7पूरे देश में नरेंद्र मोदी भले ही भारतीय जनता पार्टी के पोस्टरमैन बने हों, लेकिन लखनऊ में आज भी जीत के लिए भाजपा को अपने पूर्व प्रधानमंत्री और पांच बार लखनऊ से सांसद रहे अटल बिहारी वाजपेयी का ही सहारा है. क़रीब दस वर्षों से सक्रिय राजनीति से दूर चल रहे अटल का लखनऊ में आज तक भाजपा विकल्प नहीं तैयार कर पाई है. 1991 में भाजपा के सिर अटल के सहारे पहली बार जीत का सेहरा बंधा था. उसके बाद हुए सभी छह चुनावों में भाजपा का ही परचम लहराता रहा. अटल ने राजनीति से दूरी बनाई, तो 2009 में उनकी खड़ाऊ पकड़ कर लालजी टंडन ने लखनऊ का प्रतिनिधित्व किया. मौजूदा भाजपा सांसद लालजी टंडन की जगह इस बार पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह मैदान में ताल ठोंक रहे हैं. लालजी टंडन की तरह राजनाथ भी अटल के सहारे अपनी नैया पार लगाना चाहते हैं. शायद यही वजह है, उन्हें मीडिया के सामने बताना पड़ रहा है कि वह आज भी महीने में चार बार अटल जी के पैर छूते हैं.
लखनऊ के मतदाताओं के मिजाज की बात की जाए, तो यहां के वाशिंदे जिसे गले लगाते हैं, उसे आसानी से नहीं छोड़ते. इतना ही नहीं, तहजीब के शहर लखनऊ के मतदाताओं ने कभी भी यह सोचकर अपना नुमाइंदा नहीं चुना कि कौन शहर का है और कौन बाहर का. इसी वजह से लखनऊ का सांसद बनने वालों में बाहर के नेताओं की फेहरिस्त लंबी है. हाल के वर्षों में मौजूदा सांसद लालजी टंडन को छोड़कर पिछले कई लोकसभा चुनावों में बाहर से आए नेताओं को ही यहां की जनता ने अपने प्रतिनिधि के तौर पर लोकसभा भेजना ज़्यादा पसंद किया. पांच बार लखनऊ से चुनाव जीते भाजपा नेता एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, तीन बार कांगे्रस के टिकट से संसद पहुंचने वाली शीला कौल, विजयलक्ष्मी पंडित, पुलिन बनर्जी, मान्धाता सिंह, हेमवती नंदन बहुगुणा एवं आनंद नारायण मुल्ला आदि सभी बाहर के थे.
15 बार हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस एवं भाजपा को छोड़कर यहां के मतदाताओं ने स़िर्फ दो बार अन्य दलों (जनता पार्टी और जनता दल) के प्रत्याशी और एक बार निर्दलीय उम्मीदवार को अपना प्रतिनिधि चुना. लखनऊ कभी नेहरू-गांधी खानदान का वैसे ही मजबूत गढ़ हुआ करता था, जैसे आज अमेठी और रायबरेली है. 1952 में हुए पहले चुनाव में जवाहर लाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित यहां से जीतीं. बाद में विजयलक्ष्मी राजदूत बनकर रूस चली गईं. उसके बाद हुए उपचुनाव में नेहरू की ही बहन शिवराजवती नेहरू विजयी हुईं. 1957 में कांगे्रस के पुलिन बनर्जी और 1962 में बी के धवन के सिर जीत का सेहरा बंधा. 1971, 1980 और 1984 में यह सीट एक बार फिर नेहरू खानदान की शीला कौल के पास रही. कांगे्रस को आपातकाल के बाद यहां बहुत बड़ा झटका लगा और 1977 में जनता पार्टी के टिकट से हेमवती नंदन बहुगुणा चुनाव जीत गए, वहीं 1989 में जनता दल के टिकट से मान्धाता सिंह चुनाव जीतने में सफल रहे. इसे महज इत्तेफाक ही कहा जाएगा कि भले ही लखनऊ के किसी भी लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की साइकिल अपनी मंजिल पर नहीं पहुंच पाई हो, लेकिन 1967 में यहां निर्दलीय उम्मीदवार एवं हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज पंडित आनंद नारायण मुल्ला की साइकिल (मुल्ला का चुनाव चिन्ह) खूब दौड़ी थी. आनंद नारायण मुल्ला के बाद लखनऊ से कभी कोई निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव नहीं जीत सका. फिल्म अभिनेता राज बब्बर, डॉ. कर्ण सिंह, राम जेठमलानी, भगवती सिंह एवं दाऊ जी गुप्त जैसे नेताओं ने भी लखनऊ से भाग्य आजमाया, परंतु उन्हें जीत नसीब नहीं हुई.
