page-one-backअभी कुछ दिन पहले अचानक एक खबर आई कि थलसेनाध्यक्ष जनरल दलबीर सिंह सुहाग ने केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह पर संगीन आरोप लगाए हैं. अंग्रेजी अखबार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने लिखा कि जनरल दलबीर सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में दिए एक हलफनामे में कहा है कि साल 2012 में तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह ने उन्हें एक रहस्यमयी योजना, बुरी मंशा और दंड देने के मकसद से निशाना बनाया. इसका एकमात्र मकसद आर्मी कमांडर के रूप में उनके प्रमोशन को रोकना था. इस खबर को मीडिया के एक वर्ग ने सनसनीखेज बताकर प्रस्तुत किया. समझने वाली बात ये है कि रहस्यमयी योजना, मंशा व मकसद जैसे शब्दों के इस्तेमाल से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह मात्र अटकलबाजी है, अनुमान है और कहें तो निराधार कल्पना भी हो सकती है. सवाल ये है कि रहस्यमयी योजना, मंशा और मकसद को साबित करने के लिए क्या जनरल सुहाग के पास कोई प्रमाण है? लेकिन मीडिया के एक धड़े ने इस हलफनामे को ही अंतिम सत्य मानकर दुष्प्रचार शुरू कर दिया. किसी ने भी हलफनामे की सच्चाई की तहकीकात नहीं की. ऐसा माहौल बन गया कि अलग-अलग पार्टी के नेताओं ने जनरल वीके सिंह का इस्तीफा भी मांग लिया. किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं कि जनरल सुहाग के हलफनामे की सच्चाई क्या है? चौथी दुनिया ने इस हलफनामे की सच्चाई जानने के लिए तहकीकात की. हलफनामे में कही गई हर बात की विवेचना की. हमारी तहकीकात से पता चला कि मीडिया ने इस हलफनामे को लेकर जो खबरें फैलाई, उसमें कई बातें तोड़-मरोड़ के पेश की और कई बातें छिपा ली, जिसे हम स्पष्ट तौर पर भ्रामक प्रचार कह सकते हैं. जिस तरह से इस खबर को प्रायोजित तरीके से पेश किया गया उससे साफ है कि इसका मकसद जनरल वीके सिंह को बदनाम करना था. दो प्रमुख बातें जो मीडिया ने छिपाई, उसमें पहली बात यह कि सुप्रीम कोर्ट में दिया गया जनरल सुहाग का हलफनामा कोई नया नहीं है. वो इस हलफनामे को 2012 में आर्म फोर्स ट्रिब्यूनल में पहले भी जमा कर चुके हैं. दूसरी बात यह कि उन्होंने ये हलफनामा सेनाध्यक्ष के रूप में नहीं, बल्कि निजी तौर पर कोर्ट में जमा किया है. मतलब यह कि इस हलफनामे का थलसेनाध्यक्ष नामक संस्था से कोई मतलब नहीं है. इसलिए, इस हलफनामे को सच्चाई की कसौटी पर कसना जरूरी है. चौथी दुनिया को इस तहकीकात के दौरान जो जानकारियां मिली हैं, वो हैरान करने वाली हैं.

हलफनामे का सच  

सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि आखिर यह मामला है क्या? जनरल सुहाग तो अब सेनाध्यक्ष भी बन गए, तब उन्हें यह कहने की जरूरत क्यों पड़ी कि उनका प्रमोशन रोका गया? इसके साथ ही जनरल सुहाग को सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देने की जरूरत क्यों पड़ी? दरअसल, यह मामला पुराना है और जनरल सुहाग का हलफनामा भी पहले का ही है. हकीकत यह है कि जनरल सुहाग का हलफनामा जनरल वीके सिंह पर आरोप नहीं है, बल्कि इसपर केंद्रित है कि जनरल सुहाग सेनाध्यक्ष क्यों बने और वो कैसे दोष-मुक्त हैं, इसकी दलील है. दरअसल, लेफ्टिनेंट जनरल सुहाग के ख़िला़फ लेफ्टिनेंट जनरल दस्ताने ने मुक़दमा किया था, जिसमें उन्होंने सुहाग को सेनाध्यक्ष बनाए जाने को गैरकानूनी और फेवरिटिज्म का आरोप लगाया था. यह मामला पहले आर्म फोर्स ट्रिब्यूनल में गया था, जहां जनरल सुहाग ने अपने बचाव में 2012 में ये हलफनामा दिया था. अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है. कोर्ट ने जनरल सुहाग को अपना पक्ष रखने को कहा. उसी के जवाब में जनरल सुहाग ने अपने पुराने हलफनामे को कोर्ट में पेश किया. ऐसा प्रतीत होता है कि इस हलफनामे को जान-बूझकर लीक किया गया. कुछ चुनिंदा पत्रकारों तक इसे पहुंचाकर सनसनी फैलाने का प्रयास किया गया. यह मामला पहले भी मीडिया ने उछाला था, उस वक्त भी राजनीतिज्ञों का एक वर्ग जनरल वीके सिंह का इस्ती़फा मांगने के लिए मैदान में कूद पड़ा था. तब भी देश के महान पत्रकारों ने इसी तरह दुष्प्रचार किया था, जैसा कि वे इस बार कर रहे हैं.

