एक किशोरी जो हीरोइन बनने के लिए अपने प्रेमी रमणीक लाल के साथ भागकर मुंबई आ जाती है मगर उसका प्रेमी ही उसे धोखे से शीला मौसी के कोठे पर मात्र ₹1000 में बेच देता है और यहीं से गंगा हरजीवनदास काठियावाड़ी की, गंगा से गंगू बाई बनने की एक लोमहर्षक दास्तां शुरू होती है जिसने उसे कमाठीपुरा इलाके की मुखिया गंगूबाई और फिर माफिया क्वीन (मैडम) में बदल दिया।

एस. हुसैन ज़ैदी और उनकी सहयोगी सह पत्रकार जेन बोर्जेस ने मिलकर एक किताब लिखी- ‘माफिया क्वींस ऑफ़ मुंबई’ जो तेरह महिला माफियाओं के जीवन की सच्ची कहानी पर आधारित है। इस किताब में एक चैप्टर गंगूबाई का भी है इसी पर इस फिल्म का निर्माण हुआ है।

संजय लीला भंसाली /जयंतीलाल गाड़ा निर्माता हैं और निर्देशक संजय लीला भंसाली और संगीतकार भी संजय लीला भंसाली ही हैं।
संगीत भंसाली फिल्म्स का एक सशक्त पक्ष रहा है जैसा कि हमने उनकी विगत फिल्मों- खामोशी द म्यूज़िकल, हम दिल दे चुके सनम, देवदास, ब्लैक, गुज़ारिश, रामलीला, पद्मावत, बाजीराव-मस्तानी आदि में उदात्त पक्ष देखा है। पटकथा के संवाद प्रकाश कपाड़िया और उत्कर्षिनी वशिष्ठ के हैं। जिन्होंने फिल्म को बांधे रखने में अहम भूमिका निभाई है।

फिल्म सीन दर सीन दर्शक को अतीत से वर्तमान तक ले जाती है। जब पहले ही दृश्य में गंगूबाई मधु नामक किशोरी को समझाने आती है कि-धंधा या मौत ?लेकिन लड़की मौत को चुनती है तब गंगूबाई ₹10,000 मालकिन को देकर लड़की को छुड़ाकर अपने आदमी से उसके घर भिजवा देती है।एक छवि निर्मित होती है कि कुछ भी हो, गंगू बाई एक सहृदय महिला है।

दर्शकों को बांधे रखने के लिए फिल्म को यथोचित ग्लैमराइज़्ड और ग्लोरिफाई भी किया गया है।

प्रारंभ में ही नाक छेदने की दर्दनाक रस्म दिखाई गई है जो इस पेशे से जुड़ी पीड़ा और उससे जुड़े गहन दर्द को बयां करती है। भंसाली ने कई जगह अपने निर्देशकीय कौशल से जीवंतता पैदा करके संवेदना को भरपूर जगाया है।
गंगूबाई को अपना अतीत याद आता है कि कैसे वह कोठे वाली शीला मौसी के हत्थे चढ़ी।भूख-प्यास से बेहाल अब उसके पास घर वापस जाने का भी मुंह नहीं रहता क्योंकि एक बार वेश्या का ठप्पा लगने के बाद घर वाले भी नहीं स्वीकारते। भागे हुए कई दिन हो गए थे आखिरकार वो धंधे में उतार दी जाती है।
पहली बार जगन सेठ 20 टका ज़्यादा देकर जाता है तब शीला मौसी उसकी कमाई के ₹20 उसे देती है तो गंगू शीला मौसी के हाथ में पकड़ी मोमबत्ती से वो रुपए जलाते हुए कहती है-‘आज से गंगा मर गई जगन सेठ ने मुझे एक नया नाम दिया है गंगू अब मैं सिर्फ गंगू हूं।’

फिल्म में आरंभ से अंत तक संवाद बहुत सशक्त और संवेदनशील हैं इनकी तीव्रता मन पर मर्म भेदी चोट करती है,इनके माध्यम से समाज में महिलाओं की अस्मिता और अस्तित्व को पुरज़ोर तरीक़े से स्थापित करने की कोशिश की गई है।

कोठे के बाहर जब पहली बार अन्यमन्सक भाव से गंगू दीवार से टिककर सीधे खड़ी हो जाती है तब एक साथी लड़की उसका लहंगा ऊंचा करके कमर में एक तरफ खोंस देती है, दूसरी लड़की एक पैर ऊपर करके दीवार से टिका देती है, तीसरी आकर एक हाथ सर के ऊपर और एक हाथ सामने फैला कर इशारा करके ग्राहक को बुलाना सिखाती है, उस समय गंगू खजुराहो की स्कल्पचर( प्रतिमा) की तरह फ्रेम में जड़ी हुई कलाकृति सी लगती है। आंखों में अपार वेदना, अव्यक्त पीड़ा, धंधे की विवशता लिए दुनिया के एक बहिष्कृत समाज में औरतों को एक बिकाऊ माल में परिवर्तित होते समुदाय को व्याख्यायित करती हुई।

