(अति उत्साह में लोगों ने फैसले का मतलब पढ़ने की जहमत ही नहीं उठाई. न ही सही संदर्भों और मायनों में उसकी व्याख्या की. किया तो बस
गे-परेड. छापी तो बस, एक-दूसरे को चूमते समलैंगिकों की तस्वीरें. दिखाईं, तो बस रंग-बिरंगी पोशाक पहने समलैंगिकों की नाचती-गाती टोली.)

पिछला लगभग पूरा सप्ताह समलैंगिकता के नाम रहा. दिल्ली हाईकोर्ट के एक फैसले के बाद पूरा देश गे, लेस्बियन और ट्रांसजेंडर नामक शब्दो की व्याख्या में उलझ गया. फैसले के बाद होमोसेक्स समर्थकों और उनके नाम पर काम करने वाले गैर-सरकारी संगठनों की रैली की बाढ़ सी आ गई. फिर वही हुआ, जो होता है. अति उत्साह में लोगों ने फैसले का मतलब पढ़ने की जहमत ही नहीं उठाई. न ही सही संदर्भों और मायनों में उसकी व्याख्या की. किया तो बस गे-परेड. छापी तो बस, एक-दूसरे को चूमते समलैंगिकों की तस्वीरें. दिखाईं, तो बस रंग-बिरंगी पोशाक पहने समलैंगिकों की नाचती-गाती टोली.
मामला इसके ठीक उल्टा है. कोर्ट ने साफ तौर पर अपने फैसले में कहा कि वह केवल दो वयस्कों (समान लिंग वाले) के बीच आपसी रजामंदी से निजी तौर पर यौन-संबंध बनाने को अपराध मानने से इंकार करता है. कोर्ट ने न इससे अधिक कहा, न ही कम. इसका मतलब कहीं से यह नहीं निकलता कि कोर्ट ने समलैंगिकता को जायज़ ठहराया, अगर जायज़ ठहराता तो ऐसी शादी को वैधता भी देता. इसके अलावा कोर्ट ने तो साफ तौर पर यह भी कहा कि अवयस्क लोगों को यौन-संबंध के लिए सहमति देने लायक नहीं माना जाना चाहिए.
इस तरह हम देखते हैं कि फैसले का विरोध और समर्थन करने वाले दोनों ही पक्ष अंधेरे में हैं. समर्थन करने वालों ने भी नहीं पढ़ा कि फैसले में क्या है और न ही इसके विरोधियों ने. सबसे बड़ी बात तो यह कि इस मसले को ऐसा बना दिया गया मानो यह राष्ट्रीय आपदा या महत्व का मसला है. लगभग सवा अरब लोगों की आबादी की तुलना में समलैंगिकों की संख्या तो अंगुलियों पर गिनी जा सकती है. उनके ऊपर दिए हाईकोर्ट के एक फैसले को लेकर हमारी राष्ट्रीय चेतना ही उलझकर रह गई.
(मज़े की बात तो यह कि अ़क्सर एक-दूसरे के ख़िला़फ तलवारें ताने रहने वाले विश्व हिंदू परिषद और जमायत-उलेमा-ए-हिंद जैसे संगठन भी इस मुद्दे पर सुर में सुर मिलाते नज़र आए. कैथोलिक बिशप्स कांफ्रेंस ऑफ इंडिया के फादर डोमिनिक इमैनुएल ने कहा कि उनका रवैया हमेशा ही स्पष्ट रहा है. उनके मुताबिक, दो रजामंद वयस्कों के बीच यौन संबंधों को अपराध नहीं मानने की उनकी नीति रही है, लेकिन चर्च इसे नैतिक और अप्राकृतिक मानता है, और इसी वजह से इसका समर्थन नहीं कर सकता.)
इसके बाद तो, धर्माचार्य और कई संगठन भी इसके पक्ष-विपक्ष में उतर गए. कई मानवाधिकार संगठनों और एनजीओ ने तो फैसले पर खुल कर जश्न ही मनाना शुरू कर दिया. यहां राजनीतिक दलों की भूमिका ग़ौर करने वाली है, जिसने बेहद चतुराई से इस पूरे प्रकरण से अपना पल्ला झाड़ लिया. वह भी तब, जब हाई कोर्ट ने अंतिम निर्णय भारत की संसद और सरकार पर ही छोड़ दिया है. कोई भ्रम में न रहे, यहां अदालत ने अंतिम नहीं अंतरिम व्यवस्था भर दी है. यानी अंतिम बात संविधान संशोधन के ज़रिए बनेगी, जिसके लिए राजनीतिक दलों में कोई राय होनी ही चाहिए. तटस्थ कोई हो ही नहीं सकता. पक्ष तो लेना ही पड़ेगा, इधर या उधर.
