महेश कटारे सुगम आधुनिक युग में प्रगतिशील धारा के समानांतर चलती उस लोक धारा के कवि हैं जो हमेशा ही जनता के बीच रहते हुए उसके जीवन के रोजमर्रा के सुख-दुख को वाणी ले ते हुए उन्हें अपने जीवन को बचाने के लिए संघर्ष में उतरने का आह्वान करते रहे हैं उनकी कविताएं बुंदेली गजलें और गीत सब कुछ आज और अभी से मुखातिब हैं। आज जब हिंदी कविता की तथा कथित मुख्यधारा बस कहने मात्र को आज को राज को बदलने की बात कहती है लेकिन मन में कहीं अमरता और कालातीत के सपने संजो कर चलती है तो ऐसे में महेश कटारे सुगम इस अमरता के मुगालते से दूर अपने लिखे को समकाल को समर्पित करते हैं। और आज ही उसका परिणाम चाहते हैं ।

सामान्य रूप से हिंदी कविता और विशेष रूप से सुगम की पंक्ति के जिन कवियों की कविता की राह के बुनियादी फर्क को रेखांकित करना जरूरी है क्योंकि उनके सरोकार आम आदमी के जीवन के सरोकार हैं । उनके अनुभव अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति के जीवन अनुभव हैं उनकी भाषा जनजीवन की रोजमर्रा की भाषा है जो सीधे जनता को संबोधित है । यही कारण है कि आज जब कविता की मुख्यधारा से जन पूरी तरह परांगमुख हो गया है। और वह केवल कुछ काव्य मर्मज्ञों के बीच गुटर गू गुटर गू बनकर रह गई है तो महेश कटारे सुगम की कविता गली चौराहे के व्यक्ति तक सीधे पहुंचती है । हिंदी की जनप्रतिबद्ध कहलाने वाली कविता के साथ शुरू से ही दिक्कत रही जहां वह वैचारिक और जनसरोकारों के पक्ष में खड़े होने का दंभ भरती रही वहीं अपनी अनुभूतियों और अभिव्यंजनाओं में भद्र जनोंचित उच्च मध्यवर्गीय बनी रही ।उसकी न तो पहुँच जनता तक रही न कविता को संबल देने के लिए जन का उसे समर्थन मिला।यही कारण है कि वह या तो साहित्यिक हलकों की चर्चा में सीमित रही या सरकार तथा अन्य निजी दरबारों में नाम, इनाम पाने के भृष्ट पथ पर चल पड़ी । ऐसे में उसके ऊपर लगातार सवाल उठ रहे हैं और उससे जन सरोकारों को क्षति पहुंच रही है। इसीलिए सुगम पूछते हैं कि…….

एक भी सल नहीं माथे पै फिक्र की तेरे
झूठे मूठे तेरे एहसास की ऐसी तैसी
तुझ से होकर शुरु तुझ पर ही खत्म हो जाए
मुग्धता से भरे इतिहास की ऐसी तैसी

ये जो मुग्धता से भरा इतिहास कवियों का और कविता का रहा सुगम की कविता उसी की ऐसी तैसी करना चाहती है । जो कविता हिंदी में प्रगतिशील जनवादी और क्रांतिकारी कविता अपना स्वर मिलाती रही। बात आज की सत्ता की करेंगे परिवर्तन आज चाहिए और कविता हजार वर्ष बाद समझ में आने वाली लिखेंगे। महेश कटारे सुगम की कविताओं एवं ग़ज़लों पर विचार करने के लिए उस इतिहास को खँगालना होगा जिसमें प्रगतिशील कविता के अंदर जनता के बहुत करीब का स्वर समानांतर चला आया । निराला में नागार्जुन, त्रिलोचन,शील, हरीश भादानी रमेश रंजक, सरोज,शलभ,अदम में निरंतर चला आया। यही नहीं इनके साथ ही जन भाषाओं में लिखने वाले ऐसे सैकड़ों लोक गीतकार रहे जो सीधे जनता के बीच अपने गीतों को गाते रहे । प्रगतिशीलियों का जनवादियों का या और भी किसी के सभा सम्मेलन हो लेकिन जैसे ही वे बंद कमरों से बाहर निकलते हैं तो उन्हें इन बस इन जनकवियों का ही सहारा होता है इसलिए 1936 के प्रथम सम्मेलन से लगाकर आज तक जितने भी सम्मलेन हुए उनमें खुले कवि सम्मेलनों का चलन रहाऔर जन कवि उन का आधार रहे ।

सुगम उसी परंपरा के रचनाकार हैं। सुगम के काव्य पर बात करने का मतलब प्रगतिशील धारा में हुई उस दुरभिसंधि को उजागर करना है । जिसमें जन,जंगल,जीवन,,ज़मीन, से जुड़ी लोक की कविता को काव्य विमर्शों से बहिष्कृत करके अपने अन्तर्राष्ट्रीय मुहावरे को स्थापित करा लिया जो बात तो जन की करती थी लेकिन पाँत में जन विरोध के बैठती थी । यदि वर्तमान सत्ता तंत्र उसके जन द्रोही चेहरे और नीतियों पर बात करनी है यदि जन को सब के विरुद्ध इसी ठोस समकाल में लामबंद करना है तो सुगम और उनके सामान घर्मी लोक कवियों को प्रमुखता देनी होगी जो जनता के बीच है और उनसे सतत संवाद में हैं । खुशी की बात यही है कि इसी बीच सुगम के बुंदेलखंडी गीतों,ग़ज़लों, कविताओं को कविता में सक्रिय सभी धाराओं से समर्थन मिला है ।

वे सबके प्रिय कवि बन गए हैं ।यहां सुगम के उन अत्यंत लोकप्रिय गीतों और गजलों को दुहराना आवश्यक नहीं जिन से आज हिंदी का साहित्यिक जन परिचित है । सुगम ने कविता की कविता गीत बुंदेलखंडी गजल ,ग़ज़ल आदि संरचनाओं में लिखा है ऐसा भी नहीं है कि इनकी अवधारणाओं को लेकर उनकी टकराहट नहीं हुई । हुई। खूब हुई।मसलन उन्हें ग़ज़ल को उर्दू से जोड़ने पर एतराज़ है ।उसके परंपरागत कथ्य और शिल्प में लिखे जाने पर एतराज़ है। इसी चारित्रिक विशेषता को रेखांकित करते हुए हम यहां अपनी बात समाप्त करेंगे । उनकी एक ग़ज़ल. है
ये गजल वो ग़ज़ल नहीं भैये
जिस्म सूरत शकल नहीं भैये

बात महबूब की नहीं इसमें कल्पना की फसल नहीं भैये
इसके शेरों की तख्तियां मत कर इसमें उर्दू दखल नहीं भैये

हम जरूरत की बात करते हैं कोई साजिश या छल नहीं भैये
कथ्य पर शिल्प कर दिया कुरबाँ जब मिला और हल नहीं भैये

तुम गजल इसको ग़र नहीं मानो
तो भी हाँ कोई गल नहीं भैये

शिल्प को चाट लें या चूमें हम
कथ्य जब तक सफल नहीं भैये

काम जो भी किया है पुख्ता है काम यह भी सरल नहीं भैये

डॉ कर्ण सिंह चौहान लिखिए

दिल्ली

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