ग़ज़ाला तबस्सुम की ग़जलों में हर दिल के बयान आते हैं जैसे।वह अपनी सहज कहन से कमाल की शायरी का उदाहरण पेश करती हैं।आसनसोल में रहतीं हैं।संपादक हैं।आइए आनंद लें उनकी शायरी का।-ब्रज श्रीवास्तव
वो दोस्ती की जां से हरिक तार खींच कर
मेरा यक़ीन ले गया गद्दार खींच कर
दिन मोतियों से हाथ की मुठ्ठी में हैं बचे
रफ्तार ले गया गले से हार खींच कर
हर सिम्त भीड़ शोर शराबे किसे पसन्द
ले जाती हैं ज़रूरतें बाज़ार खींच कर ।
बस खामशी से जंग लड़े जा रहे थे हम
वो लड़ रहे थे लफ्ज़ की तलवार खींच कर
अफ़साना चल रहा था मगर, मौत ले गयी
ड्रामे के दरमियान ही किरदार खींच कर
ग़ज़ाला तबस्सुम
खो गए जाने कहाँ प्यार लुटाने वाले
याद आते हैं बहुत लोग पुराने वाले
کھو گئے جانے کہاں پیار لٹانے والے
یاد آتے ہیں بہت لوگ پرانے والے
इतनी महंगाई में बचता ही नहीं कुछ साहब
नौकरी एक है और चार हैं खाने वाले
اتنی مہنگائی میں بچتا ہی نہیں کچھ صاحب
نوکری ایک ہے اور چار ہیں کھانے والے
जिनको पाया था सुकूँ चैन गंवा कर हमने
सारे तमगे़ हैं महज़ रूम सजाने वाले
جنکو پایا تھا سکوں چین گواں کر ہم نے سارے تمغے ہیں محض روم سجانے والے
कुछ भी आसानी से हासिल नहीं होता है यहां
थे कतारों में खड़े सुब्ह से पाने वाले
کچھ بھی آسانی سے حاصل نہیں ہوتا ہے یہاں
تھے قطاروں میں کھڑے صبح سے پانے والے
इक तसल्ली के सिवा और न दे पाए थे कुछ
आज भी चुभते हैं आंसू मुझे, शाने वाले
ایک تسلی کے سوا اور نہ دے پائے تھےکچھ
آج بھی چبھتے ہیں آنسو مجھے شانے والے
खोखले रस्मों रिवाजों ने जताया अक्सर
हाथियों के ही नहीं दांत दिखाने वाले
کھوکھلے رسموں رواجوں نے جتایا اکسر.
ہاتھیوں کے ہی نہیں دانت دکھانے والے
कैसा इंसाफ किया करता है ऊपर वाला
भीगते रहते हैं ख़ुद छावनी छाने वाले
کیسا انصاف کیا کرتا ہے اوپر والا بھیگتے رہتے ہیں خود چھاونی
چھانے والے
ग़ज़ाला तबस्सुम
लिपटे हैं मुझ से यादों के कुछ तार ,और मैं
ठंडी हवाएं सुब्ह की, अख़बार ,और मैं
जगते रहे हैं साथ ही अक्सर तमाम शब
मेरी ग़ज़ल के कुछ नए अशआर ,और मैं
क्या जाने अब कहां मिलें, कितने दिनों के बाद
लग जाऊं क्या गले तेरे , इक बार और मैं
अपनी लिखी कहानी को ही जी रही हूँ अब
इक जैसा ही तो है मेरा किरदार ,और मैं
पहले तो ख़ूब तलवों को छाले अता हुए
अब हम सफ़र हैं रास्ता पुरखार ,और मैं
ग़म था न कोई इश्क़ो मुहब्बत की फिक्र थी
जीते थे ज़िन्दगी को मेरे यार , और मैं
अक्सर ही करते रहते हैं ख़ामोश गुफ़्तगू
लग कर गले से आज भी दीवार , और मैं।
ग़ज़ाला तबस्सुम
उड़ानों का हर इक मौक़ा सितमगर छीन लेता है
वो मुझको हौसला दे के,मेरे पर छीन लेता है
मुझे खैरात में देके वो अपने प्यार के लम्हे
मेरी नींदे मेरे ख़्वाबों के मंज़र छीन लेता है
किसी ने जाते जाते छीन ली ऐसी मेरी सांसे
कि जारी साल को जैसे दिसम्बर छीन लेता है
मिज़ाजों को बदलने की है चाहत इस क़दर इसको
