supreme courtसंविधान हमें देश का नागरिक होने के नाते कई अधिकार देता है, उन अधिकारों को सुरक्षित रखने का जिम्मा देश के सर्वोच्च न्यायालय का होता है. लेकिन जब देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले से देश का नागरिक लोकतंत्र में भागीदारी यानी चुनाव लड़ने के अधिकार से सिर्फ इसलिए वंचित हो जाता है, क्योंकि उसके पास चुनाव लड़ने के लिए आवश्यक शैक्षणिक योग्यता नहीं है

उसके पास शौचालय नहीं है तो क्या यह निर्णय भारतवर्ष की वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक स्थिति के अनुरूप है, वह भी तब, जब देश की सत्तर प्रतिशत आबादी दो डॉलर कम से कम आमदनी में जीवनयापन करने को मजबूर है, क्या यह निर्णय उन लाखों बेघरों के पक्ष में है, जो सीधे तौर पर दलितों और वंचितों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदार बनाने की जगह उन्हें वोटों की गिनती में परिवर्तित करना चाहती है.

साल 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की 0.15 प्रतिशत आबादी यानी लगभग 18 लाख लोगों के पास घर नहीं है. ऐसे में हरियाणा सरकार ने पंचायती राज कानून में संशोधन करके चुनाव लड़ने के लिए घर में शौचालय होना अनिवार्य कर दिया है. इसके अलावा हर वर्ग के लिए अलग-अलग शैक्षणिक योग्यता का निर्धारण भी इस कानून के तहत किया गया है. 2011 की जनगणना के अनुसार ही देश के घरविहीन लोगों में से 39.2 प्रतिशत शिक्षित हैं. घर न होने के कारण वे चुनाव नहीं लड़ सकते हैं.

ऐसे में ये लोग लोकतांत्रिक प्रणाली की मुख्यधारा से दूर हो जाते हैं और यह फैसला सीधे तौर पर उन्हें देश के दोयम दर्जे के नागरिक में तब्दील कर देता है. ऐसे में देश की सर्वोच्च अदालत राज्य सरकार के फैसले पर अपनी मुहर लगा दे तो सवाल पैदा होता है कि उन लोगों का क्या होगा, जो पैसा और संसाधन नहीं होने की वजह से पढ़ाई और शौचालय की सुविधा से वंचित रह गए हैं. घरविहीन लोगों में से 0.10 प्रतिशत आबादी ग्रामीण और 0.25 शहरी हैं. अकेले हरियाणा की कुल आबादी का 2.93 लोगों के पास घर नहीं है. इन आंकड़ों से यह बात साफ है कि हरियाणा सरकार के पंचायत चुनाव लड़ने के लिए अर्हता के प्रावधान तर्कसंगत नहीं हैं.

73वें संविधान संशोधन से लाए गए पंचायती राज कानून के अंतर्गत राज्यों के पास अपने-अपने राज्यों में पंचायत चुनावों के लिए अर्हता निर्धारित करने की छूट है. इसी के अंतर्गत हरियाणा की भाजपा सरकार ने 11 अगस्त, 2015 को पंचायती राज कानून में संशोधन कर पंचायत चुनाव लड़ने के लिए 4 शर्तें लगाई थीं. राज्य सरकार के नए नियमों के मुताबिक, सामान्य वर्ग के लिए दसवीं पास, दलित और महिला के लिए पांचवी पास होना जरूरी है. इसके अलावा बिजली बिल के बकाया न होने, बैंक का लोन न चुकाने वाले और गंभीर अपराधों में चार्जशीट होने वाले लोग भी चुनाव नहीं लड़ पाएंगे.

हालांकि एक जनहित याचिका के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में सरकार के इस फैसले को चुनौती दी गई थी. इसी याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने 10 दिसंबर, 2015 को अपना फैसला सुनाया और राज्य सरकार के फैसले को हरी झंडी दिखा दी. सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि हरियाणा सरकार ने पंचायत चुनाव लड़ने को लेकर जो नया कानून बनाया है, वह सही है. अदालत यह भी कहती है कि नया कानून किसी मौलिक अधिकार को खत्म नहीं करता. हालांकि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने हरियाणा सरकार से पूछा कि वह बताए कि नए नियमों के मुताबिक कितने लोग पंचायत चुनाव नहीं लड़ पाएंगे.

सर्वोच्च न्यायालय ने हरियाणा में टॉयलेट और स्कूलों की संख्या की भी जानकारी मांगी थी. हरियाणा की ओर से अदालत में पेश हुए अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने बताया कि नए नियमों के मुताबिक, 43 फीसदी लोग चुनाव नहीं लड़ पाएंगे. उन्होंने अदालत को यह भी बताया कि राज्य के 84 फीसदी घरों में टॉयलेट हैं, जबकि 20 हजार स्कूल हैं. हालांकि याचिकाकर्ता ने सरकार पर गलत आंकड़े पेश करने का आरोप लगाया और बताया कि हकीकत में यह संख्या 43 फीसद नहीं, बल्कि 64 फीसद है और अगर दलित महिलाओं की बात करें तो यह संख्या 83 फीसद तक पहुंच जाती है.

