आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं गोपी नवीन शुक्ला की तीन कविताएँ. इन कविताओं में स्त्री के पक्ष में अलग सौन्दर्यबोध आया है.-ब्रज श्रीवास्तव

1…
।।काली लड़की।।

बाहर आने जाने से पहले
कभी देर तक
चेहरे पर पाउडर मलने वाली
दबी – कुची मुरझाई सी,
कहीं मिलने पर
बमुश्किल हंसने – बोलने वाली
उस काली लड़की को
देखा मैंने
बेखौफ
मुख्य सड़क पर भीड़ को
चीरते हुए स्कूटी चलाते।

मुझे देखा तो रुक कर
बातें की उसने स्कूल की,
घर परिवार की देश दुनिया की
पूरे आत्मविशास के साथ।

अब वह छोड़ आती है
ऑफिस तक अपने पिता को,
छोटे भाई को उसके स्कूल,
कॉलेज आते – जाते
मां को भी घुमा लाती है
चौपाटी तक।

स्कूटी चलाते हुए वह
खुश ही नही खूबसूरत भी
दिखाई दी इन दिनों।

उसे स्कूटी चलाते
देखकर लगता है,
लड़की की खूबसूरती
किसी रंग की कभी
मोहताज नही होती।

-गोपी

 

2 …
।।उपवास।।

अक्सर कई- कई दिन उसके घर
नही जलता चूल्हा,
देर रात तक
खाती रहती है मार
अपने क्रूर, निकम्मे,नशेड़ी पति से।
घर के आंगन से ज्यादा
आगे जाने नही दिया गया
उसे आज तक।

वह भी आज उपवास है,
बिल्कुल निराहार,
फल मिलेंगे ही कहां से उसे
फलाहार के लिए ?

हाथ में पकड़कर
कच्चा सूत लगाई है
उस पेड़ की परिक्रमा उसने भी
बाकी औरतों के साथ।

हरे-भरे बरगद के पेड़ को पूजकर,
उसके पांव दबाकर,
उससे गले मिल कर,
आखिर क्या मांगा उसने?

थोड़ी सी ठंडक अपने जलते कलेजे के लिए,
जीने के लिए थोड़ी सी प्रेम,
थोड़ा सा अन्न बुझे चूल्हे के लिए,
समाज में रहे आने की जगह
या फिर ,
उन सभी औरतों की तरह मन्नत
अगले सात जन्मों तक
उसी पति के साथ का?

-गोपी

 

3….
।।आटा गूंथती लड़की।।

आटा गूंथती हुई
बेफिकर सी लड़की
करती है परात पर
अठखेलियां।
लिखती है उंगलियों से आटे पर
भूत ,वर्तमान ,भविष्य
नापती है अपनी
भाग्य रेखा ।
बनाती है एक गहरा तालाब
उसमे पानी उड़ेलकर
ढांकती है उसे आटे से ।
आहिस्ता हाथ फिराकर,
बना देती है उसे सपाट
फिर उस पर उतारती है,
अपने जीवन का चित्र।

कोई सुनहरा पल सोच कर
मुस्कुराते हुए उकेर देती है
एक सुंदर -सा फूल
और उसकी पत्तियां।
तर्जनी को गोल – गोल फिरा
बना लेती है उस पर
मीठी जलेबी का आकार,
तो कभी हल्के हाथों से
अपने सपनो का घर बनाकर,
घेर देती है एक सुंदर चौहद्दी से।

फिर अचानक कुछ सोचते हुए ,
कांपते हाथों से बनाकर
तुरंत मिटा देती है
अपने बचपन की गुड़िया का चित्र
और मूंछों वाला एक
डरावना चेहरा।

लाख तोपने – मूंदने पर भी
छिपा हुआ दुखों का अतल तालाब
मेड़ के एक कमजोर किनारे से
फूट पड़ता है अचानक, जैसे
असहनीय दुख से डबडबाकर
छलका था उसका दर्द
आंखों के किनारों से।

सारी कोमलता को,
सारी चित्रकारी के सैलाब को
बहने से पहले ही
समा लेती है अपने भीतर,
हल्की सी मुस्कराहट के
परदे के पीछे।
और तमाम चुनौतियों का
सामना करने के लिए,
मन को पल्लू के साथ सहेजकर,
बांध लेती है मजबूती से कमर में,
आटा गूंथती लड़की।

-गोपी

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