हैरानी की बात तो ये है कि सब जनरल सुहाग द्वारा लगाए गए आरोपों की तो बात करते हैं, लेकिन कोई यह मुद्दा नहीं उठाता कि जनरल सुहाग पर क्या-क्या आरोप हैं और उनके प्रमोशन को रोकने की प्रक्रिया और वजह क्या थी? इस मामले को समझने के लिए जोरहाट ऑपरेशन का सच और सेना के 3 कोर के इंटेलिजेंस यूनिट के कृत्यों को जानना जरूरी है. ये सब हम इस लेख के साथ छाप रहे हैं. जनरल दलबीर सिंह सुहाग पर कई तरह के आरोप लगे हैं. कुछ आरोप जनरल दास्ताने ने लगाए हैं, जिसकी सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में चल रही है. कुछ मामलों में नॉर्थ इस्ट की अदालतों में फैसला होना है. जनरल दलबीर सिंह सुहाग पर आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर्स एक्ट के उल्लंघन का आरोप है. आरोप यह है कि दीमापुर की इंटेलिजेंस यूनिट ने उनकी नाक के नीचे कई शर्मनाक कारनामों को अंजाम दिया है. इस यूनिट का नेतृत्व कर्नल श्रीकुमार के पास है, जो सीधे लेफ्टिनेंट जनरल सुहाग को रिपोर्ट करते हैं. आरोप यह है कि सेनाध्यक्षों का लाइन ऑफ सक्सेशन यानी उत्तराधिकारियों का अनुक्रम एक साज़िश का हिस्सा है. सवाल तो ये है कि किसी भी मामले में कोर्ट का फैसला अगर जनरल दलबीर सिंह के खिलाफ आता है तो रक्षा मंत्रालय के साथ-साथ सरकार को भी शर्मसार होना पड़ेगा. उन्हें जवाब देते नहीं बनेगा कि ये चूक कैसे हो गई. स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया के नाम पर हथियार-माफिया की आवाज बुलंद करने वालों को सनसनी फैलाने से पहले सभी घटनाओं की जानकारी देनी चाहिए जिसके कारण जनरल सुहाग पर ये गंभीर आरोप लगे हैं.

जोरहाट पर लीपापोती

इस पूरे प्रकरण के केंद्र में जोरहाट की घटना है, जिसमें सेना की एक यूनिट पर डकैती करने का आरोप है. हैरानी ये है कि इस मामले में किसी अधिकारी पर आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई. उन्हें सिर्फ डांट-फटकार कर छोड़ दिया गया. दरअसल, इस्टर्न-कमांड के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह ने जोरहाट ऑपरेशन की तहकीकात के लिए कोर्ट ऑफ इंक्वायरी गठित की थी. एक ब्रिगेडियर रैंक के अधिकारी से इसकी जांच कराई गई. सवाल ये है कि क्या एक ब्रिगेडियर अपने से वरिष्ठ किसी लेफ्टिनेंट जनरल की भूमिका की जांच कर सकता है? इसलिए, जोरहाट की घटना पर लीपापोती करने के मामले में शक की सुई सेना के 3 कोर के जनरल ऑफिसर कमांडिंग यानी कमांडिंग ऑफिसर यानी चीफ (जीओसी) लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह सुहाग पर भी थी. ये स्पष्ट है कि किसी लेफ्टिनेंट जनरल की भूमिका और गलतियों की तहकीकात एक ब्रिगेडियर नहीं कर सकता है. खासकर तब, जब ये पता हो कि वो इस्टर्न कमांड के चीफ (जीओसी इन सी) का नजदीकी है. क्या जोरहाट जैसी शर्मनाक घटना की तहकीकात के लिए गठित कोर्ट ऑफ इंक्वायरी   बहानेबाजी या छलावा मात्र थी? जोरहाट घटना की वजह से भारतीय सेना की साख दांव पर लगी थी, इसलिए तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने सेना की प्रतिष्ठा और अधिकारियों की जवाबदेही तय करने के लिए निर्देश दिए थे. ये बात और है कि जनरल वीके सिंह के रिटायर होने के बाद जिस ब्रिगेडियर ने जोरहाट की जांच की, उन्हें पदलाभ दिया गया. वो अब इस्टर्न सेक्टर में लेफ्टिनेंट जनरल अभय कृष्ण के अंदर एक डिवीजन का नेतृत्व कर रहे हैं. लेफ्टिनेंट जनरल अभय कृष्ण के खिलाफ भी जोरहाट की घटना को लेकर कारण बताओ नोटिस और डीवी बैन लगाया गया था क्योंकि उस वक्त वे 3 कोर हेडक्वार्टर के ब्रिगेडियर जनरल थे, जिसके तहत 3 सीआईएसयू काम कर रही थी.

मामला दर्ज हो गया. पुलिस भी सुस्त पड़ गई. कोई सुराग या सबूत मिलना मुश्किल लग रहा था. लेकिन, करीब एक सप्ताह बाद इस घटना में एक हैरतअंगेज मोड़ आया. पूना गोगोई के बड़े बेटे के जिस फोन को डकैत उठा ले गए थे, उससे किसी ने कॉल किया. यह फोन कहां से किया गया, यह तो पता नहीं चला, लेकिन जिसे किया गया, वह सामने आ गया. यह कॉल हरियाणा के किसी नंबर पर की गई थी. इसके बाद एक पुलिस टीम हरियाणा रवाना होती है, तहक़ीक़ात करती है. जोरहाट की एसपी संयुक्ता पाराशर को बताया जाता है कि यह फोन कॉल आर्मी के एक हवलदार संदीप थापा ने अपनी पत्नी और मां को की थी. तहकीकात से पता चला है कि संदीप थापा दीमापुर के रंगापहाड़ स्थित 3 कोर इंटेलिजेंस एंड सर्विलांस यूनिट का सदस्य है. इस यूनिट का अधिकार क्षेत्र असम, नगालैंड और मणिपुर है और यह सीधे तौर पर लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह सुहाग के कमांड के अंदर आता है. एसपी संयुक्ता पाराशर ने सुहाग से सीधे बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने पुलिस को सहयोग करने से मना कर दिया. इस बीच संदीप थापा पुलिस की पकड़ में आ जाता है. पुलिस ने उसे गिरफ्तार नहीं किया, स़िर्फ पूछताछ की. इस पूछताछ में हवलदार संदीप थापा ने सब कुछ उगल दिया. पुलिस और सेना में यह ख़बर आग की तरह फैल गई. सबको पता चल गया कि पूना गोगोई के घर में जिन लोगों ने इस वारदात को अंजाम दिया, वे सेना के लोग थे. इस घटना में इंटेलिजेंस कोर के पंद्रह लोग शामिल थे, जो पूना गोगोई के घर दो निजी वाहनों से पहुंचे थे. जो महिला इस टीम का नेतृत्व कर रही थी, वह कोई और नहीं, बल्कि कैप्टन रुबीना कौर कीर है. सबकी नज़र इस 3 कोर इंटेलिजेंस यूनिट के कमांडर कर्नल गोविंदन श्रीकुमार पर जा टिकी. हालांकि श्रीकुमार इस रेडिंग टीम का हिस्सा नहीं थे, लेकिन जब पुलिस ने उनकी फोन डिटेल्स निकाली, तो पता चला कि इस घटना से पहले और बाद में वे कैप्टन रुबीना कौर से लगातार बातचीत कर रहे थे.

