राष्ट्रीय जनता दल या फिर जनता दल यूनाइटेड के लिए असल दिक्कत तो विधायक दल के सदस्यों के विलय में है. इस विलय को लेकर तमाम तरह की आशंका है और उसमें खतरे भी हैं. हो सकता है कि कहीं जीतन राम मांझी की सरकार ही दांव पर न लग जाए. अगर नीतीश और लालू इस बाधा को पार करने में सफल हो जाते हैं तो फिर ये दोनों भाजपा के लिए चुनावी मैदान में बड़ी चुनौती पेश कर सकते हैं पर अगर किसी भी वजह से ऐसा नहीं हो पाया तो फिर सरकार पर भी खतरा पैदा हो सकता है और हो सकता है कि बिहार में या तो राष्ट्रपति शासन लगे या फिर भाजपा के सहयोग से किसी नई सरकार का गठन हो जाए. पहले यह समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर विधायक दल के विलय में दिक्कत क्या आने वाली है?
चुनावी साल में बिहार की राजनीति उम्मीद से कहीं ज्यादा संभावनाओं और आशंकाओं को जन्म देकर रोज नई-नई सुर्खियां बटोर रही है. अपनी पार्टियों का एक-दूसरे में विलय करने पर आमादा नीतीश कुमार और लालू प्रसाद सूबे में एक ऐसी राजनीतिक लाइन खींचने की तैयारी कर रहे हैं, जिससे पार पाना भाजपा और उसके सहयोगी दलों के लिए लगभग असंभव हो जाए. दोनों नेताओं ने अब सावर्जनिक तौर पर इसकी मुकम्मल तैयारी करने के प्लान का ऐलान भी शुरू कर दिया है. अखबारों और न्यूज चैनलों की हेडलाइंस में विलय की खबरों की भरमार है. विलय कब होगा, कैसे होगा, दिल्ली और पटना में इसका नेता कौन होगा, जैसे सवाल चटखारे लेकर चौपालों और सत्ता के गलियारों में कहे और सुने जा रहे हैं.चाय की दुकान पर बैठे पके-पकाए राजनीतिक कार्यकर्ताओं की अपनी-अलग समीक्षा है तो राजनीतिक पंडितों की अपनी अलग. कोई विलय को नरेंद्र मोदी के खिलाफ ब्रह्मास्त्र मान रहा है तो कोई इसे आत्मघाती कदम. कोई कहता है कि नरेंद्र मोदी का विजय रथ बिहार में नीतीश और लालू की जोड़ी रोक देगी तो कोई कह रहा है कि विलय ने भाजपा का रास्ता और भी आसान कर दिया है, देखिएगा नेता विपक्ष खोजना मुश्किल हो जाएगा. इन सब दावों और अनुमानों के बीच विलय प्रक्रिया के एक सबसे अहम पहलू पर फोकस कम हो रहा है.
यहां एक संवैधानिक हकीकत को समझना जरूरी है कि सदन के भीतर और सदन के बाहर राजनीतिक दलों की विलय प्रक्रिया के नियम अलग-अलग हैं. विलय के यही अलग-अलग नियम बहुत सारे पेंच पैदा कर रहे हैं और कई आशंकाओं को जन्म दे रहे हैं. राजनीतिक दलों के लिए सदन के बाहर विलय जितना आसान है, उतना सदन के भीतर नहीं. खासकर आज के राजनीतिक माहौल में जब पार्टी नेतृत्व या पार्टी से किसी न किसी को कोई न कोई
गिला-शिकवा जरूर होता है. खासकर बिहार के संदर्भ में यह बात और भी प्रासंगिक है. गौरतलब है कि राजनीतिक दलों के विलय के मामले में चुनाव आयोग ऑल पार्टी हिल लीडर कांफ्रेस बनाम कैप्टन डब्ल्यू ए संगमा व अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वार दिए गए निर्णय और दिशा निर्देश को मान्यता देता है, वहीं विधायक दल के सदस्यों की विलय प्रक्रिया एवं प्रावधान संविधान की दसवीं अनुसूची की धारा 4 में निर्धारित है. सदन के बाहर राजनीतिक दलों के विलय से संबंधित 1977 के उक्त निर्णय और दिशा-निर्देश में अन्य बातों के अलावा यह भी कहा गया है कि पार्टियों के विलय का अर्थ हुआ कि किसी पार्टी को