सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार के उस सर्कुलर पर रोक लगा दी है, जिसमें दिल्ली सरकार ने अपने अधिकारियों एवं मंत्रियों से कहा था कि मीडिया की ऐसी रिपोट्र्स को वे चिन्हित करें, जिनसे सरकार को बदनाम करने की कोशिश की जा रही हो, ताकि उसके खिला़फ मानहानि का म़ुकदमा किया जा सके. फिर से यह एक अतार्किक बात है. जो भी व्यथित महसूस करता है, वह अदालत जाएगा ही. अदालत फिर यह कहेगी कि मानहानि है या नहीं है. मुद्दा यह है कि केजरीवाल ने आपराधिक मानहानि क़ानून हटाने की बात कही थी. यदि एक बार ऐसा हो जाता है, तब तो हर कोई किसी के बारे में जो चाहेगा, बोल सकेगा.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सरकारी विज्ञापनों में नेताओं की तस्वीरों का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. अच्छी बात है. लेकिन, अजीब बात यह है कि इसमें अदालत ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और भारत के मुख्य न्यायाधीश को बाहर रखा है. भारत के मुख्य न्यायाधीश तस्वीर में आ कैसे सकते हैं, किसी की समझ में नहीं आ सकता. क्यों सरकार कोई ऐसा विज्ञापन देगी, जिसमें मुख्य न्यायाधीश की तस्वीर लगाने की ज़रूरत हो? फिर ऐसे मामले में स्पीकर या राज्यसभा के सभापति यानी उपराष्ट्रपति को भी बाहर रखा जाना चाहिए. निर्णय तर्कसंगत नहीं है. मैं भी प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार चाहता हूं, लेकिन लोकतंत्र में जब कोई पार्टी चुनाव जीतकर आती है, तो उसे पांच साल तक सरकार चलाने का जनादेश मिलता है. यदि इस बीच सरकार कुछ ग़लत करती है, तो मतदाता उसे दंडित करेंगे. यह काम अदालत का नहीं है. इसी तरह चुनाव के समय चुनाव आयोग बहुत कुछ निषेध कर देता है. अच्छा है. लेकिन, पूरे पांच साल के लिए सरकार की उपलब्धियों पर प्रकाश नहीं डाला जाना चाहिए और तस्वीरों पर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए, मुझे लगता है कि यह एक अच्छा विचार नहीं है. लेकिन, अदालत ने कहा है, तो कहा है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन किया जाता है. दूसरे निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार के उस सर्कुलर पर रोक लगा दी है, जिसमें दिल्ली सरकार ने अपने अधिकारियों एवं मंत्रियों से कहा था कि मीडिया की ऐसी रिपोट्र्स को वे चिन्हित करें, जिनसे सरकार को बदनाम करने की कोशिश की जा रही हो, ताकि उसके खिला़फ मानहानि का म़ुकदमा किया जा सके. फिर से यह एक अतार्किक बात है. जो भी व्यथित महसूस करता है, वह अदालत जाएगा ही. अदालत फिर यह कहेगी कि मानहानि है या नहीं है. मुद्दा यह है कि केजरीवाल ने आपराधिक मानहानि क़ानून हटाने की बात कही थी. यदि एक बार ऐसा हो जाता है, तब तो हर कोई किसी के बारे में जो चाहेगा, बोल सकेगा.
यहां सब लोग यानी कांग्रेस और भाजपा, आम आदमी पार्टी पर हमला कर रहे हैं, क्योंकि ये दोनों चुनाव में हार चुके हैं. उन्हें दिल्ली सरकार पर हमला करने के लिए मुद्दा मिल गया है, लेकिन यह एक नई पार्टी के साथ अनुचित है. मैं दिल्ली का मतदाता नहीं हूं और न केजरीवाल को जानता हूं. तथ्य यह है कि केजरीवाल ने नए प्रतिमान प्रस्तुत किए हैं और दिल्ली के लोगों ने उन्हें वोट दिया है. मैं नहीं समझता कि अदालत को उन्हें हतोत्साहित करने के इस अभियान में शामिल होना चाहिए. उनकी सरकार को अभी दो-तीन महीने हुए हैं. उन्हें दो-तीन साल तक अपना काम करने दें. तभी हम जान पाएंगे कि उनकी योजनाएं सफल हो पाती हैं या नहीं. पहले से ही दिल्ली में लोग कह रहे हैं कि पानी के बिल में कमी आई है, बिजली के बिल में कमी आई है, सार्वजनिक स्थानों पर पार्किंग के लिए भुगतान करने की ज़रूरत नहीं है. यदि वह ऐसे अच्छे काम कर रहे हैं, तो इसमें क्यों किसी को बाधा डालनी चाहिए? क्या इसलिए कि इस पूरी तस्वीर से कांग्रेस और भाजपा गायब है? यह सही नहीं है.
