क्या ‘धार्मिक कट्टरवाद बनाम धर्मनिरपेक्षतावाद’ की लड़ाई अब एक नए दौर ‘उदार धर्मनिरपेक्षतावाद ( सेक्युलरवाद) बनाम कट्टर धर्मनिरपेक्षतावाद’ में तब्दील होती जा रही है? यह सवाल इसलिए क्योंकि धर्मनिरपेक्ष समाज और सत्ता तंत्र का पालना कहे जाने वाले फ्रांस में इस को लेकर तगड़ी बहस छिड़ी है कि धार्मिक और विशेषकर इस्लामिक कट्टरवाद से मुकाबला किस तरह से किया जाए? पैगम्बर मोहम्मद का कार्टून दिखाने के बाद एक कट्टरपंथी मुसलमान द्वारा एक फ्रेंच स्कूली शिक्षक के कत्ल और गुरूवार को नीस शहर में एक चर्च पर हुए कट्टरपंथी हमले में दो महिलाअोंसमेत तीन लोगों की हत्या की घटना के बाद जहां फ्रांस में मजहबी कट्टरपन के खिलाफ रोष और गहरा गया है, वहीं फ्रांस के राष्ट्रपति इमेनुएल मैक्रों की इस टिप्पणी कि ‘इस्लाम संकट में है’ के खिलाफ कई इस्लामिक देश फ्रांस के खिलाफ लामबंद हो गए हैं। कुछ मुस्लिम देशों ने फ्रांस की वस्तुअों का बहिष्कार भी शुरू कर ‍िदया है तो अनेक देशों में फ्रांस के खिलाफ बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हो रहे हैं। हालांकि इसका फ्रांस की ‘धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धता’ पर कोई खास असर होगा, ऐसा नहीं लगता। उल्टे वहां इस बात की मांग उठने लगी है कि धार्मिक कट्टरता और आग्रहों के साथ और ज्यादा कड़ाई से निपटना जरूरी है। हालांकि यह भी एक तरह का ‘धर्मनिरपेक्ष कट्टरवाद’ ( कट्टर सेक्युलरवाद) है, जो जातीय और नस्लीय पहचानों को भी खारिज करता है।

इस सवाल का उत्तर वाकई जटिल है कि धार्मिकता की हदें कहां तक होनी चाहिए और धर्मनिरपेक्षता को किस हद सहिष्णुता का मास्क पहनना चाहिए? कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि धर्मनिरपेक्षता में धार्मिक सहिष्णुता स्वत: निहित है। यानी तुम्हारी भी जय-जय और हमारी भी जय-जय। लेकिन वास्तव में यह अर्द्ध सत्य ही है। क्योंकि धर्मनिरपेक्षता (सेक्युलरिज्म, आजकल सेक्युलिरिटी शब्द भी प्रचलन में है) की परिभाषा वास्तव में क्या है? सर्व धर्म समभाव, पंथ निरपेक्षता अथवा सभी धर्मों की सार्वजनिक उपस्थिति को अमान्य करना, इस आधार पर कि जब राज्य की अवधारणा ही धर्मविहीन है तो किसी को भी अपने धार्मिक विश्वासों अथवा अस्मिता का सरेआम प्रदर्शन नहीं करना चाहिए और न ही राज्य को कोई ऐसा कृत्य करना चाहिए, जिससे राज सत्ता और धर्म सत्ता का कोई घालमेल दिखे। यदि कोई ऐसा करता है तो उसे सख्‍ती से रोका जाए,क्योंकि धर्म पालन तथा धार्मिक कर्मकांड नितांत निजी मामले हैं, जो घर की चारदीवारी या किसी धर्म स्थल की चौहद्दी तक ही स्वीकार्य हैं।

फ्रांस दुनिया का वो देश है, जिसका अधिकृ‍त धर्म ही ‘धर्मविहीनता’ है। यानी ‘धर्म विहीन राज्य’ ही फ़्रांस का सरकारी धर्म है। इसे फ्रेंच भाषा में ‘लैसिते’ कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘धर्म से मुक्ति।‘ अर्थात ‘धर्म से मुक्ति’ ही फ्रांस की राष्ट्रीय विचारधारा है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक राजनीतिक प्रेक्षक डोमिनिक मोइसी ने हाल में अपनी एक टिप्पणी में कहा था कि ये ( लैसिते) पर से थोपी गई एक प्रथा है। उन्होंने कहा- “लैसिते ( फ्रांसीसी) गणतंत्र का पहला धर्म बन गया है।”