इस यूनिट से दो चूक हुई. एक तो इसने बिना किसी लड़ाकू दस्ते और स्थानीय पुलिस को जानकारी दिए बिना किसी नागरिक के घर में रेड किया. दूसरी ग़लती यह कि आतंकी को पकड़ने के नाम पर घर के लोगों को प्रताड़ित किया और डकैती की. तीसरी गलती ये हुई कि इस पूरे मामले को छिपाने की कोशिश की गई. जब सेना की साख पर दाग़ लगने लगा और दबाव बढ़ने लगा, तो इस मामले को शांत करने की कोशिश भी की गई. पूना गोगोई को उनकी पिस्टल समेत घर से उठाए गए कई सामान वापस कर दिए गए, लेकिन कारतूस और जेवर गायब थे. वे कहां गए, यह किसी को पता नहीं. पुलिस को लेफ्टिनेंट जनरल सुहाग ने बताया कि अब यह मामला सेना देखेगी, क्योंकि यह पुलिस के अधिकार क्षेत्र के बाहर है. कर्नल श्रीकुमार भी कमाल के व्यक्तित्व हैं. बहुत पहुंचे हुए अधिकारी हैं. नॉर्थ-ईस्ट आने से पहले वे थलसेना अध्यक्ष जेजे सिंह के ओएसडी यानी ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी यानी थलसेना अध्यक्ष के सबसे निकटतम एवं विश्वासी अधिकारी थे. जनरल जेजे सिंह जब अरुणाचल प्रदेश के गवर्नर बने, तो श्रीकुमार भी 3 कोर के कमांडिंग ऑफिसर बनकर दीमापुर आ गए. बताया जाता है कि श्रीकुमार सीधे जनरल बिक्रम सिंह और लेफ्टिनेंट जनरल सुहाग को रिपोर्ट करते हैं. जनरल बिक्रम सिंह उस वक्त ईस्टर्न कमांड के हेड थे. यह भी ख़बर आई कि जब जनरल वीके सिंह की जन्म तिथि का विवाद शुरू हुआ, तो श्रीकुमार दिल्ली आकर मीडिया में ख़बरें लीक करने का काम करते थे. जोरहाट की घटना कोई अपवाद नहीं है. वैसे यह मामला अदालत में चल रहा है. ऊपर दिया गया विवऱण शिकायत का हिस्सा है.

तीन मणिपुरी युवकों की हत्या का मामला

एक और मामला है, जो जोरहाट की घटना से ज़्यादा शर्मनाक है. यह मामला मणिपुर हाईकोर्ट में चल रहा है. यह मामला मणिपुर के तीन नौजवानों के अपहरण और उनकी हत्या का है. इसमें भी आरोप के घेरे में यही 3 कोर है. इस मामले में लेफ्टिनेंट जनरल सुहाग और कर्नल गोविंदन श्रीकुमार का नाम है. यह घटना 10 मार्च, 2010 की है. दीमापुर के चारमील इलाके से तीन युवकों का अपहरण होता है. फीजम नौबी, आर के रौशन और थौनौजम प्रेम नामक इन युवकों के बारे में पुलिस को ख़बर मिलती है कि उनका अपहरण हो गया है. 17 मार्च, 2010 को पुलिस को तीन शव मिलते हैं. तीनों के शरीर गोलियों से छलनी थे. उनकी पहचान होती है, तो पता चलता है कि ये वही तीनों हैं, जिनका 10 मार्च को अपहरण हुआ था. पुलिस अपनी एफआईआर में 3 कोर इंटेलिजेंस यूनिट का नाम डाल देती है. इस बीच 3 कोर के सेकेंड-इन-कमांड, यानी कर्नल श्रीकुमार के ठीक नीचे के अधिकारी, मेजर टी रवि किरण ने 12 मार्च, 2010 को आर्मी चीफ और ईस्टर्न कमांड के चीफ को एक पत्र लिखा. इस पत्र में उन्होंने लिखा कि 10 मार्च की रात तीन मणिपुरी नौजवानों को लाया गया, उन्हें टॉर्चर किया गया और फिर मेस के पीछे उन्हें गोली मार दी गई. इस चिट्‌ठी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. अब सवाल यह है कि इस पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? इस मामले में किसे बचाया जा रहा था? क्यों बचाया जा रहा था?