सवाल यह है कि इस सर्कुलर में क्या आपत्तिजनक हो सकता है, मुझे समझ में नहीं आता. उन्होंने अपने अधिकारियों एवं मंत्रियों से सतर्क रहने को कहा और कहा कि अगर किसी ़खबर से यह लगता है कि उन्हें बदनाम किया जा रहा है, तो कार्रवाई करें. लेकिन, कार्रवाई केवल न्यायपालिका करेगी. तो क्यों इस सर्कुलर पर रोक लगी? जाहिर है, अब प्रशांत भूषण जैसे लोगों, जो इस परिदृश्य में नहीं हैं, ने इसका स्वागत किया है. प्रशांत भूषण एक ग़लत मिसाल स्थापित कर रहे हैं. उन्हें समझना चाहिए कि यह सर्कुलर मीडिया के ़िखला़फ कार्रवाई करने का अधिकार नहीं देता है, यह स़िर्फ न्यायपालिका के पास जाने के लिए शक्तियां देता है. तो फिर इसमें मुद्दा क्या है? मैं समझता हूं कि सुप्रीम कोर्ट को बहुत अधिक सक्रिय नहीं होना चाहिए और केवल ऐसे मामलों में निर्णय देना चाहिए, जिनका संबंध वास्तव में लोगों से हो.
दूसरी आलोचना प्रधानमंत्री द्वारा कई देशों का दौरा करने को लेकर है. कार्टून आ रहे हैं, ट्वीटर पर बातें हो रही हैं. एक देश के प्रधानमंत्री के प्रमुख देशों के साथ अच्छे संबंध होने ही चाहिए. श्री मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने हैं. वह दूसरे देश के नेताओं को आमंत्रित करके या दूसरे देशों में खुद जाकर संपर्क बनाने की कोशिश कर रहे हैं, तो ज़्यादा आपत्ति नहीं होनी चाहिए. सभी प्रधानमंत्रियों ने विदेश दौरा किया है. पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के व्यापक अंतरराष्ट्रीय संपर्क रहे हैं. तुलनात्मक रूप से भाजपा के श्री अटल बिहारी वाजपेयी भी इस मामले में बड़े कद तक पहुंचे. श्री मोदी एक राज्य के मुख्यमंत्री थे. उन्हें दूसरे देशों के नेताओं से परिचित होने के लिए वहां जाना या दूसरे देशों के नेताओं को आमंत्रित करना ही पड़ेगा. मुझे लगता है कि हमें उन्हें समय देना चाहिए. देखते हैं, इस सबसे क्या निकल कर आता है. अभी लोगों ने बहुत अधिक उम्मीदें लगा रखी हैं, यह अनुचित है. एक, दो या दस दौरे में भी भारत-चीन सीमा विवाद का निपटारा नहीं किया जा सकता. यह एक धीमी प्रक्रिया है. चीन भारत का एक प्रमुख व्यापारिक भागीदार है और श्री मोदी उसे प्रोत्साहित करना चाहते हैं. लेकिन, यहां भी चौकन्ना रहने की ज़रूरत है. भारत और चीन के बीच 70 बिलियन का व्यापार है. लेकिन, यहां था़ेडा समझना होगा कि जहां चीन 55 बिलियन का माल भारत भेजता है, वहीं भारत 15 बिलियन का माल ही चीन को निर्यात कर पाता है यह बेहद असंतुलित है. असल मुद्दा यही है कि आ़िखर इसे कैसे नियंत्रित किया जा सकता है? यदि चीन अपने उत्पाद भारत भेजने के बजाय मेक इन इंडिया करे, तब तो कोई फायदा है? चीन भारत में अपने स्वयं के उत्पादों की डंपिंग करता रहे और हम उसके लिए भुगतान करते रहें, तब इस व्यापार से बहुत ज़्यादा फायदा नहीं होगा.
