narendra-modiअचानक कश्मीर में भाजपा ने सरकार से अपना सपोर्ट वापस ले लिया. कश्मीर की सरकार गिर गई और वहां गवर्नर रूल लगा दिया गया. मैंने कई महीने पहले ही कहा था कि कश्मीर में पहला काम गवर्नर रूल लगाना चाहिए. ये सरकार एकदम विफल है, क्योंकि जब गठबंधन बनता है तो उनमें कुछ तालमेल, कुछ मिनिमम प्रोग्राम होता है. पीडीपी और भाजपा कश्मीर की पॉलिटिकल सिचुएशन में दो छोर हैं. एक इस तरफ हैं तो दूसरा उस तरफ.

इनमें गठबंधन के दो ही कारण हो सकते थे, कुछ मंत्री थोड़े दिन के लिए पैसे बना लें और दूसरा ये कि जो दूसरी पार्टियां सत्ता में न आ सकें. मुफ्ती मोहम्मद सईद ने जब सरकार बनाई थी, तब बड़ी उम्मीद से कहा था कि अगर कश्मीर समस्या का समाधान नहीं निकाल सका तो इस्तीफा दे दूंगा. ये तर्कसंगत बात नहीं थी. कश्मीर समस्या कश्मीर सरकार सॉल्व नहीं कर सकती है, कश्मीर समस्या को दिल्ली सरकार और इस्लामाबाद सरकार सॉल्व कर सकती हैं. बदकिस्मती से वे एक ही साल सत्ता में रहे और उनका इंतकाल हो गया.

उस समय भी मैंने कहा था कि मुफ्ती साहब का जनाजा देखकर महबूबा मुफ्ती को समझ जाना चाहिए था कि हवा उनके खिलाफ है. मुफ्ती साहब दावा करते थे कि शेर-ए-कश्मीर शेख अब्दुल्ला के बाद कश्मीर का सबसे बड़ा नेता मैं हूं, फारूख अब्दुल्ला नहीं हैं. शेख अब्दुल्ला का जनाजा इतने शान से निकला था कि उसके बाद ये किसी नेता की लोकप्रियता का मापदंड बन गया. मुफ्ती साहब के जनाजे में केवल तीन हजार लोग थे, जबकि शेख साहब के जनाजे में लाखों लोग थे. मतलब मरने के बाद जो सम्मान मुफ्ती साहब को मिलना चाहिए था, वो नहीं मिला. मैंने सोचा महबूबा के लिए डिसिजन लेना आसान हो गया कि ये सरकार हम नहीं बनाएंगे. लेकिन, उन्होंने सरकार बनाई. राम माधव भाजपा में है. वे आरएसएस में थे. चाइना पॉलिसी वो तय करते है, नॉर्थ ईस्ट की पॉलिसी वो तय करते है, कश्मीर की पॉलिसी वो तय करते है. मुझे लगता नहीं है कि उन्हें इन सब चीजों की कोई खास जानकारी है.

राम माधव ने महबूबा को मनाकर फिर से सरकार बनवा दी. जब से सरकार बनी थी, महबूबा को लगातार मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था. एक तरफ महबूबा हार्ड लाइनर हैं तो दूसरी तरफ भाजपा भी हार्ड लाइनर है. भाजपा कहती है कि 370 को खत्म कर देना चाहिए. जितेन्द्र सिंह जम्मू से हैं और पीएमओ के मंत्री है. 26 मई 2014 को सरकार का गठन हुआ था और उसके अगले ही दिन उनका बयान आता है कि आर्टिकल 370 को खत्म करने की प्रक्रिया शुरू की जाएगी. इस तरह की बयानबाजियों से मामला सुलझने की बजाए और उलझ जाता है. मामला तो बातचीत से ही सुलझता है.