धंधे में उतरने के कुछ समय बाद गंगू एक वहशी गुर्गे का शिकार हो जाती है। जब गंगू को पता चलता है कि वह दरिन्दा रहीम लाला का आदमी है तो गंगू अपनी फरियाद लेकर रहीम लाला के दरबार में पहुंचती है जहां रहीम लाला उसकी दुर्गति होने के बावजूद उसका साहस देख कर उसकी मदद को आगे आता है। इस तरह रहीम लाला के संपर्क में आने के बाद गंगू का रसूख बढ़ जाता है। बाद में रहीम लाला उसे अपनी बहन बना लेता है और पार्टनरशिप भी देता है।
(रहीम लाला की सशक्त भूमिका में अजय देवगन ख़ूब जमे हैं)
गंगू बाई कहती है ‘अब से शराब का ठेका वह संभालेगी।’

इसके बाद गंगू अपनी कोठे की मालकिन शीला मौसी से डरती नहीं बल्कि साथी लड़कियों को एकजुट करके सबके लिए एक दिन छुट्टी का घोषित करती है।
शीला मौसी के मरने के बाद कोठे की मालकिन की गद्दी,एक मत से सब गंगू को सौंप देते हैं यहां निर्देशक ने इस बात को बड़ी बारीकी से दृश्य में पिरोयी है कि घर से भागते वक्त अलमारी की चाबी का गुच्छा हड़बड़ी में गंगा अपने साथ ले आती है जिसे शीला मौसी गंगा से छीनकर अपने पास रख लेती है जो उसे शीला मौसी की मौत के बाद मिलता है। गुच्छे को बड़ी ठसक के साथ गंगू अपनी कमर में खोंसती है ये इस बात का प्रतीक है कि अब से घरवाली वह है और कोठे पर अब उसकी हुकूमत चलेगी।यह दृश्य बहुत सशक्त बन पड़ा है।

मात्र 27 साल की उम्र में वह गंगू से गंगूबाई बन जाती है। अब पुलिस वालों को संभालना, कमाठीपुरा के अन्य कोठे वालियों से प्रतिद्वंदिता से लेकर अपनी साख़ बनाए रखने की सारी ज़िम्मेदारी गंगूबाई के कंधों पर आ जाती है जिसे वह अपनी बुद्धिमत्ता और बहादुरी से बखूबी अंजाम देती है।

इसी बीच गंगूबाई का प्रेम संबंध अपने दर्जी के नौजवान बेटे अफशान (कलाकार- शांतनु माहेश्वरी) से हो जाता है। पहली मुलाक़ात में गंगू और युवक के मध्य सफेद रंग की साड़ी को लेकर हुए कविता की तरह संवाद-
नमक सा सफ़ेद या शक्कर सा
झरने सा सफ़ेद या बादल सा
बर्फ सा सफ़ेद या हंस सा
दूध सा सफ़ेद या कफ़न सा
इस प्रेम प्रसंग को गीतों के माध्यम से भंसाली ने अद्भुत ढंग से फिल्माया है।
जब सैंया आए शाम को
तो लग गए चांद मेरे नाम को
अपने छज्जे पर खड़े होकर ताश के पत्तों को एक-एक कर फेंक कर अपने प्रेमी को देना और आख़िर में बाजी जीत लेना। इशारों- इशारों में आपस में बात करने का नज़ाकत भरा ,अनोखा स्टाइल। निर्देशक का यह आईडिया कमाल की छाप छोड़ जाता है।

मेरी जां, मेरी जां, मेरी जां…..
कार में नायिका प्रेमी को साथ ले तो जाती है लेकिन उसे मनमानी नहीं करने देती। रमणीक लाल से धोखा वह कभी नहीं भूलती। जिस संरक्षण और सुनहरे भविष्य की कामना लेकर गंगा मुंबई आई थी उसका दंश वह भूली नहीं है। गीत के अंतिम अंतरे के फिल्मांकन में गंगू , प्रेमी का हाथ पकड़ कर अपने सर पर फिराने लगती है जो अत्यंत कारुणिक प्रभाव पैदा करता है। इस गीत में बहुत संभावनाएं थी निर्देशक के पास कि वो कार की पिछली सीट पर जो चाहे सिचुएशन के हिसाब से छूट ले सकता था/करवा सकता था। लेकिन हर चीज़ खुलकर दिखा देना सुंदरता का परिचायक नहीं होती।शायद इसी बात को ध्यान में रखते हुए इस गीत के प्रसंग में सब कुछ है परंतु अश्लीलता नहीं है।