अरुण शौरी ने एक इंटरव्यू दिया और भाजपा सर्कल में कहा जा रहा है कि चूंकि वह निराश हैं, इसलिए मोदी पर हमला कर रहे हैं. यह ग़लत है. उन्होंने कहा कि अर्थव्यवस्था मजबूत बनाने के लिए वित्त मंत्री द्वारा बहुत अधिक किया जाना चाहिए. वह स़िर्फ यही याद दिला रहे हैं कि भाजपा इतने बड़े वादे के साथ सत्ता में आई है, लेकिन एक साल में उसके म़ुकाबले बहुत कम काम किया गया है. उन्होंने आगाह भी किया कि भारत और चीन के बीच संबंधों में सुधार के बारे में बहुत उम्मीद नहीं करनी चाहिए. यह एक बहुत जटिल काम है. इसलिए शौरी ने जो भी कहा है, उसका जो भी उद्देश्य हो, वह सही हो सकता है, ग़लत भी हो सकता है. वह अभी भी भाजपा के हिस्से हैं. वह चाहते हैं कि उनकी सरकार सफल हो. इसलिए वह स़िर्फ सरकार को आगाह कर रहे हैं. मैं श्री शौरी की इस बात से सहमत नहीं हूं कि स़िर्फ तीन लोग सब कुछ चला रहे हैं, श्री मोदी, श्री शाह और श्री जेटली. मैं समझता हूं कि यह सही नहीं है. मुझे लगता है कि पीएमओ के अधिकारी पीएमओ चला रहे हैं और वही शक्तिशाली होते हैं और वही श्री मोदी के कान और आंख हैं. अगर ऐसा है, तो श्री मोदी को सावधान हो जाना चाहिए. आपके नौकरशाह आपके कितने भी क़रीबी क्यों न हों, लेकिन आपको स़िर्फ किसी एक पर विश्वास करना होगा, जैसे श्रीमती इंदिरा गांधी ने पीएन हक्सर और श्री वाजपेयी ने बृजेश मिश्रा पर किया था. इसलिए आपके पास उस तरह का शक्तिशाली आदमी है, तब तो ठीक है, जिसे मैं अभी नहीं देख पा रहा हूं. लेकिन, अगर आपके पास नौकरशाहों की एक फौज है, जो गुजरात में आपके साथ काम कर चुकी है और वही लोग सारे मुद्दों पर काम कर रहे हैं, चाहे वह सियासी मुद्दा हो या अन्य कोई मुद्दा, तो आप अपने आपके लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर रहे हैं.
उधर संघ परिवार और विहिप के अपने विचार हैं. जाहिर है, नौकरशाह इन विचारों को संतुलित कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए आपको बहुत ही सक्षम अधिकारी चाहिए. मुझे नहीं मालूम कि पीएमओ कौन चला रहा है और कौन प्रधानमंत्री को सलाह दे रहा है. लेकिन, अब एक साल पूरा हो चुका है. अगले छह महीने में सरकार को दिखाना होगा कि वह हर मुद्दे पर गंभीर है. ठीक है कि आपने एक साल स़िर्फ चीजों को समझने में लगाया, लेकिन इसके बाद अब स़िर्फ चार साल बचते हैं. नए रोज़गार सामने नहीं आ रहे हैं और इस तरह से नए रा़ेजगार आएंगे भी नहीं. आपकी नीतियां क्या हैं, इसे सही ढंग से नहीं बताया जा रहा है. वित्त मंत्री ने दो बजट पेश कर दिए हैं. इसे लेकर अलग-अलग तरह की राय आई. मसलन, इस बजट को वित्त मंत्री ने अपने विचार से बनाया या प्रधानमंत्री के विचार से या फिर इसे नौकरशाहों ने बनाया? यह भी चर्चा है कि वित्त मंत्रालय के भीतर नौकरशाहों के बीच जबरदस्त मतभेद है. वित्त सचिव, आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम और राजस्व सचिव, ये सब एक-दूसरे से नज़र तक नहीं मिलाते. जितनी जल्दी प्रधानमंत्री इसमें हस्तक्षेप करें और एक स्पष्ट नीति दें, देश के लिए उतना ही बेहतर होगा.