अटल जी के न्योते पर परवेज मुशर्रफ मन बनाकर आगरा आए थे कि कश्मीर पर एक समाधान निकाल दिया जाए ताकि खून-खराबा बंद हो. लेकिन आडवाणी जी ने आरएसएस के इशारे पर यह नहीं होने दिया. ये छोटी-छोटी बातें, छोटे-छोटे इगो देश का नुकसान पहुंचाते हैं. ये बात 2003 की है. उसके बाद 10 साल कांग्रेस की सरकार रही और चार साल मोदी सरकार का भी हो गया. मोदी जी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में बाकी नेताओं के साथ नवाज शरीफ को बुलाया था. तारीफ हुई थी. खुद भी एक बार पाकिस्तान हो आए. कहां लड़खड़ा गया कदम? ये डोभाल साहब करवा रहे हैं या माधव साहब करवा रहे हैं या कोई खुराफाती तत्व है? सरकार ऐसे नहीं चलती है.

मोदी जी ने सोचा कि धीरे धीरे सब सही कर लेंगे, लेकिन कहीं न कहीं सरकार लड़खड़ा गई. पॉलिटिकल चीजों से ध्यान हट गया और मुकाबले में जो कमजोर चीजें थी उस पर फोकस करने लगे. कश्मीर में वोटरों के बीच सबसे ज्यादा पीडीपी की खिल्ली उड़ी है. अगले इलेक्शन में आप देखेंगे कि पीडीपी को बहुत कम सीटें मिलेंगी. भाजपा का उतना नुकसान नहीं हुआ है, क्योंकि उसका जनाधार हिन्दू बहुल जम्मू में है. वहां भी अगले चुनाव में वोट कांग्रेस व भाजपा में बंट जाएगा. बहरहाल, जो हुआ ठीक हुआ.

ये काम कई महीने पहले हो जाना चाहिए था. देर आए दुरुस्त आए. अब आगे क्या? अब गवर्नर एनएन वोहरा साहब आ गए हैं, जो काबिल प्रशासनिक ऑफिसर रहे हैं. पहले भी गवर्नर रूल इनके अंडर रह चुका है, यह पहली बार नहीं है. इन्होंने पहली नियुक्ति के तहत छत्तीसगढ़ कैडर के आईएएस अधिकारी बीवीआर सुब्रमण्यम को राज्य का चीफ सेक्रेटरी बनाया है. क्यों? वे नक्सल एक्सपर्ट माने जाते हैं. लेकिन, सवाल है कि अगर सभी समस्याओं का समाधान बंदूक होता तो फिर सियासतदानों की कोई जरूरत ही नहीं होती. डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर चलाएगा देश को, आर्मी चला लेगी, पुलिस चला लेगी, ये नहीं हो सकता.

कश्मीर अपने तरह का जटिल मामला है. इसमें इतने पेंच हैं कि उसे सुलझाने के लिए एक-एक पेंच सुलझानी पड़ेगी. इसके लिए धैर्य चाहिए, सूझबूझ चाहिए और सब पार्टियों का मिलाजुला मत होना चाहिए. लेकिन प्रधानमंत्री का ये स्वभाव ही नहीं है. हर चीज में जवाहरलाल नेहरू को याद कर लेते हैं, हर चीज में कांग्रेस को ब्लेम कर देते हैं. यानी अपनी जिम्मेदारी से कैसे भटकना है, वे बखूबी जानते हैं. किसी भी काम को हाथ में ले कर इन्होंने कभी विनम्रता नहीं दिखाई.

हर चीज में हाथ झटक दिया और जहां कोई चीज समझ में नहीं आई तो कांग्रेस को ब्लेम कर दिया. ये सरकार चलाने का संजीदा तरीका नहीं है. थोड़ा शिद्दत से काम करना पड़ता है. मोदी जी प्रधानमंत्री हैं. मैं क्या कह सकता हूं, लेकिन अभी भी आठ-दस महीने बचे हैं. काम पर लगिए और एक-एक काम ढंग से करिए. कश्मीर का यह पहला कदम ठीक है. गवर्नर साहब रिटायर होने वाले हैं. इन्हीं को सरकार पद पर बनाए रखेगी या नया गवर्नर नियुक्त करेगी, मैं नहीं जानता. लेेकिन मेहरबानी करके कोई सूझबूझ वाले आदमी को गवर्नर बनाइए.