धर्मविहीन राज्य की यह संकल्पना फ्रांस की उस राज्य क्रांति से उपजी है, जिसके मुताबिक धर्म को मानना व्यक्ति का निजी मामला है। उसे दूसरे पर न तो थोपा जाना चाहिए और न ही ऐसा कोई काम या प्रैक्टिस की जानी चाहिए, जिससे आप किसी खास धर्म के अनुयायी हैं, यह प्रकट हो। यानी अगर आप फ्रांस में हैं तो फ्रांसीसी पहले हैं। ईसाई, मुसलमान, यहूदी या और किसी धर्म के अनुयायी बाद में। हां, आपको निजी तौर पर इबादतगाहों में जाने और धर्म के पालन की छूट है।

अब यहां प्रश्न यह है कि कौन-सा अधिकार ज्यादा बड़ा है? धर्म के अनुसार आचरण का या फिर ऐसा करने को नकारने का? मतलब साफ है कि यदि आप को धर्म के पालन का जितना हक है, उतना ही उसका पालन न करने का भी है। ऐसे में यदि राज्य धर्म, धर्मविहीनता है और कोई व्यक्ति इसका उल्लंघन करता है तो उसके साथ कैसा बर्ताव किया जाना चाहिए? इस प्रश्न के दो उत्तर हो सकते हैं। पहला, उसके प्रति सहनशील रवैया अपनाया जाना चाहिए और दूसरा ऐसी किसी भी कोशिश को सख्‍ती से दबाया जाना चाहिए। दोनो स्थितियों में धर्मनिरपेक्षता का झंडा ऊंचा रहेगा, लेकिन धार्मिक कट्टरता से निपटने का तरीका अलग-अलग होगा।

दुनियाँ भर में इस्लामिक कट्टरवाद के उभार का असर फ्रांस जैसे देशों पर भी पड़ा है। वहां भी मुसलमानों में अपनी धार्मिक पहचान को लेकर चेतना और आग्रह बढ़ा है। मुसलमान फ्रांस की कुल आबादी का करीब 9 फीसदी हैं। देश की 90 फीसदी आबादी ईसाई है, उनमें भी ज्यादातर कैथोलिक ईसाई हैं। इसके बावजूद राज्य वहां धर्मनिरपेक्ष (धर्मविहीन) है अर्थात वह किसी धर्म को नहीं मानता। ज्यादातर फ्रांसीसी अपनी इस धर्मविहीनता पर गर्व करते हैं। इसीलिए वो धर्म की विसंगतियों अथवा अतार्किकता पर हमला करने से नहीं चूकते बल्कि वो इसे अपना अधिकार मानते हैं। धार्मिक मामलों में टिप्पणियों करने से इस बिना पर बचना कि कट्टरपंथी उनकी जान ले सकते हैं या किसी की आस्था को चोट पहुंच सकती है, फ्रेंच तासीर में नहीं समाता। वो इस बात की फिकर नहीं पालते कि उनके ऐसे कटाक्ष या बेबाकी का क्या अर्थ निकाला जाएगा? मुस्लिम कट्टरपंथियों ने फ्रांसीसियों के इस ‘धर्मविहीन स्वातंत्र्य’ के आग्रह को इस्लाम पर हमला माना और प्रतिक्रियास्वरूप उन संस्थानों और व्यक्तियों पर खूनी हमले करना शुरू किए, जो धार्मिक कट्टरता को नकारात्मक रूप में देखते हैं।

यह लड़ाई वास्तव में धर्मानुरूप समाज व राजसत्ता बनाम धर्म मुक्त समाज व राजसत्ता की है। इसका मोटा रूप में हमे धार्मिक चिन्हों या प्रतीकों को सार्वजनिक रूप से धारण करने अथवा उसके सार्वजनिक प्रदर्शन को गर्वित भाव से लेने के रूप में दिखता है। इसके पीछे अकाट्य तर्क यही है कि ‘हमारा धर्म तो यही कहता है।‘ लेकिन फ्रांस का ‘लैसिते सिद्‍धांत’ इसे ही अस्वीकार करता है। इसीके चलते फ्रांस ने मुस्लिम महिलाओं के सार्वजनिक रूप से बुर्का पहनने पर सख्‍ती से रोक लगाई।