उन्होंने दावा किया कि सरकार ने जो आंकड़े दिए हैं, वह प्राथमिक शिक्षा के आधार पर दिया है. यह भी कहा गया कि सरकार ने घरों की संख्या 2012 के आधार पर दी है, जबकि शौचालय की संख्या आज के आधार पर. इसी तरह राज्य सरकार ने 20 हजार स्कूलों में प्राइवेट स्कूलों की भी गिनती की हैै, जबकि हकीकत यह है कि राज्य में दसवीं के लिए सिर्फ 3200 स्कूल हैं, यानी राज्य के लगभग आधे गांवों में दसवीं तक के स्कूल तक नहीं हैं.

अब सवाल यह उठता है कि ऐसे लोग, जिनके पास न शिक्षा है और न ही शौचालय ऐसे लोग कहां जाएंगे, इन लोगों का प्रतिनिधित्व कौन करेगा? सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में वोट का अधिकार और चुनाव लड़ने के अधिकार को तवज्जो दी है, लेकिन हाल के फैसले से अन्य संवैधानिक अधिकार प्रभावित होते हैं. ध्यान देने योग्य बात यह है कि देश की संविधान सभा ने विधायकों और सांसदों की शिक्षा के बारे में कोई संवैधानिक प्रतिबन्ध नहीं लगाया था. ऐसे में हरियाणा या राजस्थान की पंचायतों के चुनाव पर संविधान में संशोधन के बिना किसी भी तरह का प्रतिबंध कितना मायने रखता है?

एक बात और कि सर्वोच्च न्यायालय ने 1978 में यह निर्णय दिया था कि देश के सामान्य व्यक्ति को भी प्रधानमंत्री बनने का हक है. ऐसे में हरियाणा सरकार के फरमान को सही माना जाए तो अयोग्य व्यक्ति पंच भी नहीं बन सकता, लेकिन विधायक और सांसद बनकर प्रदेश और देश का कानून बना सकता है, जो कि हास्यास्पद है. गौर करने वाली बात यह भी है कि 60 प्रतिशत आबादी को शिक्षा तथा शौचालय के आधार पर शासन प्रक्रिया से प्रतिबन्धित करना संविधान के अनुच्छेद-14, 19 एवं 21 का उल्लघंन है.

क्या हमारे देश में कोर्ट का यह फैसला कानूनी मदद से देश में उन लोगों के लिए सत्ता काबिज करने का रास्ता नहीं खोल देगा, जिन लोगों के पास पैसा और पढ़ने-लिखने की सुविधा है. हमारे देश के सरकारी आंकड़ों के हिसाब से बहुत बड़ी संख्या स्कूलों में जाती ही नहीं है. बहुत बड़ी संख्या में पांचवीं के बाद बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं. उससे भी बड़ी संख्या में बच्चे छठी-सातवीं के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं, क्योंकि उनके पास जीविका के साधन नहीं हैं. गरीब आदमी अपने बच्चे को स्कूल से इसलिए निकाल लेता है, क्योंकि वह चाहता है कि उसके परिवार की आय में वृद्धि हो सके. शिक्षा का अधिकार केवल 14 वर्ष की उम्र तक या कहें माध्यमिक शिक्षा तक ही यह अधिकार देता है, लेकिन जो प्रावधान हरियाणा के कानून में हैं, वे इस कानून के पूरक नहीं हैं.

पहले सरकार 10वीं तक की शिक्षा की गारंटी दे, उसके बाद शिक्षा की अनिवार्यता लागू करे तो सबकुछ ठीक है, लेकिन हकीकत यह है कि साक्षर और शिक्षित होने में जमीन-आसमान का फर्क है. यदि देश की व्यवस्था को चलाने का जिम्मा डिग्री होल्डर के पास है तो सारी ताकत देश के पचास प्रतिशत लोगों के बीच केंद्रित हो जाएगी. देश की आधी आबादी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से दूर हो जाएगी, देश एक बार फिर दो ध्रुवों में बंट जाएगा. धीरे-धीरे देश में उनका शासन हो जाएगा, जिनके पास कुछ है. जिनके पास कुछ नहीं है, वो सत्ता से दूर हो जाएंगे और वंचित की श्रेणी में आकर वो अपना हिस्सा हासिल करने के लिए हिंसक आंदोलन कर सकते हैं.

