educationशिक्षा अधिकार है, शिक्षा राष्ट्र निर्माण का आधार है, लेकिन दुनिया की नज़र में यही शिक्षा व्यापार है. भारत की 125 करोड़ की आबादी दुनिया के लिए महज एक बाज़ार है. यहां के खेत, यहां के किसान, यहां की हर चीज दुनिया के लिए एक व्यापारिक वस्तु भर है. नतीजा यह कि पिछले 25 वर्षों में धीरे-धीरे सब कुछ वैश्विक बाज़ार के हाथों में चला गया. बाकी रह गई थी शिक्षा. अब विश्व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यूटीओ ने जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड इन सर्विसेज (गैट्स) के तहत शिक्षा को भी व्यापारिक सेवा के अंतर्गत शामिल कर लिया है. इसका अर्थ यह हुआ कि जिस तरह से दुनिया भर की कंपनियों के लिए भारत के खेत-खलिहानों के रास्ते खोल दिए गए थे, अब उसी तरह से भारत का उच्च शिक्षा क्षेत्र भी विदेशी कंपनियों को मुना़फा कमाने के लिए खोल दिया जाएगा.

ज़ाहिर है, जब बात मुना़फा कमाने की होगी, तो फिर कैसी और कितनी शिक्षा आपके बच्चों को मिलेगी, इसका सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है. विश्व व्यापार संगठन के तीन बहुपक्षीय समझौते हैं, जिनमें एक प्रमुख समझौता है, जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड इन सर्विसेज (गैट्स). गैट्स के तहत शिक्षा को भी एक सेवा माना गया है. इसका अर्थ यह हुआ कि विश्व व्यापार संगठन में शामिल देश, एक-दूसरे के यहां शिक्षा का व्यापार कर सकते हैं, अपने कॉलेज-यूनिवर्सिटी खोल सकते हैं और अपने हिसाब से पाठ्यक्रम तय कर सकते हैं.

वे यह तय कर सकते हैं कि इस देश के बच्चों को क्या पढ़ाना है और क्या नहीं पढ़ाना है. अब सवाल यह है कि इस सबके बीच भारत की क्या भूमिका है और इससे वह कैसे प्रभावित होगा? भारत की शिक्षा व्यवस्था कैसे प्रभावित होगी और भारत के सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक रूप से वंचित वर्ग कैसे इस पूरी प्रक्रिया से प्रभावित होंगे?

इस पूरी कहानी की शुरुआत होती है वर्ष 2001 में कतर की राजधानी दोहा में आयोजित विश्व व्यापार संगठन के मंत्री स्तरीय सम्मेलन से. इस सम्मेलन में उच्च शिक्षा के दरवाजे व्यापार करने के लिए खोलने पर बातचीत हुई. कहा गया कि इस चर्चा को हम आगे जारी रखेंगे और इस पर सहमति बनाने की कोशिश करेंगे कि विश्व व्यापार संगठन में शामिल देश अपने यहां उच्च शिक्षा में व्यापार की अनुमति दें. इस प्रस्ताव पर भारत एवं चीन समेत क़रीब साठ देश सहमति दे चुके हैं. जबकि यह प्रावधान है कि भारत या कोई भी देश, चाहे तो इस समझौते से बाहर रह सकता है.

जैसे, अफ्रीकन और यूरोपियन यूनियन ने सा़फ तौर पर इस समझौते को मानने से इंकार कर दिया और कहा कि हम अपने यहां की उच्च शिक्षा विश्व व्यापार संगठन के हवाले नहीं करेंगे. वैसे भारत एवं चीन द्वारा इस समझौते पर दी गई सहमति में अंतर है. भारत के मशहूर शिक्षाविद् अनिल सद्गोपाल बताते हैं कि जहां भारत ने गैट्स के सारे प्रावधानों को मानने की बात की है, वहीं चीन ने अनबाउंड (कोई बंधन नहीं) का विकल्प चुना है.

फिलहाल यह जानना ज़रूरी है कि भारत द्वारा गैट्स के प्रावधानों को मानने और अपनी उच्च शिक्षा विश्व व्यापार संगठन के हवाले करने का अर्थ क्या है? गैट्स के मुताबिक, जो भी देश अपने यहां शिक्षा में व्यापार की अनुमति देगा, उसे अपने यहां उच्च शिक्षा में निवेश करने वाले कॉरपोरेट घरानों (विदेशी निवेश समेत) को समतामूलक ज़मीन मुहैय्या करानी होगी.

