प्रधानमंत्री जी के बहाने मैं सभी देशवासियों से ये पूछना चाहता हूं कि क्या हम सब कृतघ्न हो गए हैं? क्या हमें उन लोगों की जरा भी चिंता नहीं है, जिन्होंने हमारे भविष्य के लिए अपनी जानें दीं. दो तरह के लोगों ने आजादी के आंदोलन में सहयोग दिया था. एक वो, जो गांधीजी के अहिंसक आंदोलन में अंग्रेजों का सामना कर रहे थे, जिन्होंने लाठियां खाईं, अंग्रेजों के घोड़ों की टापें झेलीं और सालों-साल जेल में रहे. उनमें से बहुत से लोग 15 अगस्त 1947 तक जीवित रहे और उन्होंने आजादी का सूरज देख लिया.

दूसरी श्रेणी के वो लोग थे, जिन्होंने अंग्रेजों का मुकाबला गोलियों से किया. उन्होंने हथियारों से मुकाबला कर अंग्रेजों को हिन्दुस्तान से भगाने की कोशिश की और अपनी जान गंवाई. उनमें से वेे लोग, जो अंग्रेजों की गोलियों से मारे गये, उनके नाम हमें बहुत नहीं मिलते. जो फांसी पर चढ़े, उनमें भी कइयों के नाम हमारे पास नहीं हैं. आजादी के बाद जितनी भी सरकारें बनीं, उनमें से किसी ने भी उनके नाम तलाशने की कोशिश नहीं की, पर हमारे पास कुछ नाम हैं.

हमारे पास वो नाम हैं, जिन्होंने अंग्रेज सरकार का मुकाबला करते हुए फांसी की सजा पाई. उन्होंने हंसते हुए फांसी के फंदे को चूमा और अपने गले में डाल लिया. उनके बारे में किताबों में कहीं-कहीं जिक्र है. कभी कभी उनका नाम भी लिया जाता है, पर ऐसा लगता है कि सारा देश उन्हें भूल चुका है. यह भूलना कृतघ्नता, एहसानफरामोशी और नाशुक्रेपन की निशानी है.

हरियाणा के जिंद जिले के दो लोग, जिनमें एक स्थानीय पत्रकार कुलदीप खंडेलवाल और दूसरे शिक्षक हैं मदनपाल, ये उन लोगों के गांवों और घरों में गए, जिन्होंने फांसी का फंदा चूमा था. वे लोग जब मेरे पास आए और उन्होंने फांसी पाए हुए शहीदों के गांवों में जाकर, उनके घर और परिवार की हालत बताई, तो मन ये करने लगा कि इन स्थितियों को जानने के बाद भी किसी शहीद के परिवार वाले देश सेवा के लिए किसी को कोई प्रेरणा देंगे. सवाल ऐसा है, जिसका किसी के पास उत्तर नहीं है.

पहला नाम शहीद रामप्रसाद बिस्मिल का. पंडित रामप्रसाद बिस्मिल वही हैं, जिनकी लिखी गई लाइनें गाते हुए भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और उन्होंने खुद अपनी जान दी. सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है. वक्त आने पर बता देंगे तुझे ऐ आसमां, हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है. पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ने शादी नहीं की थी. उनकी मां गांव में रहती थीं, जिनका देहांत शायद सन 1954 में हो गया था. उनके भाई थे, जिनका बेटा ईलाज के अभाव में दुनिया को प्यारा हो गया.

इस समय उनके घर में कोई नहीं है और उनके घर का कोई नामोनिशान भी नहीं मिलता. श्री शिव वर्मा ने अपनी किताब में लिखा है कि मैं गोरखपुर जेल में रामप्रसाद बिस्मिल जी से उनकी मां के साथ उनका भाई या शायद बेटा बनकर मिलने के लिए पहुंचा था. उनसे मिलकर जब मैं लौटा, तब से उनकी मां से मेरा कोई संपर्क नहीं रहा.

सन 1954 में जब मैं मिला, तो उनकी मां को दिखाई नहीं देता था. मैंने पूछा, मां आपको याद है, आप जब गोरखपुर जेल गयी थीं, तब आपके साथ एक बच्चा था. मां तुरंत बोलीं, अरे शिव है क्या? आज रामप्रसाद बिस्मिल का नाम लेने वालों की स्मृति में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिससे पता चले कि देश का इतना बड़ा योद्धा इस गांव, ब्लॉक, जिले  या इस प्रदेश में कभी रहा था.

