सिवान जिले के रिसौरा गांव के दिव्यांग निर्मल और उनकी दिव्यांग पत्नी ज्योति ने गुजरात में कामयाबी के ऐसे झंडे गाड़े कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उनके मुरीद बन गए. उन्होंने बुद्धिमता और उद्यमिता के शानदार मिश्रण से अपनी शारीरिक दुर्बलता पर विजय पाई.
सिवान जिले के रिसौरा गांव में शिक्षक राजाराम सिंह के घर 1980 में निर्मल का जन्म हुआ. जब वे तीन साल के थे, तभी पोलियो के शिकार हो गए. 1996 में निर्मल ने महमदा हाई स्कूल से दसवीं की परीक्षा पास की. आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें पटना भेज दिया गया. इंटर के बाद निर्मल ने हैदराबाद के आचार्य एनजी रंगा कृषि विश्वविद्यालय से बीटेक (कृषि विज्ञान) करने का फैसला किया. निर्मल को राष्ट्रीय प्रतिभा छात्रवृत्ति (नेशनल टैलेंट स्कॉलरशिप) के रूप में हर महीने भारत सरकार की ओर से 800 रुपए मिलने लगे. पहले ही प्रयास में उन्हें आईआईएम अहमदाबाद में प्रवेश मिल गया.
एक घटना से मिल गया जवाब
आईआईएम में दूसरे साल की पढ़ाई चल रही थी. एक दिन वे डिनर के लिए साथियों के साथ कैंपस से बाहर निकले. ऑटोचालक ने रेस्तरां पहुंचाने के लिए 25 रुपए मांगे. लेकिन वापसी में दूसरे ऑटोचालक ने आईआईएम गेट तक पहुंचाने के लिए 35 रुपए ले लिए. निर्मल ने जानना चाहा कि जब रास्ता वही, दूरी वही, मीटर भी वही, तब वापसी में भाड़ा ज्यादा कैसे हो गया. इस पर ऑटो वाले ने उनके साथ बदतमीजी शुरू कर दी. निर्मल ने सोचा कि देश भर में कई लोग ऑटोचालकों की बेईमानी और बदतमीजी का शिकार होते हैं. फिर ख्याल आया कि क्यों न ऑटोचालकों की व्यवस्था को सुधारने के लिए उन्हें संगठित कर प्रशिक्षण दिया जाए.
इस फैसले को अमलीजामा पहनाते हुए उन्होंने 15 ऑटोचालकों को इकट्ठा किया. उनको योजना का हिस्सा बनने के लिए इंसेंटिव दिए. उनके बैंक में खाते खुलवाए, जीवन बीमा और दुर्घटना बीमा भी करवाया. सवारियों से अच्छा व्यवहार करने के लिए उनको विशेष प्रशिक्षण दिया. ग्राहकों के लिए ऑटो में अखबार और पत्रिकाएं उपलब्ध करवाईं. मोबाइल फोन चार्जर लगवाया. कूड़ादान रखा. रेडियो की सुविधा भी दी.
इस परियोजना को प्रायोजकों से भी अच्छा रिस्पॉन्स मिला. अखबार और पत्रिकाओं के मालिकों व विज्ञापनदाताओं ने अन्य ऑटोचालकों को भी इस मुहिम से जोड़ने के सुझाव दिए. फिर 100 ऑटोचालकों को इस मुहिम से जोड़ा गया. कई कंपनियों ने भी विज्ञापन के लिए जी-ऑटो का सहारा लिया. इसके बाद उन्होंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से अपने जी-ऑटो प्रोजेक्ट का विधिवत उद्घाटन करवाने का फैसला लिया. मोदी जी परियोजना से प्रभावित होकर उद्घाटन करने के लिए राजी हो गए. सीएम के हाथों जी-ऑटो की विधिवत शुरुआत के बाद उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.
देखते-देखते ऑटो की संख्या बढ़कर 22 हजार हो गई. अब यह सिर्फ अहमदाबाद तक सीमित नहीं है. गांधीनगर, राजकोट, सूरत, गुड़गांव और दिल्ली में भी इस मुहिम को आगे बढ़ाया गया. निर्मल ने 2009 में सिवान के सारीपट्टी गांव में दिव्यांग ज्योति से शादी की. ज्योति ने केमिस्ट्री में एमएससी की है. अब वे भी इस परियोजना को सफल बनाने में जी-जान से जुटी हैं.