पांच साल पहले फ्रांस में शार्ली एब्दो पत्रिका पर खूनी हमले के बाद फ्रांस में इस पर व्यापक बहस छिड़ गई कि हमे सहिष्णुता के आवरण में अपनी ‘धर्म मुक्त राज्य’ व समाज की अवधारणा से समझौता कर लेना चाहिए या फिर उसे और ज्यादा ताकत से लागू करना चाहिए? यानी लैसिते को और ज्यादा कठोर बनाना चाहिए। उदारवाद को भी अधिक अनुदारवादी तरीके से अमली जामा पहनाना चाहिए और इसमें ‘सिलेक्टिव’नहीं हुआ जा सकता। ज़्यादातर फ्रांसीसी लैसिते को कड़ाई से लागू कराने के पक्ष में बताए जाते हैं। उनका मानना है कि धार्मिक सहिष्णुता का तर्क उनके धर्म मुक्त समाज और राज्य को कमजोर कर देगा, जोकि एक सदी से ज्यादा समय से फ्रांसीसी गणतंत्र की पहचान रही है। या यूं कहें कि यह सीधे-सीधे धार्मिक स्वतंत्रता विरूद्ध वैयक्तिक स्वतंत्रता का टकराव है।

हाल में यह मुददा फिर गर्मा गया है कि कौन सी आज़ादी ज़्यादा अहम है,धार्मिक आस्था की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाने की अथवा उसे नकारने के हक की हिफाज़त के लिए किसी भी प्रतिक्रिया की चिंता नहीं करने की? स्कूली टीचर की हत्या के बाद फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रों की प्रतिक्रिया बहुत स्पष्ट थी। उन्होंने पैगम्बर का कार्टून दिखाने के स्कूली शिक्षक के अधिकार का खुलकर समर्थन किया और कहा कि ‘इस्लाम संकट’ में है। इसके पहले उन्होंने यह भी कहा था कि ‘इस्लाम को फ्रांस के हिसाब से ढलना चाहिए।‘ यानी फ्रांस इस्लाम के मुताबिक नहीं ढलेगा। मैक्रों की टिप्पणियों ने दुनियाभर के मुसलमानों और मुस्लिम देशों को भड़का दिया। फ्रांस के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध आंदोलन शुरू हो गया। कुछ मुस्लिम देशों के शासकों ने अपनी सत्ता के प्रति जन असंतोष को फ्रांस‍ विरोध में बदलने की कोशिश भी की है। इनमें तुर्की और पाकिस्तान मुख्‍य हैं। उधर इस पूरे घटनाक्रम से फ्रांस में रह रहे मुसलमान असमंजस में हैं कि वो क्या करें?

फ्रांस बनाम मुस्लिम राष्ट्रों का यह टकराव जल्द नहीं थमा तो आगे यह गंभीर वैश्विक संकट का रूप भी ले सकता है। यूं तो भारत का इस घटनाक्रम से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है, लेकिन इसका परोक्ष असर हम पर भी होगा, तय मानिए। बावजूद इस विश्वास के कि भारतीय समाज और सत्ता तंत्र का चरित्र, हमारी परंपरा व सामाजिक सौहार्द के अटूट धागे हमे ऐसे ‘अतिवाद’ से बचा लेंगे। असली सवाल फिर भी बाकी रहेगा कि अल्पसंख्‍यक धार्मिक आग्रहों और बहुसंख्यक मान्यताअो के बीच तालमेल कैसे और किस हद बैठाया जाना चाहिए? भारत के संदर्भ में कट्टर धर्मनिरपेक्षता ज्यादा सही है या उदार धर्मनिरपेक्षता? सर्व धर्म समभाव का जज्बा उचित है या धर्मविहीनता का आग्रह?क्योंकि राज्य को पूरी तरह ‘धर्म मुक्त’ करने के भी अपने सामाजिक-राजनीतिक खतरे हैं, जो हम फ्रांस में देख रहे हैं। हमे किस राह पर चलना चाहिए?

वरिष्ठ संपादक

अजय बोकिल

‘सुबह सवेरे’

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