लोगों के साथ बाबूद्दीन को एक पीली ट्रक पर बिठा कर पीएसी वाले मुरादनगर ले गए. वहां गंगनहर के पास ट्रक रोक दी गई. एक-एक आदमी को ट्रक से उतार कर पीएसी के जवानों ने गोली मारी और लाश को गंगनहर में फेंक दिया. उसके बाद वो ट्रक गाजियाबाद की ओर चल दी और हिंडन के किनारे रूकी. बाबूद्दीन को भी दो गोली लगी थी. उसे दो जवानों ने पकड़ कर और आश्वस्त होकर कि वह मर चुका है, हिंडन नदी में फेंक दिया. और भी कई लोगों को हिंडन नदी में फेंका गया. इस संवाददाता से बात करते हुए बाबूद्दीन बताते हैं कि पानी में कई घंटे रहने के बाद मुझे होश आया, जहां गाजियाबाद पुलिस का कोई अधिकारी पहुंचा और मुझे अपने साथ लेकर लिंक रोड थाने गया, एफआईआर दर्ज करवाई और फिर नरेंद्र मोहन अस्पताल में मुझे भर्ती करवाया. (वह अधिकारी तत्कालीन गाजियाबाद पुलिस कप्तान वी एन राय थे). इस तरह, हाशिमपुरा हत्याकांड में सबसे पहली एफआईआर बाबूद्दीन अंसारी के नाम से ही दर्ज हुई थी.
अब कल्पना कीजिए कि एक गरीब नौजवान, जो बिहार के दरभंगा से मजदूरी करने मेरठ आया हो और उसके साथ ऐसा हादसा हो जाए, तो वह क्या करेगा. जाहिर है, इतना कुछ होने के बाद भी वो कम से कम ऐसी जगह पर रहने की हिम्मत तो नहीं ही जुटा पाएगा, लेकिन उस हौसले को सलाम, जिसकी वजह से बाबूद्दीन न सिर्फ28 साल से हाशिमपुरा में रह रहे हैं, बल्कि अपने लिए और हाशिमपुरा के अन्य पीड़ितों के लिए न्याय की लड़ाई भी लड़ रहे हैं. हर एक सुनवाई पर वह गवाही देने के लिए दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट जरूर पहुंचते थे. एक गरीब प्रवासी मजदूर निचली अदालत के इस फैसले के बाद भी (जिसमें सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया है) अपना हौसला बनाए रखे हुए है और आगे लड़ाई लड़ते रहने की बात करता है. गौरतलब है कि बाबूद्दीन को आज तक सरकार से मुआवजा के तौर पर एक भी पैसा नहीं मिला है, क्योंकि दो गोली खाने के बाद भी वो जिंदा बच गया था, लेकिन बाबूद्दीन अन्य पीडितों को मुआवजा मिले, इसके लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा है.
इसी तरह की कहानी बाबूद्दीन के साथी मुजीबुर्रहमान की भी है. रहमान भी दरभंगा से हाशिमपुरा पावरलूम का काम करने आया था. तब उसकी उम्र 16 साल थी. उस हत्यारे पीले ट्रक में वह भी था. गंग नहर के पास लाइन में खडा कर पीएसी ने इसे भी दो गोली मारी थी और नहर में फेंक दिया था. इस गोलीकांड में इसके चाचा मो. अजीम की मौत तत्काल हो गई थी, लेकिन सौभाग्य से रहमान जिंदा बच गया. यहां से पुलिस वाले उसे मुरादनगर थाने ले गए और एफ आई आर दर्ज हुई. इस तरह हाशिमपुरा हत्याकांड में दूसरी एफआईआर मुजीबुर्रहमान के नाम से दर्ज हुई. संवाददाता ने बातचीत के दौरान बाबूद्दीन अंसारी और मुजीबुर्रहमान का जो आत्मविश्वास देखा, वह किसी भी तथाकथित पढ़े-लिखे, समझदार इंसान से अधिक था. शायद यह मौत की मुंह से निकलने के बाद का आत्मविश्वास और हौसला है, जिसके बाद आपको न कोई डरा सकता है, न झुका सकता है. तभी तो, मुफलिसी की जिंदगी जीने के बाद भी इन दोनों ने मानो ये ठान लिया है कि हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा.