इसका अर्थ यह हुआ कि यदि भारत में कोई विदेशी कंपनी अपना विश्वविद्यालय खोलती है, तो उसे भारत के अन्य विश्वविद्यालयों से प्रतियोगिता करने के लिए समान अवसर, समान धरातल मुहैय्या कराना होगा. इस बात को समझाते हुए अनिल सद्गोपाल बताते हैं कि आज अगर भारत में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग दिल्ली विश्वविद्यालय को सौ करोड़ रुपये का अनुदान भवन बनाने, नया ढांचा तैयार करने, रिसर्च और शिक्षा के लिए देता है, तो उसे निजी विश्वविद्यालयों को भी यह सुविधा देनी होगी.

लेकिन चूंकि यह संभव नहीं है, इसलिए यूजीसी समान धरातल मुहैय्या कराने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय को भी यह सुविधा देना बंद कर देगा. अनिल सद्गोपाल बताते हैं कि आगे यह भी संभव है कि सरकारी कॉलेजों-विश्वविद्यालयों से अपना फंड खुद जुटाने के लिए कहा जाएगा. उनसे कहा जाएगा कि उनके पास जो अतिरिक्त ज़मीन है, उसे बेचकर, फीस बढ़ाकर अपना खर्च जुटाएं, ताकि गैट्स समझौते के तहत सभी संस्थाओं को आपस में प्रतियोगिता करने के लिए समान धरातल मिल सके.

ज़ाहिर है, यदि ऐसा होता है, तो कल यह संभव है कि सरकारी कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों के शिक्षकों को वेतन के भी लाले पड़ जाएं. यदि कल को सरकारी संस्थाएं स्ववित्त पोषित हो जाती हैं, तो उनका पाठ्यक्रम भी बाज़ार नियंत्रित हो जाएगा. इस बात को ऐसे समझ सकते हैं कि आने वाले समय में इन संस्थाओं को बाज़ार की मांग के अनुसार आपूर्ति करनी पड़ेगी.

ज़ाहिर है, बाज़ार को कुशल या अर्द्धकुशल कामगार चाहिए, न कि विद्वान. ऐसे में इन उच्च सरकारी शिक्षण संस्थाओं में आज जो रिसर्च आदि का काम होता है, उसके उलट स़िर्फ बाज़ार की ज़रूरत के हिसाब से कामगारों की आपूर्ति करनी होगी. इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं. जैसे, बाज़ार को अंग्रेजी बोलने वाले लोग चाहिए, तो ये उच्च शिक्षण संस्थाएं अंग्रेजी साहित्य पढ़ाने की जगह ऐसे विद्यार्थी तैयार करेंगी, जो स़िर्फ अंग्रेजी बोल सकें, न कि उन्हें अंग्रेजी साहित्य का ज्ञान हो.

जीव विज्ञान की जगह स़िर्फ बायो टेक्नोलॉजी पढ़ाने की मजबूरी होगी. अनिल सद्गोपाल बताते हैं कि शिक्षा के तीन मकसद होते हैं- ज्ञान, मूल्य और कौशल. आने वाले समय में यदि भारत सरकार गैट्स समझौते को अपना लेती है, तो शिक्षा में से ज्ञान एवं मूल्य खत्म हो जाएंगे और स़िर्फ बचेगा कौशल. कौशल यानी कुशल और अर्द्धकुशल कामगार पैदा करना.

यूपीए सरकार ने विश्व व्यापार संगठन के इन प्रावधानों के अनुसार देश के क़ानूनी ढांचे को बदलने के लिए उच्च शिक्षा से संबंधित छह विधेयक संसद में पेश किए थे, जिनमें विदेशी विश्वविद्यालयों को अनुमति देने से संबंधित विधेयक भी शामिल था. इसके अलावा उन विधेयकों में यूजीसी, मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया, एआईसीटीई, एनसीटीई एवं बीसीआई को हटाने की भी बात थी, ताकि इन नियामक संस्थाओं को खत्म करके विदेशी निवेशकों के लिए सुविधाजनक रास्ता तैयार किया जा सके.