मुझे शक है कि केंद्र सरकार कश्मीर में टफ एक्शन ले सकती है. लेकिन, कश्मीर के हालात छत्तीसगढ़ या आंध्र प्रदेश की तरह नहीं हैं. कश्मीर के हालात अलग हैं. वहां की समस्या अलग है. कश्मीर में दो बातें हैं. एक, वहां के युवा के मन में कुंठा और गुस्सा है. दूसरी बात यह कि भारत-पाकिस्तान के बीच समझौते के बिना कश्मीर में शांति आ ही नहीं सकती.

यह बात परवेज मुशर्रफ समझ गए थे, अटल जी भी समझ गए थे. भारत ने आगरा शिखर सम्मेलन के दौरान चार बार ड्राफ्ट बदला. चारों बार परवेज मुशर्रफ ने एग्री कर लिया. फिर समझौता क्यों नहीं हुआ? कश्मीरी कहते हैं कि बिना पॉलिटिकल सॉल्यूशन के बात खत्म नहीं होगी. अब आप (केंद्र सरकार) कोई भी फैसला लेंगे तो लोकसभा चुनाव को नजर में रखकर लेंगे. कश्मीर का फैसला भी वही है.

जो सरकार एक साल पहले चली जानी चाहिए थी, बल्कि मुफ्ती मोहम्मद सईद के इंतकाल के बाद दोबारा सरकार बननी ही नहीं चाहिए थी, वह सरकार आज गिर गई. लेकिन भाजपा ने महबूबा को मुख्यमंत्री बना कर सरकार को दो साल और घसीट लिया. भाजपा अगर ये सोचती है कि यह सब करने से हिन्दुओं का वोट मिल जाएगा, तो वह भूल कर रही है. जो हिन्दू इन बातों से प्रभावित होकर भाजपा को वोट देते हैं, उनकी समझ में कमी है. यह महात्मा गांधी का देश है. देश का सौहार्द्र बिगाड़ कर आप राज नहीं कर पाएंगे. देश के प्रति आपकी जो जिम्मेदारी है, उसे निभाइए और चुनाव की चिंता छोड़िए.

आर्थिक मोर्चे से एक महत्वपूर्ण खबर आई. मोदी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने इस्तीफा दे दिया. मोदी सरकार में सबसे काबिल लोगों में से थे अरविंद सुब्रमण्यन. वित्त मंत्रालय में उनसे काबिल नहीं था कोई. एक दो बार उनसे मेरी मुलाकात हुई है. मैंने उनसे कहा कि कुछ करिए, हालात को संभालिए.

ये एक बहुत ही अनूठा पद है. ये कोई कैबिनेट का मेंबर नहीं होता और न ही फाइनेंस सेक्रेटरी होता है. इस पद की एक अलग पहचान है. आर्थिक नीति पर कल क्या हो सकता है, क्या होना चाहिए, ये सलाह देने का काम है इस पद पर बैठे व्यक्ति का. अरुण जेटली ने काफी तारीफ की है सुब्रमण्यन की और सुब्रमण्यन ने भी अरुण जेटली की तारीफ की है. उन्होंने कहा कि जेटली अच्छे बॉस थे, बात सुनते थे, लेकिन नतीजा ग्राउंड पर दिखा नहीं.

अब सरकार नया इकोनॉमिक एडवाइजर किसे बनाती है, इसपर लोगों की नजर रहेगी. काबिल आदमी होना चाहिए नहीं तो आर्थिक स्थिति तो चरमराने की कगार पर है ही. तेल के दाम बढ़ रहे है. सवाल है कि जनता रोष कहां दिखाएगी? वह तो मतदान के वक्त ही पता चलेगा. 19 महीने की इमरजेंसी में जनता ने क्या किया था? जनता अपना काम कर रही थी. वोटिंग का दिन आया तो जनता ने अपनी ताकत दिखा दी.

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