दोनों नौजवानों ने अशफाकउल्लाह खां के गांव की भी यही हालत देखी. अशफाकउल्लाह खां, वो अजीमुश्शान नाम है, जिन्होंने पूरी मुस्लिम कौम का नाम शान से ऊंचा रखा. उनके कब्र की हालत देखकर इन दोनों नौजवानों की आंखों से आंसू निकल आए. उनकी याद में कोई स्मारक तो छोड़ दीजिए, कब्र तक की हालत ठीक करने की, न लोगों को और न सरकार को ही चिंता है.

क्रांतिकारी पंडित राजनारायण मिश्र के घर के लोग भट्‌ठे में मजदूरी कर रहे हैं. ईंटें उठा रहे हैं और कभी-कभी ईंटें पाथ भी रहे हैं. जब घरवालों से पूछा, तो उन्होंने कहा कि यहां कभी कोई नहीं आता, कभी कोई नहीं पूछता है. ऐसा लगता है जैसे पंडित राजनारायण मिश्र नाम का कोई शख्स कभी दुनिया में आया ही नहीं.

क्या देश के लोगों या सरकार का ये फर्ज नहीं बनता कि हमारे लिए जान देने वाले लोगों के घरों में, अगर कोई है, तो उनकी देखभाल करें. शहीदों के स्मारक बनवाएं, उनका नाम जिंदा रखें. उनके प्रेरणादायी जीवन की घटनाओं पर एक पुस्तिका छपवा कर आस-पास बटवाएं.

दरअसल ये काम तो सरकार का होना चाहिए, चाहे वो प्रदेश की सरकार हो या केंद्र की. लेकिन सरकारें नालायक हैं, काहिल हैं, नाशुक्री हैं. वो उन लोगों की कोई खोज-खबर नहीं रखती, जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपनी जानें दे दीं. उनके लिए वो व्यक्ति ज्यादा प्रमुख हैं, जो भ्रष्टाचार से पैसे कमाकर किसी न किसी नेता को आर्थिक लाभ पहुंचाते हैं.

लेकिन लोगों को क्या हो गया है? क्या लोग भी नाशुक्रे हो गए हैं? मैं आपसे अपील करता हूं कि अगर आपके आस-पास कोई ऐसा शहीद है, जिसने मुल्क के लिए फांसी पर चढ़कर या गोलियों से जान दी है, आप कृपया हमें बताएं. हम और कुछ नहीं कर सकते, लेकिन उनकी स्मृति में, उनके बारे में जानकारी छापकर लोगों को जरूर दे सकते हैं. मैं एक अपील और करता हूं कि आपके आस-पास जो भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं, जिन्होंने जेल काटे हैं, जिन्होंने अपनी जवानी जेलों में गुजारी है, गांधीजी के आंदोलन में हिस्सा लिया है और अगर वो जीवित हैं, उनके चरण छूकर उनका आशीर्वाद लें. वह आशीर्वाद भगवान के आशीर्वाद के बराबर ही आपको फल देगा. जिन लोगों ने जेलों में अपनी जिंदगी गुजारी है, देश के लिए बिना स्वार्थ लड़ा है, जिन्हें मालूम ही नहीं था कि देश कभी आजाद होगा, ऐसे लोगों को प्रणाम करना हमारा राष्ट्रीय और मानवीय कर्तव्य है. सरकार से भी अपील करना चाहेंगे कि वह उन सभी लोगों के नाम पर स्मारक बनवाए और उनके जीवन पर पुस्तक छपवाए.

उदाहरण के लिए मैं अभी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अस्फाकउल्लाह खां और पंडित राजनारायण मिश्र का नाम आपके सामने रख रहा हूं. मुझे पूरा विश्वास है कि इसके अलावा, जितने भी नाम आपको याद आते हैं, निश्चित रूप से उनके घरों की भी हालत ऐसी ही होगी, जैसी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खां और पंडित राजनारायण मिश्र के घरों की है.

हम अपनी नजरों में कृतघ्न बन रहे हैं, हम अपनी नजरों में नाशुक्रे बन रहे हैं और हम अपनी नजरों में नाइंसाफ बन रहे हैं. मेरी गुजारिश है, मेरी प्रार्थना है कि सरकार करे या न करे, आप अवश्य कुछ करें. कम से कम हमें इसकी जानकारी दें, ताकि हम उन शहीदों, उनके परिवार के लोगों और जीवित स्वतंत्रता सेनानियों का सम्मान उनके बारे में कुछ छापकर कर सकें.

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