रही बात लखनऊ के सियासी मिजाज की, तो यहां कभी किसी प्रत्याशी के पक्ष में धु्रवीकरण जैसे हालात नहीं बने. 1999 एवं 2004 के लोकसभा चुनाव में यहां से बसपा प्रमुख मायावती और 1998 एवं 2009 में समाजवादी पार्टी ने मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतार कर वोटों के धु्रवीकरण की कोशिश ज़रूर की थी, लेकिन उनका यह पैतरा चल नहीं पाया. 1998 में मुंबई की चकाचौंध से आए सपा प्रत्याशी मुजफ्फर अली ज़रूर भाजपा प्रत्याशी अटल बिहारी वाजपेयी को टक्कर देते नज़र आए और दूसरे स्थान पर रहे. इसके अलावा कभी कोई मुस्लिम प्रत्याशी मजबूती के साथ मुकाबले में खड़ा नहीं दिखा. यही वजह है कि इस बार यहां कांगे्रस, बसपा और समाजवादी पार्टी यानी किसी ने भी मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में नहीं उतारा. 1998 के लोकसभा चुनाव के बाद पहली बार ऐसा देखने को मिल रहा है, जब मैदान में कोई मुस्लिम प्रत्याशी नहीं है. समाजवादी पार्टी को लेकर काफी अटकलें लगी थीं कि वह मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतार सकती है, लेकिन जब उसने भी चुनावी संध्या में क़रीब डेढ़ वर्ष पूर्व घोषित प्रत्याशी अशोक वाजपेयी का टिकट काटकर दूसरे ब्राह्मण प्रत्याशी अभिषेक मिश्र (अखिलेश सरकार में मंत्री एवं लखनऊ उत्तर से विधायक) को मैदान में उतारा, तो उसके मुस्लिम प्रत्याशी वाले सभी कयासों पर विराम लग गया.
बात 16वीं लोकसभा चुनाव के लिए लखनऊ में सजी सियासी बिसात की करें, तो इस बार हवा का रुख काफी बदला-बदला लग रहा है. लखनऊ का सांसद बनने के लिए दो विधायकों (लखनऊ कैंट से कांगे्रस की डॉ. रीता बहुगुणा जोशी एवं लखनऊ उत्तर से सपा के अभिषेक मिश्र) के अलावा गाजियाबाद संसदीय सीट छोड़कर लखनऊ में किस्मत आजमाने आए राजनाथ सिंह और पिछली बार बसपा के टिकट से ताल ठोंकने वाले नकुल दुबे प्रमुख रूप से इस बार भी मैदान में हैं. ऐसा लगता है कि लखनऊ में जो भी लड़ेगा, वह भाजपा प्रत्याशी राजनाथ सिंह के ख़िलाफ़ ही लड़ेगा. ऐसा अटल के नाम, राजनाथ के व्यक्तित्व और मोदी लहर के कारण होता दिख रहा है. राजनाथ ने टिकट काटे जाने से नाराज़ चल रहे मौजूदा सांसद एवं बुजुर्ग नेता लालजी टंडन के हाथों में अपने चुनाव की कमान सौंपकर उनकी नाराज़गी पर पानी डालने का काम कर दिया है. पिछली बार कांगे्रस प्रत्याशी डॉ. रीता बहुगुणा जोशी ने भाजपा के लालजी टंडन को कड़ी टक्कर दी थी. इस बार भी वैसा ही होता दिख रहा है. हाल में ही समाजवादी पार्टी ने अपने सोलह महीने पहले से घोषित प्रत्याशी अशोक वाजपेयी को बदल कर राज्यमंत्री अभिषेक मिश्र को प्रत्याशी बनाकर नया दांव चला है. अभिषेक युवा हैं, पढ़े-लिखे हैं, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के क़रीबी हैं और 2012 के विधानसभा चुनाव में शानदार जीत दर्ज कर चुके हैं. सपा सरकार के दो वर्षों के कार्यकाल पर भले ही उंगली उठ रही हो, लेकिन अभिषेक मिश्र के कामकाज से स्थानीय जनता संतुष्ट नज़र आती है. अभिषेक पूरी ताकत से चुनाव लड़ेंगे.