यह अलग बात है कि उनमें से एक भी विधेयक पारित नहीं हुआ. लेकिन, इस तरह के विधेयकों को मौजूदा सरकार द्वारा पारित कराए जाने की आशंका तब तक बरकरार रहेगी, जब तक कि सरकार खुद को ऐसे समझौते से पूरी तरह अलग न कर ले. इस तरह की आशंका को और अधिक बल तब मिलता है, जब हम यह देखते हैं कि मौजूदा केंद्र सरकार दिल्ली विश्वविद्यालय या अन्य विश्वविद्यालयों पर च्वॉइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम थोपती है, एकल विश्वविद्यालय क़ानून बनाने की कोशिश की जाती है. ऐसा कहा जा रहा है कि एकल विश्वविद्यालय का प्रावधान विश्व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यूटीओ के एजेंडे का ही एक हिस्सा है. हाल में यूजीसी द्वारा ग़ैर नेट छात्रवृत्तियां बंद करने का फैसला भी डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुसार शिक्षा पर सार्वजनिक खर्च घटाने के प्रावधानों के मुताबिक लिया गया फैसला माना जा रहा है.

यह सब कबसे और कैसे लागू होता है, इस बारे में फिलहाल तो कुछ कहना मुश्किल है, लेकिन डब्ल्यूटीओ की दोहा वार्ता के दौरान ही भारत ने अगस्त 2005 में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में विदेशी कंपनियों के प्रवेश को लेकर अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर कर दी थी. हालांकि, डब्ल्यूटीओ में व्यापार समझौता (व्यापार में ही शिक्षा भी शामिल है) प्रतिबद्धता अभी तक किसी अंतिम परिणाम तक नहीं पहुंची है, लेकिन 2005 के बाद से ही या कहें कि उससे भी पहले से सरकारें लगातार उच्च शिक्षा में विदेशी निवेश आए और विदेशी कंपनियां यहां कॉलेज-विश्वविद्यालय खोल सकें, इसके लिए काम करती रहीं.

कई सारी कमेटियों ने भी इसकी वकालत की. मसलन, सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में बने नेशनल नॉलेज कमीशन (राष्ट्रीय ज्ञान आयोग) ने कहा था कि भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भारी निवेश यानी क़रीब 190 बिलियन अमेरिकी डॉलर की ज़रूरत है, ताकि लक्ष्य पूरा किया जा सके और इसके लिए कमीशन ने एफडीआई के ज़रिये धन जुटाने का सुझाव दिया था. ज़ाहिर है, इस सबका मकसद यह था कि सरकार धीरे-धीरे सबको समान शिक्षा देने के अपने दायित्व से मुक्त होती चली जाए और उसकी जगह देशी-विदेशी निजी कंपनियां शिक्षा का व्यापार कर सकें.

बहरहाल, सरकार और डब्ल्यूटीओ के इस प्रयास का भारत समेत पूरी दुनिया भर में विरोध हो रहा है. भारत में इसके विरोध में विभिन्न धाराओं और विभिन्न विचारों के संगठन शामिल हैं. अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच के बैनर तले विभिन्न राज्यों के सैकड़ों संगठन उच्च शिक्षा को डब्ल्यूटीओ के हवाले करने का विरोध कर रहे हैं. तेलंगाना से शुरू हुआ विरोध का स्वर दिसंबर में दिल्ली तक पहुंचा, जहां जंतर-मंतर पर देश भर से आए संगठनों ने सरकार से डब्ल्यूटीओ में उच्च शिक्षा के व्यापारीकरण के प्रति जताई गई अपनी प्रतिबद्धता तुरंत वापस लेने की मांग की.

अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच का मानना है कि यदि विदेशी विश्वविद्यालय यहां स़िर्फ ज्ञान के प्रसार या फिर आदान-प्रदान के लिए आते और उनका मकसद स़िर्फ आपस में शैक्षणिक-सांस्कृतिक संबंधों का विकास करना भर होता, तो किसी विरोध की ज़रूरत नहीं थी, लेकिन यह कहानी इतनी भर नहीं है, बल्कि इससे कहीं आगे की है. मंच का कहना है कि इस समझौते के तहत जो विदेशी विश्वविद्यालय भारत आएंगे, वे स़िर्फ और स़िर्फ मुना़फा कमाने के लिए आएंगे, न कि समाज सेवा के लिए. ऐसे समझौते की आड़ में घटिया स्तर के विदेशी विश्वविद्यालय भी यहां अपनी शाखाएं खोलेंगे, मोटी फीस वसूलेंगे और मुना़फा कमाएंगे. 