जब कोई कार्रवाई नहीं हुई तो मेजर टी रवि किरण ने 25 जनवरी, 2012 को एक बार फिर सभी वरिष्ठ अधिकारियों को चिट्‌ठी लिखी, लेकिन उस वक्त जनरल वीके सिंह सेनाध्यक्ष थे. उन्होंने ईस्टर्न कमांड को जांच के निर्देश दिए. ईस्टर्न कमांड ने 3 कोर को जांच के निर्देश दे दिए. जांच के दौरान मेजर टी रवि किरण ने बताया कि इस हत्याकांड के पीछे कर्नल गोविंदन श्रीकुमार की यूनिट थी. जोरहाट की घटना के बाद असम के चीफ मिनिस्टर तरुण गोगोई ने थलसेना अध्यक्ष जनरल वीके सिंह से बात की और इस घटना में शामिल सैनिकों के ख़िला़फ कार्रवाई की मांग की. जनरल वीके सिंह के दबाव के चलते बिक्रम सिंह ने इस पर कोर्ट ऑफ इंक्वायरी बैठाई, जिसका नेतृत्व ब्रिगेडियर ए भुइया को सौंपा गया. एक ब्रिगेडियर रैंक के अधिकारी से जांच इसलिए कराई गई, ताकि इस मामले की आंच लेफ्टिनेंट जनरल सुहाग तक न पहुंचे, जबकि यह यूनिट उनके अधिकार क्षेत्र में आती है, तो सबसे पहली ज़िम्मेदारी उनकी ही बनती है. यहां तो मामला ही उल्टा हो गया. जिसकी ज़िम्मेदारी बनती है, उसे तो दूर रखा ही गया, लेकिन जिन लोगों ने इस ग़ैर क़ानूनी और अनैतिक घटना को अंजाम दिया, उन्हें भी छोड़ दिया गया. इस बीच पूना गोगोई ने गुवाहाटी हाईकोर्ट में गुहार लगा दी. उन्हें सेना की कोर्ट ऑफ इंक्वायरी के सामने गवाह बनाकर पेश किया गया. पूना गोगोई का कहना है कि कैप्टन रुबीना कौर कीर ने बाद में यह धमकी भी दी कि अगर कोई सबूत दिया, तो वह उन्हें किसी दूसरे केस में फंसा देगी, जबकि यह बयान प्रीसाइडिंग ऑफिसर के सामने दिया गया, लेकिन इस पर कोई एक्शन नहीं हुआ. जैसे कि धमकी देना देश में क़ानूनन कोई जुर्म नहीं है. इस ख़बर को इंडिया लाइव टीवी पर भी डिटेल में दिखाया गया था. बताया जाता है कि इन लोगों की योजना पूना गोगोई का अपहरण करके उन्हें किसी आतंकी संगठन के हवाले करना था और यह सारा काम सेना में काम करने वाले पूना गोगोई के प्रतिद्वंद्वी ठेकेदार निर्मल गोगोई के इशारे पर किया गया. मामला टलता गया और सुनवाई होती रही. गुनहगारों को बचाने के लिए सारे प्रयत्न किए गए. आरोप यह है कि लेफ्टि. जनरल सुहाग ने कर्नल श्रीकुमार को बचाने के लिए सेना द्वारा किए गए इस ग़ैर क़ानूनी और अनैतिक ऑपरेशन पर पर्दा डालने की कोशिश की. इन सबको केवल इंतज़ार था जनरल वीके सिंह की सेवानिवृत्ति का, जो जन्म तिथि विवाद की वजह से एक साल पहले हो गई. बिक्रम सिंह सेनाध्यक्ष बन गए, लेफ्टि. जनरल सुहाग उप-सेनाध्यक्ष. अगर इन सवालों को उठाना सेनाध्यक्ष की नियुक्ति का राजनीतिकरण है, तो उस वक्त के रक्षा मंत्री अरुण जेटली साहब को ही बताना चाहिए कि जोरहाट की शर्मनाक घटना और तीन मणिपुरी युवकों की हत्या का दोषी कौन है? वैसे देश के क़ानून के मुताबिक़ डकैती की सज़ा 5 साल होती है, लेकिन इन लोगों का गुनाह तो स़िर्फ डकैती ही नहीं था. इन्होंने डकैती के साथ-साथ सेना की इज्ज़त और साख भी तार-तार कर दी. इन घटनाओं की वजह से ही नॉर्थ-ईस्ट का इलाक़ा और वहां के लोग भारत से विमुख होते जा रहे हैं. लेकिन, सरकार इन घटनाओं में जवाबदेही तय करने और सजा देने के बजाय जिम्मेदार लोगों को ईनाम दे रही है. इस घटना को तो देश तोड़ने की साज़िश के रूप में देखना चाहिए. ऐसी ही घटनाओं की वजह से आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर्स एक्ट पर सवालिया निशान लगता रहा है.

इस घटना की पुष्टि सेना की जांच से भी हुई है. दिसंबर 2013 में कोर्ट ऑफ इंक्वायरी का फैसला आया. हैरानी की बात यह है कि जोरहाट के मामले में स़िर्फ हवलदार संदीप थापा पर कार्रवाई हुई. उसे सेना से निष्कासित कर दिया गया. उस टीम का नेतृत्व करने वाली कैप्टन रुबीना के साथ-साथ उसमें शामिल लोगों को फटकार लगाई गई और कर्नल श्रीकुमार के प्रति असंतोष व्यक्त किया गया. क्या रक्षा मंत्रालय को इस मामले पर फिर से गौर करने की जरूरत नहीं है? क्या हवलदार थापा अकेले ही पूना गोगोई के घर पहुंचा था? अगर हवलदार थापा के साथ कैप्टन रूबीना भी थी तो उनका जुर्म हवलदार थापा से कम कैसे है? इस ऑपरेशन से सेना कलंकित हुई लेकिन यूनिट के चीफ के प्रति सिर्फ असंतोष व्यक्त करने का क्या मतलब है? सवाल तो ये पूछा जाना चाहिए कि क्या उस वक्त सेना किसी गैंग की तरह काम कर रही थी? जिन बड़े-बड़े अधिकारियों के नाम के नीचे इस शर्मनाक अपराध को अंजाम दिया गया क्या उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है?

अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि पिछले कुछ सालों से सेना में बड़ी-बड़ी नियुक्तियों के दौरान सरकार की तरफ से लगातार चूक हो रही है. ये भी कहा जा सकता है कि ये चूक नहीं, बल्कि साजिश का शिकार या साजिश में शामिल होकर सरकार अनाप-शनाप फैसले ले रही है. जब जनरल बिक्रम सिंह को सेनाध्यक्ष नियुक्त किया गया था, तब उनके ख़िला़फ दो मामले विचाराधीन थे. एक मामला जम्मू-कश्मीर में फर्ज़ी एनकाउंटर का था, जो हाईकोर्ट में चल रहा था. दूसरा मामला उनके नेतृत्व वाली शांति सेना द्वारा कांगो में महिलाओं के यौन शोषण का था. दोनों के फैसले आने बाकी थे, लेकिन फिर भी मनमोहन सिंह ने उन्हें सेनाध्यक्ष नियुक्त कर दिया. फिर मनमोहन सिंह सरकार ने जाते-जाते लेफ्टि. जनरल सुहाग को सेनाध्यक्ष नियुक्त कर दिया. जनरल सुहाग पर भी आरोप थे. संगीन आरोप थे. ये मामले अदालत में विचाराधीन थे और आज भी मामला कोर्ट में चल रहा है. हकीकत यह है कि भारतीय सेना पर माफिया का शिकंजा है. सरकार किसी की भी हो. प्रधानमंत्री कोई भी बन जाए. रक्षा मंत्री कोई भी हो. फैसले वही होते हैं जो यह माफिया चाहता है. हम यह कह कर इन मामलों पर पर्दा नहीं डाल सकते हैं कि सेना को विवाद व राजनीति से दूर रखना चाहिए. सेना पर सवाल नहीं उठाना चाहिए. इसका मतलब यह नहीं है कि सच्चाई पर पर्दा डाल दिया जाए, आंखें बंद कर ली जाएं. सवाल तो सिर्फ एक ही है कि अगर कोई सेना की यूनिट बेगुनाहों की हत्या करती है, लूटपाट करती है और उसके बाद यूनिट का प्रमुख उन्हें बचाने का प्रयास करता है, तो क्या उसे जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए?

जोरहाट की शर्मनाक घटना

सुरजीत गोगोई उर्फ पूना गोगोई जोरहाट के निवासी हैं. वे आर्मी के लिए ठेके का काम करते हैं. इस कहानी की शुरुआत तब होती है, जब 20 दिसंबर, 2011 की रात कुछ लोग पूना गोगोई के घर में जबरदस्ती घुस जाते हैं. उस रात वे अपने घर में नहीं थे. वे गुवाहाटी में थे. ये लोग पूना गोगोई के घर के पिछले दरवाजे को तोड़कर अंदर दाख़िल हुए थे. घर में केवल उनकी पत्नी रेणु और तीन बच्चे थे. दो बेटे और एक बेटी. रात का समय था. घर में सब सो रहे थे. अचानक घर के अंदर अजनबी लोगों को देखकर वे सब डर गए और रोने लगे. इन लोगों ने सभी को बिस्तर से खींचकर बाहर निकाला और उनके हाथ बांधकर उन्हें टीवी वाले कमरे में बंद कर दिया. ये लोग पूना गोगोई को ढूंढ रहे थे. बच्चों को डरा-धमका कर उनसे उनके पिता का पता पूछ रहे थे. उन लोगों ने घर का कोना-कोना छान मारा, लेकिन पूना गोगोई कहीं नहीं मिले. इसके बाद उन लोगों ने बड़े बेटे को धमकी दी कि अगर उसने अपने पिता का ठिकाना नहीं बताया, तो सभी लोगों को जान से मार दिया जाएगा. उन लोगों के चेहरे ढंके हुए थे. किसी का चेहरा नहीं दिख रहा था. लेकिन घर वालों ने इस गैंग में सिर्फ एक का चेहरा देखा था. वह एक महिला थी, जिसने बातचीत के दौरान अपने चेहरे पर से कुछ समय के लिए मास्क हटा लिया था. वही महिला सभी लोगों को निर्देश दे रही थी. महिला के निर्देश पर वे सभी घर की चाबियां लेकर सभी आलमारियों की तलाशी ले रहे थे. वे लोग पूना गोगोई के घर से एक लाइसेंसी पिस्टल, साढ़े छह लाख रुपये के जेवर और क़रीब डेढ़ लाख रुपये नकद उठा ले गए. साथ में वे एक लैपटॉप और चार मोबाइल फोन भी ले गए.

अगले दिन सवेरे पूना गोगोई जब वापस आए, तो घर का नजारा देखकर सन्न रह गए. घर के सभी लोग डरे-सहमे थे. वे सीधे पुलिस स्टेशन पहुंचे और शिकायत दर्ज कराई, घर से लूटे गए सभी सामानों का ब्यौरा दिया. लेकिन, थाने में उन्हें एक ऐसी जानकारी मिली, जिससे उनका दिमाग हिल गया. थाने की पीसीआर वैन ने जानकारी दी कि कल रात दो बजे के क़रीब उनकी मुलाकात आर्मी की एक टीम से हुई. जब पुलिस वालों ने उनलोगों को रोका और पूछताछ की, तो उन्होंने बताया कि वे आर्मी से हैं और इस इलाक़े में विजय चाइनीज नामक उल्फा आतंकी की तलाश में आए हैं. लेकिन हकीकत यह थी कि जब ये लोग पूना गोगोई के घर से निकले, तब रास्ते में उनकी मुलाकात पुलिस से हुई थी. अब ये बात तो विश्वास योग्य है ही नहीं कि आर्मी वाले भी डकैती कर सकते हैं. इस पर तो कोई विश्वास भी नहीं करेगा. अगर आर्मी वालों ने यह काम किया भी है, तो इसका कोई सबूत नहीं है. पुलिस को भी लगा कि हो सकता है, डकैती करने वाला कोई और गैंग रहा हो और वारदात को अंजाम देकर निकल गया हो. इसलिए, पुलिस ने सिर्फ मामला दर्ज कर लिया. पुलिस और गोगोई परिवार के पास केवल एक ही सुराग बचा था. वह यह कि डकैती करने वाले गैंग का नेतृत्व एक महिला कर रही थी. अगर वह सामने आ जाए, तो उसे परिवार वाले पहचान सकते हैं. लेकिन उस महिला को ढूंढने का कोई तरीका नहीं था.