ग़रीबी के कारण नहीं किया था एमबीए आज सैकड़ों एमबीए को दिया रोज़गार
कहते हैं न कि मान लो तो हार, ठान लो तो जीत. सिवान जिले के जीरादेई प्रखंड के हीरमकरियार गांव के एक युवा ने कुछ करने की ठानी, तो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. जिस शख्स के पास कभी ट्रेन से मुम्बई जाने के लिए रुपए नहीं थे, जिसका एमबीए का सपना गरीबी के कारण अधूरा रह गया हो, आज उसी का कारोबार दुबई, बहरीन, कतर, सऊदी से लेकर भारत तक फैला है. अजय सिंह के जीवन की कहानी किसी फिल्म की पटकथा सरीखी है. साधारण किसान परिवार में जन्मे अजय सिंह ने सिवान के डीएवी कॉलेज से 1992 में ग्रेजुएशन किया. वे एमबीए करना चाहते थे, लेकिन पैसों की तंगी आड़े आने लगी. फिर सरकारी नौकरी के लिए तैयारी शुरू कर दी. एक बार रेलवे की परीक्षा देने मुम्बई पहुंचे, तो एक मित्र के यहां ठहरना हुआ. परीक्षा देने के बाद लौटते समय उस मित्र ने कहा कि कहां घर जाओगे, तुम भी यहीं कोई जॉब कर लो. प्रस्ताव अच्छा था, सो मान लिया. उसी मित्र ने रीयल इस्टेट की एक कंपनी में ढाई हजार प्रतिमाह पर नौकरी दिलवा दी. दो साल में उनकी सैलरी ढाई हजार से बढ़कर पांच हजार रुपए हो गई. इसी बीच एक घटनाक्रम ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी. अजय ने बताया कि उनके गांव के एक अंकल विदेश में नौकरी करने के लिए एक एजेंसी से मिलने यहां आए हुए थे. वे उनके यहां ही ठहरे थे. उनको एजेंसी तक पहुंचाने गया, तो वहां दुबई के एक उद्योगपति से मुलाकात हो गई. वे उनकी बातचीत से इतने प्रभावित हुए कि दुबई चलने का न्योता दे दिया. हालांकि वे जाना नहीं चाहते थे, लेकिन उनके द्वारा आने-जाने का इंतजाम करने और बार-बार कहने के बाद वे राजी हो गए. वहां उन्होंने अपनी रीयल इस्टेट कंपनी में सुपरवाइजर का काम दिया. तीन साल बाद कंपनी के मैकेनिकल डिवीजन का प्रमुख बना दिया गया. वे बताते हैं, कुछ वर्षों तक काम करने के बाद मैंने सोचा कि अब अपना काम शुरू किया जाए. हालांकि इसमें रिस्क था, पर सफलता के लिए यह कदम उठाना जरूरी था. उन्होंने रीयल इस्टेट की एक कंपनी बनाई. बिजनेस अच्छा हुआ. बाद में इलेक्ट्रो मैकेनिकल कंपनी बनाकर काम शुरू कर दिया. आयात-निर्यात का भी काम करने लगे. रेडीमेड गार्मेंट के क्षेत्र में भी हाथ आजमाया. सभी में सफलता मिलती चली गई. आज दुबई, कतर, बहरीन, सऊदी अरब और भारत के नोएडा में उनका काम चल रहा है. करीब पांच सौ करोड़ रुपए का सालाना टर्नओवर है. अभी जिस हिसाब से कारोबार बढ़ रहा है, उम्मीद है जल्द यह हजार करोड़ तक पहुंच जाएगा. प्रख्यात पाश्वर्र्गायक कुमार शानू के हाथों उन्हें गत वर्ष दुबई में आईबीएफए द्वारा बेस्ट पर्सनालिटी ऑफ दुबई के अवॉर्ड से भी नवाजा गया.