थमा कर हाथ में गुंचे वो खंजर छीन लेता है
वो चाहे तो अता कर दे न हो जो कुछ मुक़द्दर में
अगर देना न चाहे तो वो दे कर छीन लेता है।
ग़ज़ाला तबस्सुम
कहने को तो गली गली में मस्ज़िद थी बुतख़ाने थे
लेकिन जो भी लोग मिले सब नफ़रत के दीवाने थे
लाज़िम ही था नशा हमारा,किस किस से बच पाते हम
रस्ते में ही उनका घर था, और कई मयख़ाने थे
ख़ामोशी को पहन अना जब देर तलक इठलाई थी
और उलझते चले गए वो जो मुद्दे सुलझाने थे।
नफ़रत का जब लगा मुखौटा एक तबाही आई थी
हाथ बढ़े थे शफ़क़त के भी ,खड़े हुए कुछ शाने थे
मौत चुनी थी जिस बेबस ने तन्हाई का मारा था
भीड़ बहुत थी अपनों की पर सब के सब बेगाने थे
नई उम्र की सोच नई है,वक़्त पुराना बीत गया
इश्क़ इबादत होता था, जब फ़रजा़ने दीवाने थे
बाद इबादत उल्फ़त के, जो तोहफा उसने बख़्शा था
मोती थे कुछ अश्क़ों के, या वो तस्वीह के दाने थे।
ग़ज़ाला तबस्सुम
टिप्पणी
गजाला तबस्सुम की गजलें समय को पहचानती है। समय की चिंताएं उनकी गजलों में बड़ी शिद्दत से आती है। अपने समय के विषय और संवेदनाएं बड़ी गहराई से उकेरती हैं। आज उनकी गजलों ने समां बांधा है। बधाइयां
सुधीर देशपांडे
बात वही सब पर कहने के तरीके यूँ की नई सी लगे हर बात …..
गजाला की ग़ज़लें ऐसी ही है ।अपने आसपास के परिवेश को समेटती ,महसूस करतीं और गज़लों में पिरो कर रख देती ।
जो दिखा सब लिखा …. फूल कांटे सब …
समाज की विसंगतियों पर तंज
खोखले रस्मों रिवाज़ो ने जताया अक्सर
हाथियों के ही नही दांत दिखाने वाले ।
अहा … क्या मारा है शेर ।तीखा सा । बहुत सी घटनाएं याद आ गई ।
ग़ज़ल के तेवर अलग ही तरह के ।
सभी रचनाएँ शानदार ,जानदार .. रौबदार ।
बधाई …💐💐
मधु सक्सेना
नमस्ते गजाला जी!आज आपको यहाँ पाकर बहुत अधिक खुशी हुई । फेसबुक पर तो आपको अगर फेसबुक खोला तो लगभग हर दिन पढ़ते ही हैं । आप गज़ब का लिखती हैं ।
हर गजल और उनके हर शेर एक से बढ़कर एक हैं पहली गजल का पहला शेर-
वो दोस्ती की जां से हरिक तार खींच कर
मेरा यकीन ले गया गद्दार खींच कर
हर शेर अपने आप में एक पूरे भाव को व्यक्त करता है, इसीलिए शेर अपने पूरे संवेदनाओं सहित दिल पर गहरे तक असर करते हैं।
बहुत ही सामयिक विषय चुने हैं आपने
हर सिम्त भीड़ शोर-शराबे किसे पसंद ले जाती हैं जरूरतें बाजार खींचकर
सच में भीड़ में कौन जाना चाहता है लेकिन जरूरत ही बाजार ले जाती है
अफसाना चल रहा था मगर मौत ले गई
ड्रामे के दरमियान ही किरदार खींचकर
यह द्रवित कर गया। मानो हर शख़्स किरदार था जिन्दगी के अफसाने में और न जाने किरदारों को कोरोना मृत्यु बन बीच से ही उठा ले गई।😞
दूसरी गजल
इस गजल का हर शेर 1-1 लाख का है ।जिंदगी के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण विषयों को इसमें उठाया है।मानो सचबयानी हो।
गुजरे हुए लोगों सा प्यार ढूँढने पर भी नहीं मिलता अब।
कितनी बड़ी और सच्ची बात-एक कमाने वाला और चार खाने वाले।क्या खाएं, क्या बचाएँ?