हमारे देश की सर्वोच्च अदालत आदर्श स्थिति को सामने रखकर के फैसले करती है, लेकिन देश की वास्तविकता को नज़रअंदाज कर देती है. देश में आज भी अशिक्षा है, लोगों के पास दो वक्त की रोटी नहीं है और कई तरह की सामाजिक समस्याएं हैं, दूसरी तरफ सरकारें अपना काम सही तरीके से नहीं कर रही हैं, इसी वजह से कदम कदम पर अदालतों को विधायिका के काम में दखल देना पड़ता है. यदि सरकारें देश के सभी गांवों का एक समान विकास पूरी जिम्मेदारी से करतीं तो उच्चतम न्यायालय के इस फैसले पर सवाल नहीं उठते.

यदि हरियाणा में पंचायत चुनाव में मापदंड जारी हुए हैं तो यह कैसे हो सकता है कि आने वाले समय में विधानसभा और लोकसभा के लिए कोई मापदंड जारी न हो. यदि उनके लिए कोई मापदंड जारी होते हैं तो जाहिर है कि वह 10वीं से निश्चित रूप से अधिक होगा. इसका मतलब आप देश की 70 प्रतिशत जनता को शासन की प्रक्रिया से सीधे तौर पर बाहर कर देंगे.

ऐसा न हो कि इतिहास में कोर्ट के इस फैसले को आम आदमी, कमजोर आदमी, गरीब आदमी की लोकतंत्र में भागीदारी को समाप्त करने की दिशा में उठाए गए कदम के रूप में जाना जाए. ये देश या लोकतंत्र हर उस व्यक्ति के लिए है, जो इस देश में पैदा हुआ है या लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखता है और लोकतंत्र में विश्वास रखने का पहला लक्षण वोट देना है. जो व्यक्ति वोट दे सकता है, वह इस देश का प्रधानमंत्री भी बन सकता है. चाहे वो पढ़ा-लिखा हो या न हो. इस देश को अब तक बहुत से पढ़े-लिखे लोगों ने बर्बाद किया है.

जिसकी वजह से यह देश विकास और नई आर्थिक व्यवस्था के दुष्चक्र में फंस चुका है. संपूर्ण देश की सत्ता का एकाधिकार सौंपेंगे तो आप विश्वास कीजिए कि राजसत्ता के खिलाफ बहुत सी ऐसी ताकतें खड़ी हो जाएंगी, जो संघर्ष का बिगुल बजाने लगेंगी. इसे रोकने की जरूरत जितनी आपकी और हमारी है, उतनी ही सरकार की है और उतनी ही सुप्रीम कोर्ट की है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट पर अभी देश के लोगों का भरोसा है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा सरकार के जिस फैसले को उचित ठहराया है, उसे अपने फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए.  – (राजीव रंजन और नवीन चौहान)

यह निर्णय देश की वास्तविकताओं से परे हैः के सी त्यागी

गांव में अगर अशिक्षा है तो यह किसकी गलती है. आजादी के  68 साल हो गए हैं तो यह शासक वर्ग की गलती है. देश का बहुत बड़ा हिस्सा है, जिसके पास शौचालय नहीं है, आदिवासियों में आप जाइए, दूरस्थ इलाकों में जाइए, समाज के जो पिछड़े वर्ग हैं, वहां किसी के यहां टॉयलेट नहीं है. सभी खुले में शौच जाते हैं. आप फिनलैंड की बात कर रहे हैं, जर्मनी की कर रहे हैं, अमेरिका की कर रहे हैं. आप अपने देश की बात कीजिए. यहां की जो जरूरतें हैं, यहां की जो आवश्यकताएं हैं, उसके आधार पर निर्णय लीजिए. यहां कुछ पढ़े-लिखे लोग मिलेंगे, कुछ बिना पढ़े मिलेंगे, कुछ कम पढ़े-लिखे मिलेंगे.

लेकिन कुछ बिना पढ़े लोगों के पास जीवन के  बड़े अनुभव मिलेंगे. गांव में जो पंचायती व्यवस्था है, वहां सामूहिक विवेक (कलेक्टिव विजडम) के आधार पर जो निर्णय होते हैं, वे संभ्रांत लोगों से ज्यादा अच्छे और ज्यादा व्यवहारिक होते हैं. पढ़े होने से कढ़ा होना ज्यादा बेहतर है. यदि गांवों में शौचालय नहीं हैं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है. यह सब जो हो रहा है, यह संभ्रात लोगों का स्वांग है और जो समाज के कमजोर तबके हैं, जो लोग अभी पिछड़े हैं, जिनके पास घर नहीं हैं, यह उनके  साथ एक बुरा मजाक है. यह निर्णय देश की वास्तविकताओं से परे है, उनका हकीकत से कोई वास्ता नहीं है. हमारी पार्टी चाहती है कि चुनाव लड़ने में इस तरह की कोई पाबंदी नहीं होनी चाहिए. हमने संसद में इस मुद्दे को उठाया है और आगे भी उठाते रहेंगे.

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