एक कव्वाली भी है हुमा कुरैशी पर फिल्माई गई। कव्वाली में दरअसल उस वस्तुस्थिति का वर्णन है जब गंगूबाई अपने प्रेमी की शादी कमाठीपुरा की एक वेश्या की कुंवारी किशोरी बेटी से करवा देती है। उस वक्त उनकी क्या मन:स्थिति थी उस स्थिति को कव्वाली में बहुत अच्छे से गीत के बोलो के माध्यम से व्यक्त कर दिया गया है।
कव्वाली के बोल हैं-
सुना है उनको शिकायत बहुत है
तो फिर उनको हमसे मोहब्बत बहुत है
उस वक्त गंगूबाई और उसके प्रेमी की जो मनोदशा है वह इस गीत से अच्छी तरह समझी जा सकती।

इसी तरह धूम-धड़ाके का गीत धोलीड़ा एक गरबा नृत्य है।इस नृत्य को करते हुए गंगू अपने दुख, विषाद और पीड़ा को जैसे भुला देना चाहती है।
सामूहिक गरबा नृत्य जिसमें गंगू सारी आदिशक्तियों,/देवियों का आह्वान करती है।
इस कार्यक्रम से वापस आकर गंगू बक्सा खोलती है तो ताश के पत्ते बिखरे होते हैं जो उसके प्रेम की अठखेलियों की निशानी है।

अब गंगूबाई को कमाठीपुरा की दूसरी घर वालियों( मालकिनों )से भी इलेक्शन में जीत हासिल करनी है।जिसमें रज़िया बाई (विजय राज )के साथ उसकी टक्कर होनी है। जिस दिन रजिया बाई का भाषण होना है उसी दिन गंगूबाई सारी कमाठीपुरा की वेश्याओं को इकट्ठा कर सारी रात फिल्म दिखाती है और खुद रज़िया बाई के अड्डे पर पहुंच जाती है।
उनके बीच हुए संवाद दर्शकों का अच्छा मनोरंजन करते हैं।

कमाठीपुरा के सटे एरिये में बने मिशनरी स्कूल वाले जब कमाठीपुरा की वेश्याओं को हटाने की मांग करते हैं तो गंगूबाई उनके हक़ की लड़ाई लड़ने के साथ-साथ वेश्याओं के बच्चों को दाखिला दिलाने के लिए प्रयास करती है।
वहीं स्कूल में गंगूबाई की मुलाकात एक पत्रकार अमीन फ़ैज़ी( जिम सरभ)के साथ होती है।
पत्रकार अपना परिचय देते हुए कहता है- ‘मैं अमीन फैज़ी पत्रकार और हाथ मिलाने के लिए उसकी तरफ बढ़ाता है गंगूबाई उस से हाथ मिलाते हुए कहती है- ‘मैं वैस्या’ अपने पेशे को लेकर उसके अंदर आत्मग्लानि न होकर, अपने प्रति स्वाभिमान की भावना झलकती है। क्योंकि वह जानती है अगर समाज में यह कोठे वालीयां न हो तो न जाने और कितनी विद्रूपता है और लंपटता की बाढ़ आ जाए, जिन्हें हम ही जिस्मफरोशी करके, काम वासना को काबू में रखते हैं।
बाद के दिनों में कमाठीपुरा वाले उसे गंगू मां कहने लगते हैं। वेश्याओं की बच्चियों की शिक्षा,वेश्यायों के काम को लीगलाइज़ेशन करने की मांग, कमाठीपुरा के विस्थापन रोकने की मुहिम ,आजाद मैदान में पहली बार किसी वेश्या का भाषण,जहां गंगूबाई कहती है – ‘मेरे बारे में अख़बार में लिखना तो यह भी लिख देना कि गंगू ने आंखें झुका कर नहीं आंखें मिला कर बात की थी।’
प्रधानमंत्री से मुलाक़ात, कुछ ऐसी बातें हैं जो गंगूबाई के व्यक्तित्व को पूरी फिल्म में क्रमबद्ध रूप से स्थापित करती हुई चलती है और शायद यही फिल्मकार का उद्देश्य भी है। जिसमें वो सफल रहे हैं।

नि: संदेह आलिया भट्ट ने अच्छा काम किया है‌ या कह सकते हैं निर्देशक ने उससे अच्छा काम लिया है।
शीला मौसी-सीमा पाहवा
रज़िया बाई- विजय राज
अफ़शान- शांतनु महेश्वरी
कमली- इंदिरा तिवारी
रमणीक लाल-, वरुण कपूर
सह कलाकारों की मेहनत भी फिल्म में रंग लाई है।

-ख़ुदेजा ख़ान
जगदलपुर ( छत्तीसगढ़)

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