लोकसभा के चुनाव ख़त्म होने के बाद तमाम राजनीतिक दल अपनी हार और जीत की समीक्षा करने में जुट गए हैं. इस कड़ी में एक विश्लेषण जनता दल यूनाइटेड में भी हो रहा है कि लोकसभा चुनाव से लेकर मांझी सरकार बनने तक के सफ़र में आख़िर हार नीतीश कुमार की हुई है या फिर शरद यादव की. ऐसे में सवाल यह है कि क्या कभी राजग के संयोजक रहे शरद यादव राजनीतिक हाशिए पर पहुंच गए हैं? क्या हालात वाकई ऐसे हो गए हैं कि राज्यसभा की महज एक सीट के लिए शरद यादव कोई भी समझौता करने को तैयार हो गए हैं. लोकसभा चुनाव में टिकट वितरण से लेकर प्रचार अभियान और फिर क़रारी हार के बाद मांझी सरकार बनने तक शरद यादव की पसंद और नापसंद को लेकर नीतीश कुमार के रवैये से यह समझा जा सकता है कि जनता दल यूनाइटेड में शरद यादव की राजनीतिक हैसियत अब क्या रह गई है. वैसे यह बात भी सार्वजनिक हो चुकी है कि शरद यादव मधेपुरा से लोेेेकसभा चुनाव लड़ना नहीं चाहते थे. ख़राब सेहत का हवाला देकर वह शरद पवार की तरह राज्यसभा में जाना चाहते थे, लेकिन नीतीश कुमार ने उनकी इस मंशा पर पानी फेर दिया. नीतीश का साफ़ कहना था कि इससे पार्टी के चुनावी संभावनाओं पर बुरा असर पड़ेगा और अगर आप (शरद) मधेपुरा से चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं, तो उसके बदले नालंदा से चुनाव लड़ सकते हैं. ख़बरों के मुताबिक़, शरद यादव नालंदा से चुनाव लड़ने को तैयार भी हो गए थे, लेकिन उनके समर्थकों ने उन्हें समझाया कि अगर आप नालंदा से जीत भी गए तो संदेश यह जाएगा कि आप नीतीश की कृपा से दिल्ली पहुंचे हैं. उसके बाद शरद यादव ने मधेपुरा से ही चुनाव लड़ने का फैसला किया. शरद यादव ने चुनाव प्रचार में अपनी पूरी ताक़त झोंक दी थी. शरद इस बात से नाराज़ थे कि नीतीश कुमार उनसे 100 गज की दूरी पर कैंप कर प्रचार अभियान की बागडोर संभाले हुए थे. ऑफ द रिकार्ड जदयू के कुछ नेता बताते हैं कि शरद यादव को यह बात नागवार गुजर रही थी कि मेरे रहते नीतीश कुमार को यहां कैंप करने की क्या ज़रूरत थी. ख़ैर चुनावी नतीजे आए औक शरद को राजद के पप्पू यादव के हाथों हार का सामना करना पड़ा. शरद की नाराजगी टिकट वितरण को लेकर भी है. ख़बरों के मुताबिक़, शरद अपने लोगों के लिए कई टिकट चाह रहे थे, लेकिन उन्हें सिर्फ दो टिकट ही मिले. एक खगड़िया के लिए और दूसरा सीतामढ़ी के लिए. खगड़िया से दिनेश चंद्र यादव और सीतामढ़ी से अर्जुन राय को जदयू ने टिकट दिया था. इन दो टिकटों के अलावा, नीतीष कुमार ने शरद यादव की कोई बात नहीं मानी. बताया जा रहा है कि चुनाव नतीजे आने के बाद शरद यादव काफ़ी गुस्से में थे. नीतीश कुमार ने फोेन पर शरद यादव से अपने इस्ती़फे के संबंध में बात की तो, शरद यादव ने कहा कि वह पटना आ रहे हैं और इस मामले में आमने-सामने बात होगी. पटना में शरद यादव ने नीतीश कुमार को इस्तीफ़ा देने को कहा. अब बात नए नेता के चयन की थी. शरद यादव अपने विश्वासी नरेंद्र नारायण यादव को मुख्यमंत्री बनाने पर अड़ गए. बात धीरे-धीरे फैली तो विधायकों का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया. विधायक दल की बैठक में शरद यादव को तरह-तरह की बातें सुननी पड़ी. शरद को यहां तक कहा गया कि विधायक दल की बैठक में शरद यादव का क्या काम है? अपनी स्थिति कमज़ोर देख शरद यादव नरेंद्र सिंह को आगे कर दबाव की राजनीति करने लगे. दो दर्जन से अधिक विधायकों की बैठक में नरेंद्र सिंह ने साफ़ किया कि फ़िलहाल नीतीश कुमार का साथ देने में ही भलाई है. बताया जाता है कि नीतीश कुमार से उनकी बात भी हो गई थी. अपने लिए राज्यसभा की सीट और बेटे के लिए मंत्री पद पर वह मान गए और विरोध और दबाव की सारी राजनीति जहां थी, वहीं ठहर गई.