मतलब यह कि जनरल वीके सिंह के जाने के बाद उनलोगों को फिर से महत्वपूर्ण स्थानों पर बहाल किया गया जिन पर जोरहाट की घटना के लिए जवाबदेही तय होनी थी. सवाल ये नहीं है कि जनरल वीके सिंह ने क्या फैसला लिया और क्यों लिया? सवाल ये है कि अगर जोरहाट की घटना हुई है तो फिर जिम्मेदार कौन है? अगर इसके लिए जिम्मेदार अधिकारियों को छोड़ दिया गया तो कोर कमांडर की भूमिका शक के दायरे में क्यों नहीं आती है? सवाल तो ये भी है कि जिन अखबारों या टीवी चैनलों ने जनरल दलबीर सिंह के हलफनामे को लेकर हंगामा मचाया, उन्होंने जोरहाट की घटना के बारे में कभी क्यों नहीं बताया?

आरोपों की फेहरिस्त लंबी है

जहां तक जनरल दलबीर सिंह पर लगे आरोपों का सवाल है तो ये जानना भी जरूरी है कि सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह का 18 मई 2012 का निर्देश और 19 मई 2012 का कारण बताओ नोटिस सिर्फ एक गलती के लिए नहीं, बल्कि कई गलतियों के लिए दिया गया था. जोरहाट मामले में जिम्मेदारी का निर्वाह पूरी तरह से न करने के साथ साथ इसमें मेजर टी रवि किरण की शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं करने की चूक भी शामिल थी. मेजर रवि की शिकायत गंभीर थी. इसमें तीन मणिपुरी युवाओं की हत्या का आरोप लगाया गया था. हलफनामे में सिर्फ ये कह देना हास्यास्पद है कि मैं छुट्टी पर था इसलिए मेरी जिम्मेदारी खत्म हो जाती है. सवाल ये है कि जब जनरल सुहाग लौट कर आए, तब उन्होंने क्या किया? सवाल ये है कि अगर कमांडर छुट्‌टी पर चला जाए तो क्या उसकी यूनिट को कोई गैरकानूनी या अनैतिक काम करने की छूट मिल जाती है? ये कैसी जिम्मेदारी है कि कोई यूनिट हत्या और लूट जैसे संगीन जुर्म में शामिल हो और कमांडर ये कह दे कि मेरी जिम्मेदारी नहीं है क्योंकि मैं छुट्‌टी पर था. जनरल सुहाग को ये बताना चाहिए कि वो कौन सी रहस्यमयी योजना, मंशा व मकसद थी जिसकी वजह से लूट और हत्या जैसे मामले में लिप्त अधिकारी उनकी नाक के नीचे से बच कर निकल गए? इन अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करने के पीछे जनरल सुहाग की क्या मजबूरी थी? इन सवालों का जवाब कौन देगा? सवाल तो ये भी है कि जब यह मामला कोर्ट में चल रहा है तो इन घटनाओं में शामिल अधिकारियों को क्लीन चिट कैसे दे दी गई?

मेजर टी रवि की शिकायत पर कार्रवाई क्यों नहीं

मेजर टी रवि किरण इस इंटेलिजेंस यूनिट के सेकेंड-इन-कमांड थे. उन्होंने 12 मार्च 2010 को इस्टर्न कमांड के चीफ यानि जीओसी इन सी से पत्र लिखकर शिकायत की थी. इस शिकायत की कापी उन्होंने जीओसी 3 कोर और सेनाध्यक्ष को भी भेजी थी. उन्होंने इस शिकायत में लिखा कि 10 मार्च 2010 तीन मणिपुरी युवाओं को अपहरण कर उनकी यूनिट में लाया गया. उन्हें टार्चर किया गया. फिर रात के अंधेरे में मेस के पीछे गोली मार कर हत्या कर दी. इस शिकायत के बाद तो सेना में हड़कंप मच जाना चाहिए था. सेनाध्यक्ष को रक्षा मंत्री से बात करनी चाहिए थी. बिना समय बिताए इस घृणित वारदात में शामिल अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए थी. लेकिन, कोई सुगबुगाहट तक नहीं हुई. इतनी बड़ी घटना के बाद किसी के कान में जूं तक नहीं रेंगा. किसी ने कोई कार्रवाई नहीं की. जवाबदेही का तकाजा तो ये है कि इस घटना के बाद तो इस्टर्न कमांडर से लेकर यूनिट के सबसे जूनियर अधिकारी की कुर्सी हिल जानी चाहिए थी. लेकिन, सबने अपराधिक चुप्पी थाम ली.