दर्द, जो आंखों से झलकता है
गली नंबर 4 का मकान नंबर 2. इसके पहली मंजिल पर रहती है अंजुम, 70 वर्षीय उनकी सास नसीबन, उनकी पांच बेटियां और दो बेटे. अंजुम के दोनों बेटे की दिमागी हालत ठीक नहीं है. नसीबन का एक बेटा और अंजुम के पति सलीम 2013 में आत्महत्या कर चुके हैं. नसीबन के पति जमील अहमद और छोटा बेटा मो. नसीम 22 मई की उस काली रात पीएसी की गोली के शिकार हो चुके हैं. यानी, इस परिवार में कोई भी ऐसा पुरुष नहीं है, जो अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी कमा सके. इसलिए अंजुम खुद स्वर्गीय पति की हार्डवेयर की दुकान को संभालती हैं.
अंजुम की शादी सलीम से 1989 में, यानी उस गोलीकांड के ठीक दो साल बाद हुई थी, जिसमें उसके ससुर और देवर को अपनी जान गंवानी पड़ी थी. अंजुम बताती हैं कि मेरे पति को भी पीएसी वाले पकड़ कर ले गए थे, लेकिन उन्हें बाद में छोड़ दिया गया था, लेकिन उस गोलीकांड में अपने पिता और भाई को खोने के गम ने सलीम को बुरी तरह झझकोर दिया था. उन्हें शराब की लत पड गई और काफी तनाव में जीने लगे. अदालती कार्यवाही और प्रक्रिया से उब कर सलीम ने 2013 में आत्महत्या कर ली, लेकिन अंजुम के हौसले की दाद देनी चाहिए कि इतना सब कुछ होने और सहने के बाद भी वह बहुत ही हिम्मत दिखाते हुए कहती हैं कि हम इस लड़ाई को छोड़ेंगे नहीं, बल्कि आगे भी लड़ेंगे. अंजुम अपनी कमाई का कुछ हिस्सा इस केस को लड़ने में भी खर्च करती हैं. वह कहती हैं कि मुझे नहीं मालूम कि सरकार की तरफ से क्या किया गया, लेकिन इतना मालूम है कि फैसला गलत आया है, लेकिन उम्मीद भी है कि न्याय मिलेगा, जरूरत सिर्फलड़ाई लड़ते रहने की है.
सत्तर साल की एक बूढ़ी औरत से आखिर ये तो नहीं ही पूछा जा सकता कि अदालत के इस फैसले के बाद आपको कैसा महसूस हो रहा है?
सत्तर साल की नसीबन जो भी बोलती हैं, वो समझ में नहीं आता, लेकिन उनका दुख उनके शब्दों से नहीं, उनकी आंखों और उनके चेहरे से साफ झलकता है. टूटे-फूटे शब्दों में नसीबन बताती हैं कि जब पुलिस मेरे पति की लाश लेकर आई, तो मुझे सिर्फउनके पैर देखने को मिले. अपने शौहर और बेटे की फोटो हाथ में लेकर जब वह फोटो खिंचवाने के लिए खाट पर बैठती हैं, तो लगता है कि शायद अब भी इस बूढ़ी औरत को यकीन है कि उसे इंसाफ मिलेगा. एक पत्रकार होने के नाते मैं और मेरे साथी कमर तबरेज बड़ी मुश्किल से उनसे सवाल पूछने की हिम्मत जुटा पाते हैं. इसलिए, क्योंकि किसी के 28 साल पुराने जख्मों को कुरेदने पर जो दर्द रिसता है, उसे देखने के लिए बहुत बड़ी हिम्मत चाहिए. सत्तर साल की एक बूढ़ी औरत से आखिर यह तो नहीं ही पूछा जा सकता कि अदालत के इस फैसले के बाद आपको कैसा महसूस हो रहा है?