हालांकि नरेंद्र सिंह कहते हैं कि इस संबंध में कोई डील नहीं हुई है. उनके मुताबिक़, नीतीश कुमार हमारे नेता हैं और आगे भी रहेंगे. महादलित समाज के एक नेता को मुख्यमंत्री बनाकर नीतीश कुमार ने यह साबित कर दिया कि महादलितों के लिए उनके दिल में कितना प्रेम है. बाजी पलटती देख शरद यादव भी समझौते के मूड में आ गए और बताया जाता है कि राज्यसभा की एक सीट शरद को देने की बात हुई है, लेकिन सूत्र बताते हैं कि नीतीश कुमार अब शरद यादव को ज़्यादा भाव देने के मूड में नहीं हैं. सियासी जानकारों के मुताबिक़, नीतीश का प्लान यह है कि वह ख़ुद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनेंगे और राज्यसभा में जाकर दिल्ली की राजनीति करेंगे. फ़िलहाल मुख्यमंत्री बनने में उनकी कोई इच्छा नहीं है. नीतीश चाहते हैं कि देश की सभी धर्मनिरपेक्ष ताक़तों को एकजुट कर नरेंद्र मोदी का रास्ता रोका जाए. अगर नीतीश कुमार ने अपने इस प्लान पर अमल किया, तो शरद यादव का राज्यसभा में जाना भी मुश्किल हो जाएगा. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि शरद यादव के लिए अब वापसी की संभावनाएं काफ़ी कम हैं. नीतीश की कृपा से वह कुछ हासिल कर पाए, तो यह बड़ी बात है. वरना, बिहार में उनकी सियासी हैसियत न के बराबर रह गई है.
इस्तीफ़ा देकर पार्टी को मज़बूत करें मंत्री: सिंह
मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के शपथ ग्रहण करने के बाद ऐसा लग रहा था कि जनता दल यूनाइटेड में फ़िलहाल सब कुछ ठीक है, लेकिन अगले ही दिन जनता दल यूनाइटेड के विधान पार्षद विनोद कुमार सिंह ने एक धमाका कर दिया. विनोद सिंह ने साफ़ कहा कि पुराने लोगों को दोबारा मंत्री बनाने से जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच अच्छा संदेश नहीं गया. सिंह के अनुसार, यह अजीब बात है कि जिन मंत्रियों ने खुलेआम पार्टी के ख़िलाफ़ काम किया उन्हें दोबारा मंत्री बना दिया गया. उन्होंने कहा कि इससे पार्टी में अनुशासनहीनता को बढ़ावा मिलेगा. उनके अनुसार, जिस तरह हमारे नेता नीतीश कुमार ने नैतिकता के आधार पर इस्तीफ़ा दिया, ठीक उसी तरह सभी मंत्रियों को भी इस्तीफ़ा देकर संगठन के काम में लग जाना चाहिए. विधानसभा चुनाव नज़दीक हैं और सभी मंत्री अनुभवी हैं, इसलिए अगर ये सभी इस्तीफ़ा देकर संगठन के काम में लगते हैं, तो इससे पार्टी का काफ़ी भला होगा. विनोद सिंह के मुताबिक़, नए लोगों को मंत्री बनाया जाना चाहिए, ताकि सरकार के कामकाज में गतिशीलता आए. उन्होंने कहा कि मंत्री बनने की कोई इच्छा उनमें नहीं है, लेकिन मेरी यह इच्छा ज़रूर है कि जदयू मज़बूत हो और प्रदेश की सत्ता पर वह निरंतर काबिज रहे. विनोद सिंह कहते हैं कि बड़े नेताओं को कार्यकर्ताओं के लिए एक उदाहरण पेश करना चाहिए. हद तो तब हो गई, जब किसी एक मंत्री ने भी यह नहीं कहा कि उन्हें दोबारा मंत्री न बनाया जाए. कुछ मंत्री तो पार्टी विरोधी गतिविधियों में भी शामिल रहे, बावजूद इसके उन्हें मंत्री पद से नहीं हटाया गया.