मेजर टी रवि किरण ने 25 जनवरी 2012 को फिर सभी को शिकायत भेजी. इसके बाद भी इस्टर्न कमांड में कोई हलचल नहीं हुई. लेकिन, तब तक जनरल वीके सिंह सेनाध्यक्ष बन चुके थे. मेजर टी रवि किरण की शिकायत मिलते ही उन्होंने इस्टर्न कमांड को जांच करने के निर्देश दिए. लेकिन विडंबना देखिए, इस्टर्न कमांड ने सेनाध्यक्ष के निर्देश को आगे बढ़ा दिया और इसकी जांच 3 कोर को करने के लिए कह दिया. मतलब यह कि जिन लोगों पर कार्रवाई होनी थी, उन्हें ही जांच की जिम्मेदारी सौंप दी गई. यह काम इस्टर्न कमांड के चीफ जनरल बिक्रम सिंह ने किया था. 3 कोर के चीफ लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह सुहाग ने इस मामले में क्या कार्रवाई की, किसे सजा मिली, ये आज तक किसी को पता नहीं चला. क्या जनरल दलबीर सिंह की ये जिम्मेदारी नहीं है कि वो ये बताएं कि तीन मणिपुरी युवकों की हत्या के मामले में उन्होंने क्या किया? सवाल तो ये भी है कि जनरल वीके सिंह के खिलाफ अभियान चलाने वाले अखबार और टीवी चैनलों की क्या ये जिम्मेदारी नहीं है कि वे ये बताएं कि तीन मणिपुरी युवकों के साथ क्या हुआ और इसके लिए कौन जिम्मेदार है? ये मामला आज भी कोर्ट में चल रहा है. तीन युवकों की हत्या हुई है. शक के घेरे में भारतीय सेना है. सबसे महत्वपूर्ण बात तो ये है कि जब दोनों मामलों में एक ही अधिकारी का नाम सामने आ रहा है, तो यह मामला और भी गंभीर बन जाता है.

क्या ये जनरल वीके सिंह की गलती है कि उन्होंने तीन युवकों की हत्या में शामिल अधिकारियों के खिलाफ जांच के आदेश दिए और जब जांच को बहकाने की कोशिश की गई तो बड़े-बड़े अधिकारियों की जिम्मेदारी तय की. वहीं मेजर टी रवि किरण की चिट्‌ठी में इस हत्याकांड के लिए यूनिट के कमांडिंग ऑफिसर कर्नल गोविंदन श्रीकुमार को जिम्मेदार ठहराया गया था. साथ ही उन्होंने मेजर रुबीन कौर कीर और मेजर नेक्टर का भी नाम लिया था. ये सब एक ही इंटेलिजेंस यूनिट के हैं. साथ ही लाइव इंडिया  नामक न्यूज चैनल ने 3 फरवरी 2014 को सनसनीखेज खबर दिखा कर मेजर टी रवि किरण की बातों की पुष्टि भी की. क्या इसके बाद भी कार्रवाई करना गलत था?

जनरल सुहाग ने अपने हलफनामे में रहस्यमयी साजिश और मंशा की बात की है. हकीकत ये है कि उन पर जो डीवी बैन लगा वो कोई रहस्य नहीं था. क्या ये सच नहीं है कि आर्मी हेडक्वार्टर के आंतरिक दस्तावेजों में जनरल सुहाग मामले में डीवी डायरेक्टरेट, डीजेएजी, डीजी डिसिप्लीन एजी ने जांच-परख कर पुष्टि की थी. क्या ये सच नहीं है कि लेफ्टिनेंट जनरल सुहाग को मई 2012 को आगामी निर्देश (फर्दर डायरेक्शन) और कारण बताओ नोटिस  सीजीएससी ऑफ एएफटी की राय व सहमति लेने के बाद भेजा गया था? अगर ये सच है तो जनरल सुहाग का हलफनामा भ्रामक है. जब पूरी प्रक्रिया का पालन करते हुए कोई कार्रवाई हुई हो और इसमें सेना की विभिन्न संस्था भी शामिल हो तो उसे रहस्य बताना कोर्ट और लोगों को गुमराह करना है. अफसोस तो यह है कि  मीडिया भी अपने दायित्व को दरकिनार कर बिना तहकीकात के लोगों को भ्रमित करने में लगी है.

जनरल बिक्रम सिंह और जनरल सुहाग की मिलीभगत

जहां तक साजिश की बात है, तो जनरल सुहाग के हलफनामे की एक और सच्चाई है, जिसे छिपा लिया गया. क्या यह सच नहीं है कि 22/23 मई 2012 को जब कारण बताओ नोटिस देने के लिए एक अधिकारी दीमापुर पहुंचा तो वे इस अधिकारी से नहीं मिले. जबकि उस दिन वे वहीं थे. उन्होंने इस नोटिस को जान-बूझकर 24 मई 2012 की दोपहर 12 बजकर 15 मिनट पर लिया. कारण बताओ नोटिस के ठीक सात दिन बात जनरल वीके सिंह की जगह जनरल बिक्रम सिंह सेना अध्यक्ष बनने वाले थे और उन्हें पता था कि उनके सेनाध्यक्ष बनते ही उन्हें बचा लिया जाएगा. हकीकत भी यही है कि जनरल बिक्रम सिंह सेनाध्यक्ष बनते ही जनरल सुहाग पर लगे डीवी बैन को निरस्त करने में जुट गए. क्या ये सच नहीं है कि आर्मी हेडक्वार्टर में कार्यरत लोगों ने यह सुझाव दिया था कि जनरल सुहाग को पूरी तरह से क्लीन-चिट नहीं देनी चाहिए. क्या ये सच नहीं है कि जनरल बिक्रम सिंह ने इन सुझावों को दरकिनार कर दिया था. सूत्रों के मुताबिक जनरल बिक्रम सिंह ने ये बात जुबानी कही थी कि उन्हें कोई कुछ सिखाए नहीं, क्योंकि वेे इस्टर्न कमांड के चीफ रह चुके हैं और उन्हें पता है कि वहां क्या हुआ है? इन सभी जानकारियों को एक सुत्र  में बांध कर देखा जाए तो यह दिन के उजाले की तरह साफ है कि जनरल बिक्रम सिंह और जनरल सुहाग की मिलीभगत थी. एक साजिश के तहत आपराधिक मनोवृत्ति वाले अधिकारियों को न सिर्फ बचाया गया बल्कि उन्हें क्लीन चिट देकर पदोन्नति भी दी गई. क्या ये सच नहीं है कि जिन लोगों ने जोरहाट की घटना और मणिपुरी युवकों की हत्या के मामले में अपने दायित्व का निर्वाह किया उन्हें प्रताड़ित किया गया. क्या देश की मीडिया ने किसी भी ऐसे ऑफिसर की कहानी बयां की है जो वर्तमान में प्रताड़ित किए जा रहे हैं.