मज़े की बात तो यह कि अ़क्सर एक-दूसरे के ख़िला़फ तलवारें ताने रहने वाले विश्व हिंदू परिषद और जमायत-उलेमा-ए-हिंद जैसे संगठन भी इस मुद्दे पर सुर में सुर मिलाते नज़र आए. कैथोलिक बिशप्स कांफ्रेंस ऑफ इंडिया के फादर डोमिनिक इमैनुएल ने कहा कि उनका रवैया हमेशा ही स्पष्ट रहा है. उनके मुताबिक, दो रजामंद वयस्कों के बीच यौन संबंधों को अपराध नहीं मानने की उनकी नीति रही है, लेकिन चर्च इसे नैतिक और अप्राकृतिक मानता है, और इसी वजह से इसका समर्थन नहीं कर सकता.
जमायत-उलेमा-ए-हिंद के प्रवक्ता मौलाना अब्दुल हमीद नूमानी ने तो मनुस्मृति और शरिया का हवाला देते हुए इस क़ानून का पूरा समर्थन किया. उन्होंने कहा कि चंद लोगों की चंद लम्हों की ख़ुशी की ख़ातिर किसी भी बात को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता. विहिप के प्रवक्ता सुरेंद्र जैन ने भी ठीक इसी तरह की बात करते हुए कहा कि कुछ लोगों को किसी काम में मज़ा आता है, इससे उस कर्म की वैधता नहीं तय हो जाती. कुछ लोग तो जानवर के साथ भी संबंध बना लेते हैं, तो क्या आनेवाले दिनों में उसे भी जायज़ ठहराया जाएगा?
इन सबके अलावा बाबा रामदेव से लेकर दारुल उलूम, देवबंद और जमात-ए-इस्लामी हिंद तक कोर्ट के इस ़फैसले के विरोध में आस्तीनें चढ़ा कर खड़े हो गए हैं. कुछ हद तक उनकी बातों में दम भी है. इस क़ानून को जो ख़त्म करवाना चाहते हैं, वे इसके भविष्य में होनेवाले दुष्परिणामों को नहीं देख पा रहे. कोई चीज़ समाज में मौजूद है, इसलिए जायज़ ही है और उसे खुले तौर पर वैधता दे देनी चाहिए, ऐसी मांगों का कोई मतलब नहीं है. इससे अगर कुछ होगा, तो अराजकता फैलेगी, समाज का ढांचा टूटेगा और पारिवारिक संबंध बिखरेंगे. सोचने की बात है कि अगर आज़ादी के नाम पर अराजकता को छूट मिली तो हमारे समाज का बिखराव होते कितनी देर लगेगी? आपको हाथ चलाने की आज़ादी है, लेकिन तभी तक जब तक उसकी सीमा में किसी की नाक न आती हो.
वैसे सोच कर यह भी देखना चाहिए कि जो धर्मगुरु या संगठनों के नेता इस फैसले के ख़िला़फ लामबंद हुए हैं, उनकी आवाज़ सचमुच प्रभावी है, या वे भी केवल बयानबाजी के लिए बयान दे रहे हैं. यह सोच बिना किसी वजह के भी नहीं है. आख़िर क्यों इन धार्मिक नेताओं या संगठनों की आवाज़ उतनी प्रभावी नहीं होती, जो पूरे देश में गूंजे. ऐसा क्यों है कि जब इस तरह के लोग बोलने लगते हैं तो उन्हें गंभीरता से सुनने के बजाय उनका मज़ाक बना दिया जाता है ?  शायद इसलिए कि देश भर में कई आश्रम और मठ भी तो इस तरह के विवादों के साए में आ चुके हैं, जिनमें यौन-शोषण से लेकर बच्चों के शोषण तक की ख़बरें होती हैं. हमने देखा है कि हमारे गुरु या धार्मिक नेता फतवा या व्यवस्था तो दे देते हैं, लेकिन उसके बाद आम लोगों के बीच आकर उस लड़ाई को आगे नहीं बढ़ाते. इसलिए जब बोलते हैं, तो प्रभावकारी नहीं होते.

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