महात्मा गांधी और शहीद भगतसिंह के बारे में सोचते हुए दो ऐसी महान शख्सियतों का खयाल आता है जिनमें कुछ बड़ी समानताएं थीं तो कुछ प्रकट विरोधाभास भी थे। दोनों महान देशभक्त थे और दोनों भारत के लाखों-करोड़ों लोगों के लिए आजादी की लड़ाई का प्रेरणा-स्रोत थे। दोनों शहीद हुए। भगतसिंह को उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु के साथ अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी दे दी, तो आजादी मिलने के बाद गांधी की हत्या सांप्रदायिक घृणा ने कर दी। दोनों की शहादत प्रेरणादायी है।

आजादी के जज्बे और संघर्ष तथा शहीद के रूप में मरने की समानता के बरक्स गांधी और भगतसिंह में कुछ विरोधाभास बड़े जाहिर थे। स्वाधीनता का लक्ष्य एक था लेकिन इसके लिए दोनों के रास्ते अलग थे। गांधी का रास्ता अहिंसा का था। भगतसिंह हिंसावादी तो नहीं थे न ही बम-पिस्तौल की संस्कृति में यकीन करते थे लेकिन बहरों को सुनाने के लिए धमाका करने से उन्हें गुरेज नहीं था। गांधी और भगतसिंह, दोनों देश में सांप्रदायिकता की समस्या को लेकर चिंतित थे लेकिन इससे निजात पाने की दोनों की पद्धति और भाषा भिन्न थी। इसकी वजह शायद यह होगी कि भगतसिंह नास्तिक थे, जैसा कि उन्होंने एक लेख लिखकर कहा भी है। वहीं गांधी पक्के आस्तिक थे और ईश्वर का साक्षात्कार उनका परम उद्देश्य था। लेकिन दो विपरीत छोर पर खड़े दीख रहे भारत के ये दोनों महानायक शोषणमुक्त और अन्यायमुक्त, समतामूलक और भाईचारे के भारत का सपना देखते थे। दोनों महान देशभक्त थे लेकिन राष्ट्रीय मिथ्याभिमान और अन्ध राष्ट्रवाद में उनका यकीन नहीं था। न गांधी का न भगतसिंह का। परस्पर गहरे मतभेद होते हुए भी दोनों एक दूसरे की वीरता के मुरीद थे।

अगर हम भगतसिंह के सपनों का भारत बनाएंगे तो वह समतामूलक और भाईचारे का भारत ही होगा। गांधी के स्वराज का सपना भी मूल रूप से यही था। आजादी पाने का गांधी और भगतसिंह का रास्ता अलग अलग था इसकी चर्चा बहुत हुई है लेकिन दोनों महानायक कहॉं मिलते हैं इसको जाने या अनजाने नजरअंदाज कर दिया जाता है। अब इस मिलन बिंदु पर सबका ध्यान खींचने की ज्यादा जरूरत है।

 


लेखक के बारे में:

रणधीर कुमार गौतम विश्वनीदम सेंटर फॉर एशियन ब्लूज़मिंग के कार्यकारी ट्रस्टी हैं, जो एक सार्वजनिक बौद्धिक ट्रस्ट है। वह Gandhian School of Democracy and socialism , आईटीएम यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं।

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