समाप्त कर देना, मतलब पार्टी के मृत्युदंड पर हस्ताक्षर करना. इसलिए ऐसे दूरगामी परिणाम वाले फैसले के लिए पार्टी की प्राथमिक सदस्यों की सहमति अनिवार्य है. ऐसा निर्णय केवल कुछ नेताओं अथवा दल के किसी अंग द्वारा नहीं लिया जा सकता है. राष्ट्रीय जनता दल या फिर जनता दल यूनाइटेड के लिए इस मापदंड पर उतरने में कोई परेशानी नहीं है. जदयू ने इस तरह की प्रक्रिया को पूरा करना शुरू भी कर दिया है. यहां तक तो ठीक है पर असल दिक्कत तो विधायक दल के सदस्यों के विलय में है. इस विलय को लेकर तमाम तरह की आशंका है और उसमें खतरे भी हैं. हो सकता है कि कहीं जीतन राम मांझी की सरकार ही दांव पर न लग जाए. अगर नीतीश और लालू इस बाधा को पार करने में सफल हो जाते हैं तो फिर ये दोनों भाजपा के लिए चुनावी मैदान में बड़ी चुनौती पेश कर सकते हैं पर अगर किसी भी वजह से ऐसा नहीं हो पाया तो फिर सरकार पर भी खतरा पैदा हो सकता है और हो सकता है कि बिहार में या तो राष्ट्रपति शासन लगे या फिर भाजपा के सहयोग से किसी नई सरकार का गठन हो जाए. पहले यह समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर विधायक दल के विलय में दिक्कत क्या आने वाली है? विधायक दल के सदस्यों के विलय का प्रावधान संंविधान की दसवीं अनुसूची की धारा 4 में निर्धारित है. सदन के किसी सदस्य के मूल राजनीतिक दल का विलय हुआ तभी समझा जाएगा जब संबंधित विधान दल के कम से कम दो तिहाई सदस्य ऐसे विलय के लिए सहमत हों. सदन का कोई सदस्य पैरा 2 के उप पैरा एक के अधीन अयोग्य नहीं होगा यदि इसके मूल राजनीतिक दल का किसी अन्य राजनीतिक दल में विलय हो जाता है, और वह यह दावा करता है कि वह और उसके मूल राजनीतिक दल के अन्य सदस्य ने विलय स्वीकार नहीं किया है और एक अलग समूह के रूप में कार्य करने का फैसला किया है. संविधान के इन प्रावधानों को एक उदाहरण के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है. 2003 में जब समता पार्टी का जदयू में विलय हुआ था तो उस समय तीन सदस्यों ने उमाशंकर सिंह, भाई वीरेंद्र और गणेश पासवान ने विलय को स्वीकार नहीं किया था. विलय के विरोध के बावजूद इन विधायकों की सदस्यता नहीं गई और एक अलग गुट के तौर पर समता पार्टी भी बरकरार रह गई.
सदन के भीतर विलय के लिए एक-एक सदस्य को इस आशय का शपथ पत्र स्पीकर महोदय को देना अनिवार्य है. अब इन प्रावधानों के रहते जदयू व राजद के सभी विधायकों को पूरी तरह एकजुट कर उन्हें विलय के लिए राजी करना लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के लिए एक बड़ी चुनौती होगी. जदयू के भीतर बागी विधायकों के जो तेवर हैं वह किसी से छिपे हुए नहीं हैं. हाईकोर्ट से राहत मिलने के बाद पूरा ज्ञानू खेमा एक नए जोश के साथ नीतीश कुमार के खिलाफ गोलबंदी में जुट गया है. यह गुट अब पचास से अधिक विधायकों का दावा कर रहा है. अगर यह खेमा 30 विधायकों का भी जुगाड़ कर लेता है तो फिर पासा पलट सकता है. सूत्र बताते हैं कि ज्ञानू खेेमा जीतन राम मांझी के खिलाफ अभी कुछ नहीं बोलेगा. यह गुट चाहता है कि मांझी भी उनकी मुहिम का हिस्सा बनें और जदयू और भाजपा के पुराने गठबंधन को फिर से जिंदा कर पहले सरकार बनाई जाए और फिर चुनावी मैदान में उतरा जाए. चूंकि पार्टी को बरकरार रखने