सुकून चैन गवाँ कर जिन तमगों को इकठ्ठा करते हैं बाद में उनसे सिर्फ कमरा ही सजता है।
इतनी मँहगाई में बचता ही नहीं कुछ साहब नौकरी एक है और चार हैं खाने वाले
जिनको पाया था सुकूँ चैन गंवा कर हमने
सारे तमग़े हैं महज़
रूम सजाने वाले
कुछ भी आसानी से हासिल नहीं होता है यहां
थे कतारों में खड़े सुब्ह से पाने वाले
खोखले रस्मों रिवाजों ने जताया अक्सर हाथियों के ही नहीं दांत दिखाने वाले
कैसा इंसाफ किया करता है ऊपर वाला भीगते रहते हैं खुद छावनी छाने वाले
तीसरी गजल
यह गजल एक जीवन की गाथा की तरह है।
मानो किसी की हमबयानी की हो।जैसे आपबीती । कुछ अपनी सी लगी।
चौथी गजल
इस गजल का कई शेर आज के महत्वपूर्ण मुद्दों के साक्षी है
कहने को तो गली गली में मस्जिद थी बुतख़ाने थे
लेकिन जो भी लोग मिले सब नफ़रत के दीवाने थे
पांचवी गजल
यह गजल अपनी बेबसी को व्यक्त करती महसूस हुई ।
किसी ने जाते-जाते छीन ली ऐसी मेरी सांसे कि जारी साल को जैसे दिसंबर छीन लेता है
आज आपको पढ़कर दिल खुश हो गया। यह अप्रत्याशित खुशी रही। बहुत-बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएँ आपको ।
आभार साकीबा ।🙏
नीलिमा करैया
बस खामशी से जंग लड़े जा रहे थे हम
वो लड़ रहे थे लफ्ज़ की तलवार खींच कर
अफ़साना चल रहा था मगर, मौत ले गयी
ड्रामे के दरमियान ही किरदार खींच कर
ग़ज़ाला तबस्सुम
*इन पंक्तियों में जीवन का विराट अनुभव छुपा हुआ है। अद्भुत पंक्तियां हैं ये। बार-बार इन्हें पढ़ने का जी करता है। कोई भी इन्हें पोस्टर बनाकर दीवारों पर टांग सकता है।
नरेश अग्रवाल
आ.गजाला जी की सभी ग़ज़लें एक से बढ़कर एक बेहतरीन हैं ।आपकी सिद्धहस्त कलम अपने परिवेश के उन विषयों का चयन करती है जिनपर अक्सर किसी आमजन की नज़र नहीं पहुंँचती । सामाजिक विषमताओं को उजागर करने के साथ संवेदनाओं को भी उकेरती है । वैसे तो आपकी हर ग़ज़ल हर शे’र बहुत मानीखेज हैं लेकिन कुछ शे’र बहुत प्रभावित करते हैं यथा-
हर सिम्त भीड़ शोर शराबे किसे पसंद ।
ले जातीं हैं ज़रूरतें बाज़ार खींच कर ।।
बस खामशी से जंग लड़े जा रहे थे हम ।
वो लड़ रहे थे लफ़्ज़ की तलवार खींच कर ।।
आज की हक़ीक़त बयां करता हुआ शे’र
इतनी मंँहगाई में बचता ही नहीं कुछ साहब ।
नौकरी एक है और चार हैं खाने वाले ।।
अपनी लिखी कहानी को ही जी रही हूंँ अब ।
इक जैसा ही तो है मेरा किरदार और मैं ।।
पहले तो खूब तलवों को छाले अता हुए ।
अब हम सफ़र हैं रास्ता पुरखार और मैं ।।
कितना सटीक तंज है
कहने को तो गली गली में मस्जिद थीं बुतखाने थे ।
लेकिन जो भी लोग मिले सब नफ़रत के दीवाने थे ।।
यह शे’र भी कमाल हुआ है
उड़ानों का हर इक मौक़ा सितमगर छीन लेता है ।
वो मुझको हौसला दे के मेरे पर छीन लेता है ।।
ला ज़वाब और बेहतरीन ग़ज़़लों के लिए गजाला जी को बहुत बधाई और बहुत आभार
सा की बा
हरगोविंद मैथिल
गजाला दी की उम्दा गजलें …कहने का अंदाज निराला…
दिन मोतियों से हाथ की मुट्ठी में हैं बचे
रफ्तार ले गया गले से हार खींच कर।
क्या खूब कहा!
इतनी म॔हगाई में बचता ही नहीं कुछ साहब
नौकरी एक हैं और खाने वाले चार।
परिवार की माली कितने सधे शब्दों में कह दी।
पहले को खूब तलवों को छाले अता हुये
अब हम सफर हैं रास्ता पुखरार,और मैं।
नफरत का जब लगा मुखौटा एक तबाही आई थी
हाथ बढ़े थे शफ़क़त के भी, खड़े हुये कुछ शाने थे
एक से बढकर एक खूबसूरत गजलें।
बहुत-बहुत बधाई, गजाला दी।
बहुत-बहुत आभार साकीबा मंच ।
बबीता गुप्ता