नमो लहर में पार हुई सभी की नैया
मगध के चुनाव में इस बार सभी राजनीतिक समीकरण चकनाचूर हो गए. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में भी लाल झंडे को मात देकर भगवा झंडे ने अपना परचम लहराया. इससे यह सिद्ध हो गया कि वोट की मार ज़्यादा असरदार होती है. यहां की चार लोकसभा सीटों में से तीन पर भाजपा तथा एक पर रालोसपा ने जीत हासिल की. रालोसपा एनडीए का घटक है. अगर देखा जाए तो गया, जहानाबाद, औरंगाबाद और नवादा लोकसभा क्षेत्रों में नरेंद्र मोदी की लहर ने भाजपा गठबंधन के प्रत्याशियों की नैया पार लगाई, जबकि पूरे मगध में राजद-कांग्रेस गठबंधन मजबूत माना जाता था. यादव और मुस्लिमों को राजद-कांग्रेस का वोट बैंक कहकर यह माना जा रहा था कि गठबंधन यहां मजबूत है, लेकिन युवाओं ने सभी समीकरणों को ध्वस्त कर दिया. इस वर्ग में नरेंद्र मोदी के प्रति सकारात्मक झुकाव क्षेत्र में काफ़ी असर डाला.
1977 से इतिहास रहा है कि मगध क्षेत्र देश और राज्य के चुनाव में हवा के रुख़ के साथ रहा है. इस बार भी मगध के मतदताओं ने देश की राजनीतिक नब्ज़ को पहचाना और समय के साथ चलने का निर्णय लिया. वैसे यहां के सभी लोकसभा क्षेत्रों में एनडीए प्रत्याशियों की पूर्ण स्वीकार्यता नहीं थी. गया सुरक्षित लोकसभा क्षेत्र से भाजपा प्रत्याशी हरि मांझी वर्तमान सांसद थे. भाजपा ने सिर्फ सीटिंग एमपी होने के कारण हरि मांझी को दोबारा प्रत्याशी बना दिया. तब आम लोगों की राय में उन्हें कमज़ोर प्रत्याशी माना गया था, लेकिन नरेंद्र मोदी की लहर ने हरि मांझी को फिर से लोकसभा पहुंचा दिया.
नवादा से भाजपा प्रत्याशी गिरिराज सिंह पहले बेगूसराय से टिकट चाहते थे. नवादा के सांसद भोला सिंह भी अपना क्षेत्र बदलकर बेगूसराय जाना चाहते थे. इसमें दोनों का पेंच फंसा था. गिरिराज सिंह ने पार्टी के निर्णय को अनमने रूप से माना और चुनाव लड़ा, नतीजा सामने है. औरंगाबाद लोकसभा क्षेत्र से भाजपा ने जदयू के निर्वतमान सांसद सुशील कुमार सिंह को अपना प्रत्याशी बनाया. सुशील सिंह ने ऐन चुनाव के वक्त जदयू छोड़कर भाजपा का दामन थामा था. औरंगाबाद के भाजपा विधायक रामाधार सिंह ने सुशील सिंह के भाजपा में आने का पुरजोर विरोध किया था, लेकिन भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने रामाधार सिंह के विरोध को दरकिनार करते हुए सुशील सिंह को औरगाबाद से अपना प्रत्याशी बनाया. औरगाबाद के भाजपा कार्यकर्ताओं ने भी पूरी तरह सुशील सिंह का साथ नहीं दिया. विधायक रामाधार सिंह का विरोध था सो अलग, लेकिन युवा मतदाताओं के सहारे सुशील सिंह पुन: सांसद बनने में कामयाब रहे. जहानाबाद लोकसभा क्षेत्र से राजग के घटक दल राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. अरुण कुमार प्रत्याशी थे. उनके साथ परेशानी यह थी कि उन्हें अपनी ही जाति के दिग्गज अरुण कुमार चुनावी समर में चुनौती दे रहे थे. जदयू ने भी उनके ख़िलाफ़ एक मज़बूत प्रत्याशी अनिल शर्मा को मैदान में उतारा. अनिल मशहूर बिल्डर और आम्रपाली ग्रुप के सीएमडी हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी ने जहानाबाद में चुनावी सभा कर अरुण कुमार के विरोधियों के हौसले पस्त कर दिए. यही वजह है कि लंबे समय से सांसद बनने के लिए संघर्ष कर रहे अरुण कुमार नमो लहर पर सवार होकर लोकसभा पहुंच गए.
हाशिए पर शरद यादव
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