जनरल सुहाग ने ये दावा किया है कि जनरल वीके सिंह ने उनकी पदोन्नति को रोकने के लिए डीवी बैन लगाया था. सवाल यह है कि जनरल सुहाग पहले और आखिरी ऑफिसर नहीं हैं, जिन पर डीवी बैन लगा है. जब किसी अधिकारी को लगता है कि उन पर गैरकानूनी या गलत तरीके से डीवी बैन लगाया गया है, तो सामान्य रूप से वह कानून की मदद लेता है. प्रावधान के मुताबिक बैन को चुनौती देता है. कई अधिकारियों को इसके जरिए न्याय भी मिला है. उदाहरण के तौर पर मई 2012 के बाद से कई अधिकारियों पर डीवी बैन लगाया गया. इन अधिकारियों का भी यही आरोप है, जो आरोप जनरल सुहाग अब लगा रहे हैं. लेकिन, जब जनरल सुहाग पर डीवी बैन लगा तो उन्होंने इस फैसले को चुनौती क्यों नहीं दी? कानूनी लड़ाई लड़ने की जगह उन्होंने जनरल वीके सिंह के रिटायर होने का इंतजार क्यों किया? क्या उनको पहले से पता था कि जनरल बिक्रम सिंह के सेनाध्यक्ष बनते ही उन पर लगे बैन को हटा लिया जाएगा? जनरल वीके सिंह के रिटायरमेंट के बाद सेना के कई वरिष्ठ अधिकारियों पर डीवी बैन लगाया गया. क्या ये सच नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली हाइकोर्ट और आर्म फोर्स ट्रिब्यूनल ने जनरल सुहाग द्वारा लगाए गए डीवी बैन को निरस्त किया है?

हथियार दलालों की साजिश

जिन महान संपादकों और टीवी चैनलों ने इस खबर को लेकर देश में सनसनी फैलाने की कोशिश की, वे लोग तो जान-बूझकर दुष्प्रचार करते हैं. लेकिन, जनरल वीके सिंह का इतिहास क्या है यह नहीं भूलना चाहिए. उनका इतिहास रहा है कि वह देश में रक्षा क्षेत्र में बैठे हथियार दलालों और माफिया के ख़िला़फ लड़ते रहे हैं. आज तक किसी सेनाध्यक्ष ने हथियार माफिया से लड़ने या उनका पर्दा़फाश करने का काम नहीं किया और न ही जनरल दलबीर सिंह सुहाग कर रहे हैं. वे स़िर्फ और स़िर्फ जनरल वीके सिंह थे, जिन्होंने हथियार माफिया को सेना से भगाया, उन्हें एक्सपोज किया. उन्होंने भारतीय सेना को घुन की तरह तबाह करने वाले माफिया से सीधी टक्कर ली. जहां तक उनका अधिकार क्षेत्र था, उन्होंने सेना से माफिया व दलालों की सफाई की. जनरल वीके सिंह जब सेनाध्यक्ष थे, तब उन्होंने कई घोटालों का पर्दा़फाश किया, हथियार माफिया को रोका और कई जांचों में मदद की. उनकी वजह से सुखना लैंड स्कैम, टाट्रा ट्रक और आदर्श सोसायटी घोटाले का पर्दाफाश संभव हो सका. नतीजा ये हुआ कि जनरल वीके सिंह की जन्म तिथि पर विवाद खड़ा किया गया. जब उन्होंनेे अन्ना हजारे के साथ मिल कर देश में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाना शुरू किया तब इंडियन एक्सप्रेस ने तख्तापलट की झूठी स्टोरी छाप कर उन्हें बदनाम करने की कोशिश की. जब से वेे मंत्री बने हैं, तब से यह देखा जा रहा है कि जब भी वे कुछ अच्छा करते हैं तो उनके खिलाफ मीडिया में एक कैंपेन शुरू हो जाता है.

ये कोई इत्ते़फाक नहीं, बल्कि हथियार के दलालों और माफिया नेक्सस की सोची समझी साजिश है. उन्हें आज भी यह डर सताता है कि कहीं जनरल वीके सिंह को ऐसी कोई जिम्मेदारी न मिल जाए जिससे उनका जीना मुश्किल हो जाए. हकीकत यह है कि जनरल सुहाग के ख़िला़फ जो आरोप हैं, वे सभी मामले कोर्ट में चल रहे हैं. अभी फैसला आना बाकी है. ये और बात है कि कोर्ट में मामला चलने के बावजूद जनरल सुहाग को सेनाध्यक्ष नियुक्त किया गया. देखना ये है कि इन मामलों में अदालत क्या फैसला सुनाती है और फैसले के बाद सरकार क्या जवाब देती है. लेकिन भारत में जो व्यवस्था है और जो सच्चाई है उसे देखते हुए यह यकीन से कहा जा सकता है इन मामलों को जान-बूझकर टाला जाएगा और फैसला होने तक एक जमाना बीत जाएगा. सरकार अगर सच सामने लाना चाहती है तो उसे इन मामलों में तेजी लाने के लिए पहल करनी होगी, ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके. लेकिन हकीकत ये है कि भारत में एक जीवंत हथियार माफिया है. यह एक शक्तिशाली लॉबी है जो सेना से जुड़े हर सौदे में अपना दख़ल रखती है. दरअसल, यह एक गैंग है जो हर राजनीतिक दल, मीडिया और सत्ता के हर केंद्र में विराजमान है इसलिए जो उसके ख़िला़फ एक शब्द भी बोलता है, उसे विरोध और जिल्लत सहनी पड़ती है.

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