में सदस्यता जाने का खतरा नहीं है, इसलिए ज्ञानू खेमे को लग रहा है कि नीतीश और लालू से नाराज विधायक ज्यादा से ज्यादा संख्या में उनकी मुहिम में शामिल हो जाएंगे. ज्ञानू लगातार भाजपा नेताओं के संपर्क में हैं और भाजपा का खेमा भी इस पूरे अवसर को गंभीरता से देख रहा है. भाजपा सूत्रों का कहना है कि पार्टी अपने स्तर से कोई पहल नहीं करेगी. मौजूदा राजनीतिक परिस्थतियों के हिसाब से राज्य के हित में जो होगा, वह किया जाएगा. फिलहाल तो वेट एंड वाच की रणनीति लागू है. अब ऐसे हालात में दो तिहाई विधायकों को विलय के लिए तैयार करना नीतीश कुमार के लिए कठिन काम हो सकता है. जदयू के बागी विधायकों के नेता ज्ञानू सिंह कहते हैं कि हम 18 नहीं बल्कि पचास से ज्यादा हैं. उचित समय पर सभी को हमारी ताकत का एहसास हो जाएगा. नीतीश कुमार केवल अपनी जिद के कारण लालू प्रसाद के चरणों में जाकर बैठ गए हैं. बिहार की जनता इसका जवाब नीतीश कुमार को देगी. ज्ञानू कहते हैं कि हमारे सभी साथी विलय के खिलाफ हैं और सदन के भीतर व सदन के बाहर दोनों ही जगहों पर हमलोग इसका पूरा विरोध करेंगे. बागी विधायक अजीत कुमार कहते हैं कि जनता ने लालू प्रसाद के खिलाफ जनमत दिया था और हमलोगों को भेजा था, अब किस मुंह से हमलोग लालू प्रसाद के साथ जा सकते हैं. हम नीतीश के नापाक मंसूबे को ध्वस्त कर देंगे. रवींद्र राय कहते हैं कि हमें उच्च न्यायालय से न्याय मिलने का पूरा भरोसा था और हमें खुशी है कि हमें न्याय मिला.
उल्लेखनीय है कि हाईकोर्ट द्वारा चार विधायकों की सदस्यता बहाल कर देने से विलय प्रक्रिया को भारी आघात लगा है. 243 सदस्यीय विधानसभा में जदयू के 111 सदस्य हैं. भाजपा के 88 सदस्य हैं. आठ लोगों को जदयू ने पार्टी से निकाल दिया है. इन आठ विधायकों का अगर साथ भाजपा को मिलता है तो भाजपा के समर्थक विधायकों की संख्या 96 हो जाएगी. भाजपा को तीन निर्दलीय विधायकों का भी समर्थन है यानि कुल ताकत 99 हो सकती है. इसके अलावा 25 से 30 जदयू विधायकों ने भी अगर विलय का समर्थन नहीं किया और मूल पार्टी में बने रहे तो फिर मांझी सरकार पर गंभीर खतरा पैदा हो सकता है. अगर जदयू के पृथक समूह को भाजपा बाहर से समर्थन दे देती है तो पृथक समूह अपनी सरकार भी बना सकता है. अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर राष्ट्रपति शासन की आशंका भी पैदा हो सकती है. कहने का अर्थ यह है कि मामला पूरी तरह फंसा हुआ है. जिस तरह की संवैधानिक प्रकिया है और जिस तरह के समीकरण बिहार की राजनीति में बन रहे हैं, उनमें किसी भी संभावना या आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है. पूर्व विधान पार्षद पी के सिन्हा कहते हैं कि नीतीश कुमार ने मांझी सरकार के भविष्य को संकट में डाल दिया है. दल-बदल और पार्टियों के विलय को लेकर जो नियम हैं उनके मद्देनजर आज की राजनीतिक परिस्थतियों में राजद और जदयू का विलय नियम के तहत लगभग असंभव है. गलती का खामियाजा अभी हाईकोर्ट के फैसले से जदयू भुगत रही है. अगर विलय में भी नियमों की अवेहलना हुई तो फिर लेने के देने पड़ सकते हैं. जीतन राम मांझी ने हाईकोर्ट के फैसले का स्वागत कर कई तरह की अटकलों को जन्म दे दिया है. देखना है बिहार की राजनीति अब किस करवट बैठती है.