गुजरात चुनाव के नतीजों का बिहार में बेसब्री से इंतजार हो रहा था. चुनाव नतीजों को लेकर जितनी चर्चा गुजरात और दिल्ली में हो रही थी, उससे कम बिहार के सत्ता के गलियारों में नहीं थी. बयानबहादुर नेता रोज गला फाड़-फाड़कर अपने अपने दलों को जीत दिलवा रहे थे. सबसे दिलचस्प बात तो यह हुई कि चुनाव के शंखनाद के ठीक बाद नीतीश कुमार ने यह ऐलान कर दिया कि गुजरात में भाजपा की जीत तय है. उन्होंने कहा कि कहीं कोई अगर-मगर नहीं है, भाजपा वहां पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने वाली है. नीतीश के इस बयान के बाद बारी थी लालू प्रसाद की. उन्होंने ठीक इसके उलट कहा कि नरेंद्र मोदी के पतन की शुरुआत गुजरात के चुनाव नतीजों के साथ हो जाएगी. गुजरात में कांग्रेस की जीत तय है. सूबे के इन दो बड़े नेताओं के उद्घोष के बाद तो बयानों की झड़ी लग गई. क्या छोटा और क्या बड़ा, सब अपना-अपना गला साफ करने लगे.
लेकिन इन बयानों के इतर सूबे में एक और राजनीतिक कवायद चल रही थी, जो पर्दे के पीछे हो रही थी. कमोवेश सभी बड़े राजनीतिक दलों ने अपने-अपने हिसाब से गुजरात के नतीजों के बाद क्या करना है, इसे तय करना शुरू कर दिया. महागठबंधन में टूट के बाद अभी सबसे ज्यादा उहापोह की स्थिति राजद में बनी हुई है. खासकर कांग्रेस के साथ रिश्तों को लेकर तस्वीर बहुत ही धुंधली नजर आ रही है. इधर सोनिया की जगह राहुल गांधी के अध्यक्ष बन जाने के कारण भी लालू इन दिनों बहुत सहज महसूस नहीं कर रहे हैं. गुजरात के चुनाव प्रचार में न बुलाए जाने की पीड़ा उन्हें बहुत सता रही है.
हालांकि सार्वजनिक मंचों पर वे इस पीड़ा का इजहार नहीं कर रहे हैं पर जानकार बताते हैं कि लालू प्रसाद की बहुत इच्छा थी कि वे कांग्रेस के बुलावे पर गुजरात जाकर नरेंद्र मोदी के खिलाफ आग उगलें. लेकिन लालू प्रसाद की यह इच्छा धरी की धरी ही रह गई. न तो राहुल गांधी ने उन्हें गुजरात बुलाया और न ही लालू प्रसाद नरेंद्र मोदी के गृृह राज्य में जाकर उनको भला बुरा कह सके. लालू दिल से चाहते थे कि गुजरात में नरेंद्र मोदी की हार हो जाए. इसका ऐलान वह बिहार में बार-बार कर रहे थे. लालू को मालूम था कि अगर अपने गृृहराज्य गुजरात में नरेंद्र मोदी हार जाते हैं तो कांग्रेस के नेतृत्व में एक देशव्यापी मंच बनाने का माहौल बनेगा. लालू इस मंच के बनाने में अपना अहम रोल देख रहे थे.
यहां तक कि लालूू प्रसाद ने भाजपा विरोधी कई छोटे दलों से बात भी कर ली थी. लेकिन गुजरात के नतीजों ने लालू के सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया. गुजरात और हिमाचल को गंवाने के बाद कांग्रेस बैकफुट पर है और निकट भविष्य में नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई संयुक्त मोर्चा बनना शुरू होगा, इसकी उम्मीद कम ही है. राहुल गांधी का रुख साफ नहीं होने के कारण लालू प्रसाद यह समझ नहीं पा रहे हैं कि उन्हें कांग्रेस को कितनी तवज्जो देनी है. फरवरी और मार्च का महीना वैसे भी बिहार के लिए राजनीतिक तौर पर काफी महत्वपूर्ण है. अररिया लोकसभा क्षेत्र के लिए उपचुनाव होना है और दो विधानसभा क्षेत्रों में फिर से चुनाव होना है. इसके बाद राज्यसभा का चुनाव भी होना है.
कांग्रेस के साथ रिश्तों की मजबूती का आकलन न कर पाने के कारण लालू प्रसाद लाचारी में हैं. लालू जानते हैं कि राजद का साथ कांग्रेस की मजबूरी है, पर राहुल गांधी से जबतक साफ-साफ बात नहीं हो जाती तब तक कोई बड़ा फैसला लेना लालू उचित नहीं समझ रहे हैं. जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो सबसे ज्यादा निराशा बिहार कांग्रेस को ही हुई है. गुजरात में राहुल गांधी के धुआंधार प्रचार अभियान से सूबे के कांग्रेसियों को लग रहा था कि अब एक नए कांग्रेस का उदय होने वाला है. लेकिन नरेंद्र मोदी का कोई काट नहीं खोज पाने के कारण कांग्रेसियों को निराशा ही हाथ लगी है.