जातीय गणित पर नज़र डालें, तो लखनऊ में क़रीब साढ़े चार लाख मुस्लिम, तीन लाख से ऊपर ब्राह्मण, क़रीब डेढ़ लाख पहाड़ी, दो लाख कायस्थ, एक लाख से ज़्यादा पिछड़े और ढाई लाख दलित मतदाता हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं के दृष्टिगत सपा ने नफीसा अली को उम्मीदवार बनाया था, लेकिन उन्हें स़िर्फ साठ हज़ार वोट मिले और जमानत तक जब्त हो गई थी. कांग्रेस की रीता बहुगुणा जोशी की ब्राह्मणों में स्वीकार्यकर्ता देखकर मुस्लिम उनके पाले में खड़े हो गए. नतीजा यह हुआ, जो लालजी टंडन आसानी से जीतते हुए दिख रहे थे, वह स़िर्फ 40 हज़ार वोटों से जीत हासिल कर पाए. सपा ने 2009 में मुस्लिम कार्ड खेला था, तो 2004 में बसपा यह दांव चल चुकी थी, लेकिन मुसलमानों को जब लगा कि लखनऊ में बसपा का आधार दलित वोट बहुत ज़्यादा नहीं है और दूसरी जातियां बसपा को वोट नहीं करेंगी, तो उन्होंने सपा की डॉ. मधु गुप्ता का समर्थन कर दिया. नतीजा यह हुआ कि बसपा का मुस्लिम उम्मीदवार स़िर्फ 50 हज़ार वोट पा सका और उसकी जमानत जब्त हो गई.
खैर, राजनीतिक पंडितों का मानना है कि कांग्रेस, बसपा और सपा प्रत्याशी पूरी मजबूती के साथ चुनाव लड़े, तो उसका फ़ायदा उनसे अधिक भाजपा के राजनाथ सिंह को मिलेगा. फिलहाल मुस्लिम मतदाताओं में भ्रम की स्थिति नज़र आ रही है, लेकिन मतदान वाले दिन वे ज़रूर तय कर लेंगे कि भाजपा प्रत्याशी को कौन सा ग़ैर-भाजपाई उम्मीदवार टक्कर दे सकता है. उसी के अनुसार वे मतदान कर देंगे. इससे सपा, बसपा और कांगे्रस किसी को भी फ़ायदा हो सकता है. आम आदमी पार्टी ने अभी तक यहां से प्रत्याशी नहीं तय किया है. वहीं तृणमूल कांगे्रस ने मोहम्मद सरवर मलिक को मैदान में उतारा है. लखनऊ संसदीय सीट के अंतर्गत आने वाली पांच विधानसभा सीटों पर कभी भारतीय जनता पार्टी का दबदबा रहता था, लेकिन परिसीमन के बाद हुए विधानसभा चुनाव में पांच में से तीन सीटों पर सपा ने कब्जा कर लिया, कांगे्रस और भाजपा के खाते में एक-एक सीट आई.
 

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