इजिप्ट के 6ठवें अल गूना फिल्म फेस्टिवल में अश्वेत फ्रेंच फिल्मकार लाड्ज ली की ‘ ल इनडिजायरेबल्स ‘ और चीन के वांग बिंग की फिल्म ‘ यूथ (स्प्रिंग)’ आधुनिक अर्थ व्यवस्था में अन्याय और शोषण की अनकही कहानियों को सामने लाती है। य दोनों फिल्में दिखाती हैं कि महान फ्रेंच क्रांति (1779) के जीवन मूल्य और संकल्प – समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व – अभी भी नागरिक जीवन में लागू होना बाकी है।
फ्रांस के अश्वेत फिल्मकार लाड्ज ली ने अपनी पिछली चर्चित फिल्म ‘ ल मिजरेबल्स ‘ की तरह हीं ‘ ल इनडिजायरेबल्स’ में गोरे लोगों द्वारा काले लोगों के प्रति लगातार होनेवाले रंग भेद, अन्याय और भ्रष्टाचार को विषय बनाया है। एक युवा डाक्टर पियरे को अचानक पेरिस के एक ऐसे उपनगर का मेयर नियुक्त कर दिया जाता है जहां अधिकतर गरीब और मजदूर रहते हैं। मेयर का पद संभालते ही उसका सबसे पहला काम हैं की एक उपेक्षित सी बड़ी बिल्डिंग को गिराकर उस इलाके को अश्वेत आप्रवासियों से खाली कराना। बिल्डिंग को गिराने का फरमान इसलिए जारी होता है ताकि उस इलाके को सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से अपग्रेड कर संभ्रांत बनाया जा सके। इस प्रक्रिया को शहरी जीवन में जेंटिफिकेशन कहते हैं। उस बिल्डिंग में सैकड़ों अश्वेत परिवार रहते हैं। एक शाम सैकड़ों पुलिस और नगरपालिका के दस्ते उस बिल्डिंग को खाली कराने पहुंच जाते हैं और फिर शुरू होता है अनवरत चलने वाला एक संघर्ष।
जिस निर्ममता से उस विशाल बहुमंजिला इमारत को खाली कराया जाता है, उपर से खिड़की के बाहर सामान फेंका जाता है, वह दृश्य हृदयविदारक है। वहां के बाशिंदे आंखों में आंसू लिए असहाय अपने आशियाने को उजड़ते हुए देख रहे हैं। पेरिस की सर्द रात में बूढ़े बच्चे स्त्री पुरुष बीमार दिव्यांग सब धीरे धीरे बिल्डिंग से बाहर निकल रहे हैं। एक अश्वेत युवा गुस्से से कांपता हुआ मेयर के घर पहुचता है और तोड़ फोड़ करता है। मेयर के परिवार वालों को बाहर से बंद कर पेट्रोल छिड़ककर घर में आग लगाने ही वाला होता है कि उसकी संगिनी आकर उसे पकड़ लेती है। दोनों एक दूसरे से लिपट कर रोने लगते हैं। गोरे मेयर को पहली बार अहसास होता है कि परिवार का दर बदर होना क्या होता है। कैमरा जिस खूबसूरती से एक एक क्षण को दिखाता है वह काबिले तारीफ है। सबसे बड़ी बात यह की वह क्रिसमस की रात है जब सारा पेरिस जश्न में डूबा हुआ है।
चीन के वैंग बिंग की लंबी डाक्यूमेंट्री ‘ यूथ’ ( स्प्रिंग) भी अपने राजनीतिक कथ्य की वजह से चर्चा में है। शंघाई से 150 किलोमीटर दूर हूझू प्रांत के वुझिंग जिले के औद्योगिक शहर झिली में टेक्सटाइल मजदूरों के बीच एक साल की शूटिंग में यह फिल्म बनी है। छह सौ घंटों की फुटेज से साढ़े तीन घंटे का पहला भाग सामने आया है। इन फैक्ट्री मजदूरों में अधिकांश युवा लड़के लड़कियां हैं जो बेहतर जीवन की तलाश में सुदूर चीनी गांवों से आए हैं और दिन रात काम कर रहे हैं। उनके रहने, खाने-पीने और काम करने की स्थितियां भयावह है। बस एक सपना उन्हें जीवित रखे हुए हैं कि एक दिन उनका अपना घर होगा और वे अपना परिवार बसा सकेंगे। कैमरा उनकी उबाऊ दिनचर्या को बार बार दोहराते हुए अलग प्रभाव छोड़ता है। डोरमेट्री और फैक्ट्री के चारों ओर कूड़े, कीचड़ और अंधेरे के ढेर के बीच जैसे जैसे ठेकेदार काम का टारगेट बढ़ाता जाता है वैसे वैसे बेहतर जीवन जीने का सपना उनके हाथ से फिसलता जाता है। बीस से तीस साल के ये नौजवान मजदूर बूढ़े होने लगते हैं। कैमरा हर समय उनके आपसी रिश्तों में आ रहे बदलावों को दर्ज कर रहा है- उनकी छोटी छोटी खुशियां, उनके बीच की ईर्ष्या और प्रतिद्वंद्विता, प्यार और गुस्सा और बढ़ती निराशा। फिल्म बताती है कि जिन युवा कामगारों की मिहनत के बल पर आज चीन मैनुफैक्चरिंग सेक्टर में सबसे आगे हैं, उनके बेहतर जीवन की कोई योजना उसके पास नहीं है। एक पूरी नौजवान पीढ़ी को चीन ने मशीन की तरह दिन रात काम की भट्टी में झोंक दिया है।