पिछले 27 वर्षों से बिहार में अपना दमखम खो चुकी कांग्रेस की दूसरे दलों पर निर्भरता अब और बढ़ जाएगी. चुनाव परिणाम के पहले तक माना जा रहा था कि गुजरात में राहुल गांधी की मेहनत काम आ सकती है. बेहतर नतीजे की बदौलत बिहार में कांगे्रेस अपनी धारा तय कर सकती है. अगले चुनावों में लालू को अधिक सीटें छोड़ने के लिए बाध्य कर सकती है. साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी एवं केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा सरीखे अस्थिर चित वाले नेताओं को हिलाया डुलाया जा सकता है.
लेकिन गुजरात के चुनाव नतीजों ने सब पर पानी फेर दिया. कांग्रेस पर्दे के पीछे उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और पप्पू यादव जैसे नेताओं को एक सूत्र में बांधने का प्रयास कर रही थी. यह कांग्रेस का बी प्लान है. अगर लालू प्रसाद सीटों पर मनमानी पर उतर आए या फिर राहुल का दिल लालू से नहीं मिला तो प्लान बी को अमलीजामा पहनाया जाना है. गुजरात में जीत का मंसूबा पाले कांग्रेस प्लान बी को लेकर काफी गंभीर है, लेकिन गुजरात की हार ने कांग्रेस को बैकफुट पर लाकर खड़ा कर दिया है.
अब अगर प्लान बी पर बात होगी तो उपेंद्र कुशवाहा और पप्पू यादव जैसे नेताओं को ज्यादा तवज्जो देनी होगी. गुजरात चुनाव के नतीजों का असर बिहार में कांग्रेस विधायक दल की एकजुटता पर भी पड़ सकता है. कांग्रेस के दर्जन भर से ज्यादा विधायक सही समय का इंतजार कर रहे हैं. अगर चुनाव परिणाम कांग्रेस के पक्ष में आते तो निश्चित ही यह खतरा टल जाता पर ऐसा हुआ नहीं. विधायकों के बीच एक बार फिर फुसफुसाहट शुरू हो गई है. जानकार बताते हैं कि यह खेल राज्यसभा चुनाव के समय ही होगा. लेकिन माहौल बनाने का काम जो बंद हो गया था, एक बार फिर शुरू हो गया है.
जहां तक जदयू की बात है तो नीतीश कुमार ने यह पहले ही अनुमान लगा लिया था कि गुजरात में क्या होने वाला है? जीत के तुरंत बाद नीतीश कुमार ने तुरंत नरेंद्र मोदी और अमित शाह को बधाई भी दे दी. भाजपा की जीत से तो जदयू पर कोई खास असर नहीं पड़ा, लेकिन नीतीश से खार खाए शरद यादव के लिए यह चुनाव संजीवनी लेकर आया. उनके समर्थन के चार उम्मीदवारों में से दो ने गुजरात में जीत दर्ज कर ली.
इसके लिए शरद यादव ने राहुल गांधी को बधाई भी दे दी, लेकिन गुजरात चुनाव के नतीजों ने उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी को एक बार फिर दुविधा में डाल दिया है. नरेंद्र मोदी के मोह से निकलने के लिए जब-जब ये दोनों नेता कुछ मन बनाते हैं कुछ ऐसा हो जाता है कि इन्हें अपने कदम वापस खींचने पड़ जाते हैं. गुजरात चुनाव जब बराबरी पर था तो उस समय इन दोनों नेताओं ने अपने तेवर कुछ कड़े कर लिए थे, लेकिन चुनाव नतीजों के बाद एक बार फिर इन नेताओं ने मोदी का गुणगाण शुरू कर दिया है. फिलहाल लगता नहीं कि इन दोनों नेताओं की तरफ से हाल में कोई पहल होगी.
गुजरात के चुनाव नतीजों का सबसे ज्यादा फायदा बिहार भाजपा को ही मिला है. सूबे के भाजपाइयों के हौसले बुलंद हैं. इन्हें लग रहा है कि अब 2019 की लड़ाई आसान हो गई है और नीतीश कुमार का कोई अतिरिक्त दबाव भी उन्हें नहीं झेलना पड़ेगा. हार की स्थिति में जदयू अपनी शर्तों पर सीटों के बंटवारे का दबाव जरूर बनाती, लेकिन गुजरात और हिमाचल के जीत के बाद लगता नहीं कि भाजपा झुक कर कोई तालमेल करेगी. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि चुनाव भले ही गुजरात और हिमाचल में हुआ हो, पर सूबे की राजनीति को परिणामों ने काफी प्रभावित किया. सूबे के नेता अब अपनी अगली चाल इन परिणामों के प्रभाव के दायरे में चलने को मजबूर हो गए हैं.