समाज पर असर

यदि हमारे देश के उच्च शिक्षा क्षेत्र में यह समझौता लागू हो जाता है, तो इसका समाज पर क्या असर पड़ेगा? इस सवाल के जवाब में अनिल सद्गोपाल कहते हैं कि पहले से ही हमारे देश में पिछड़े वर्ग के बमुश्किल दस प्रतिशत बच्चे बारहवीं तक पढ़ाई कर पाते हैं, आदिवासियों एवं अल्पसंख्यकों की संख्या इससे भी कम है. यदि उच्च शिक्षा में विदेशी घुसपैठ होती है, तो यह इतनी महंगी हो जाएगी कि इसका खर्च उठा पाना समाज के पिछड़े, ग़रीब एवं वंचित वर्ग के लिए और अधिक मुश्किल हो जाएगा. ज़ाहिर है, गैट्स प्रावधानों के मुताबिक, जब देश में सरकारी उच्च शिक्षण संस्थाओं के सामने भी स्ववित्त पोषित होने की मजबूरी होगी, तो फीस बढ़ेगी. अभी तो सरकारी अनुदान या कहें कि सब्सिडी की वजह से आम आदमी के बच्चे दिल्ली विश्वविद्यालय या जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ने की हिम्मत जुटा लेते हैं, लेकिन शिक्षा के पूर्ण व्यवसायीकरण और निजीकरण की स्थिति में उच्च शिक्षा उनकी हैसियत से बाहर की चीज हो जाएगी. 

कैसे-कैसे प्रावधान

विश्व बैंक ने हाल में वैश्विक बाज़ार के लिए कई नियामकों एवं संस्थानों की जगह स्वतंत्र नियामक प्राधिकरण (आईआरए) और सिंगल विंडो क्लियरेंस का विचार प्रस्तावित किया है. उदाहरण के लिए, भारत में उच्च शिक्षा से जुड़े संस्थानों एवं नियामक प्राधिकरणों में यूजीसी, एआईसीटीई, एनसीटीई, बार काउंसिल ऑफ इंडिया और मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया आदि शामिल हैं. मतलब यह कि इतने सारे संस्थान होने की वजह से वैश्विक बाज़ार को अपना धंधा चलाने में मुश्किलें पेश आएंगी, इसलिए इन्हें खत्म करके एक अकेली संस्था बना दी जाए.

इन्हें हटाने का दूसरा अर्थ यह भी है कि सरकारी संस्थानों से मुक़ाबला करने में विदेशी संस्थानों को आसानी होगी. सरकार एवं विभिन्न कमेटियों की तऱफ से इस बारे में दुष्प्रचार भी शुरू हो चुका है. इसके अलावा यशपाल कमेटी ने कहा है कि इसकी जगह एक ही संस्था नेशनल काउंसिल ऑफ हायर एजुकेशन रिसर्चेज बनाई जाए. नेशनल नॉलेज कमीशन ने भी इसी तरह की एक संस्था बनाने का सुझाव दिया है. 2014 के अपने चुनावी घोषणा-पत्र में भारतीय जनता पार्टी ने भी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता बेहतर बनाने के लिए कई संस्थानों के बजाय एक उच्च अधिकार प्राप्त केंद्रीय संस्थान बनाने की बात कही थी.

अनिल सद्गोपाल कहते हैं कि यह सब करना ़खतरनाक होगा और इससे उच्च शिक्षा की संप्रभुता के लिए खतरा पैदा हो जाएगा. ऐसी स्थिति में हमारी सरकार को उच्च शिक्षा के लिए कोई नई योजना लाने से पहले डब्ल्यूटीओ ट्रेड रेगुलेशन काउंसिल (व्यापार नियमन परिषद) के पास जाना होगा. एक व्यापार नीति समीक्षा तंत्र हर साल सदस्य देशों की नीतियों की समीक्षा करेगा और सुझाव देगा. ज़ाहिर है, इस सबका अर्थ सीधे-सीधे अपने देश की उच्च शिक्षा व्यवस्था को डब्ल्यूटीओ के हाथों गिरवी रखने जैसा होगा. 

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