साल 2011 से अब तक बहुत कुछ बदल चुका है. यमुना का प्रदूषण स्तर काफी ब़ढ चुका है. देश में नई सरकार आ चुकी है. विपक्ष मृतप्राय हो चुका है. कुछ नए राजनीतिक दल मैदान में ताल ठोंक रहे हैं. कुछ नए वादे किए जा रहे हैं. कुछ पुराने वादे ता़ेडेे जा रहे हैं. देश नए रास्ते पर जाने का प्रयास कर रहा है तो कहीं से चिंगारी भ़डकने की आवाज़ भी आ रही है. इन सब के बीच कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने गांव में बैठ कर एक बार फिर कुछ सवाल बुन रहे हैं. ये सवाल इनकी ज़िंदगी से ज़ुडे हुए हैं. इनकी रा़ेजी-रोटी से ज़ुडे हुए हैं. तो सबसे ब़डा सवाल ये कि क्या सवालों का कोई जवाब मिलेगा? या फिर इतिहास ख़ुद को इतनी जल्दी दोहराएगा? 2011 में भी लोगों ने तत्कालीन सरकार से कुछ सवाल पूछे थे. जवाब नहीं मिला. फिर जो हुआ, वह इतिहास के पन्नों में दर्ज है. लेकिन इतिहास दोहराने का अर्थ यह भी नहीं है कि वह उसी रूप में फिर से सामने आए. उसका नतीजा वैसा ही हो जैसा पहले था. लेकिन सवाल यह भी है कि मौजूदा राजनीतिक माहौल में, जहां विपक्ष हताश, निराश और मृतप्राय है, आख़िर कोई तो हो जो सवाल उठा सके.
30 जनवरी को गांधीजी को याद करते हुए अन्ना हजारे ने सबसे पहली बात यह कही कि पिछले कुछ महीनों से मैं पीठ के दर्द की वजह से लोगों में नियमित रूप से नहीं जा सका. अब मेरा स्वास्थ्य बिल्कुल ठीक है. जनसेवा के लिए मैं फिर पहले जैसा काम करूंगा. यानी, अन्ना अब फिर से कोई शंखनाद करने को तैयार दिख रहे हैं. अन्ना हजारे मान रहे हैं कि नई सरकार ने अच्छे दिन लाने के वायदे तो ख़ूब किए लेकिन चंद पूंजीपतियों को छा़ेड कर किसी भी वर्ग को अच्छे दिन दिखाई नहीं दे रहे हैं. अन्ना को इस बात से तकलीफ है कि एक तरफ जहां सांप्रदायिकता को ब़ढावा देने वाले वक्तव्य आ रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ कामगार क़ानून में बदलाव कर मेहनत करने वालों के बुरे दिन लाए जा रहे हैं. इन दिनों अन्ना से मिलकर देश के किसान संगठन भूमि अधिग्रहण क़ानून में संशोधन वाले अध्यादेश को लेकर बात कर रहे हैं. किसान इससे चिंतित हैं और इस क़ानून के विरोध में आंदोलन करना चाहते हैं. इस सिलसिले में वे अन्ना हजारे से नेतृत्व करने को कह रहे हैं. अन्ना हजारे ने इस पर कहा है कि यह ऑर्डीनेंस लोकतांत्रिक दृष्टि से कतई ठीक नहीं है और इससे किसानों का दमन होगा. अन्ना हजारे सरकार को चेतावनी देते हुए कहते हैं कि सरकार को वक्त रहते ये बातें समझ लेनी चाहिए. वे देश के किसानों को आश्वस्त करते हैं कि वे लोकपाल के साथ-साथ इस प्रश्न पर भी आंदोलन करेंगे, सभी किसान संगठनों के साथ मिलकर आंदोलन करेंगे और किसानों के हक़ के साथ किसी को खिलवा़ड नहीं करने देंगे. अन्ना हजारे कहते हैं कि किसानों के लिए आंदोलन जरूर करूंगा, क्योंकि मै भी एक किसान का बेटा हूं. पिछले कुछ दिनों में अन्ना हजारे के बयानों से इस बात के संकेत मिलते हैं कि अन्ना हजारे अब चुपचाप बैठ कर सब कुछ देखने के मूड में नहीं हैं. अन्ना ने अपनी नई टीम के गठन की बात की है. अब इस नई टीम में कौन-कौन लोग शामिल होते हैं, यह देखना भी दिलचस्प होगा. अन्ना ने देशवासियों को फिर एक बार आंदोलन के लिए तैयार रहने की अपील की है.
अन्ना हजारे ने अपने ब्लॉग में एक लेख के जरिए मोदी सरकार पर भी निशाना साधा है. मोदी सरकार द्वारा लागू किए गए भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों को अन्ना हजारे ने किसानों के खिलाफ बताते हुए मोदी सरकार को किसान विरोधी करार दिया है. अन्ना ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि इस क़ानून का मक़सद कृषि योग्य भूमि को उद्योगपतियों के हवाले करना है. अन्ना ने सवाल उठाया कि भूमि अधिग्रहण क़ानून से किसका भला होने वाला है? उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार ने ग्राम सभा के अधिकारों को कम करके लोकतंत्र का गला घोंटने का काम किया है.
अन्ना हजारे ने अपने ब्लॉग में एक लेख के जरिए मोदी सरकार पर भी निशाना साधा है. मोदी सरकार द्वारा लागू किए गए भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों को अन्ना हजारे ने किसानों के खिलाफ बताते हुए मोदी सरकार को किसान विरोधी करार दिया है. अन्ना ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि इस क़ानून का मक़सद कृषि योग्य भूमि को उद्योगपतियों के हवाले करना है.
अन्ना ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि आज़ादी के 68 साल बाद भी किसान आत्महत्या कर रहे हैं, यह दुर्भाग्यपूर्ण है. नए भूमि अधिग्रहण क़ानून से किसानों की आत्महत्याएं ब़ढने की आशंका है. विकास के नाम पर मोदी सरकार किसानों के साथ धा़ेखा कर रही है. उन्होंने लिखा है कि भूमि अधिग्रहण क़ानून में से किसानों की रज़ामंदी की शर्त हटाना गलत है. सरकार लोकहित नज़रअंदाज़ कर मनमर्ज़ी से फैसले ले रही है. पुराने क़ानून को सही बताते हुए अन्ना ने ब्लॉग में लिखा कि इसमें यह प्रावधान था कि अधिग्रहित भूमि पर अगर पांच साल में विकास कार्य नहीं हुआ तो वह ज़मीन किसानों को वापस मिल जाती थी, पर सरकार ने यह शर्त हटाकर किसान से ज़मीन छीनकर उद्योगपतियों को ज़मीन का स्थाई मालिक बना दिया है. मोदी सरकार ने राष्ट्रहित के नाम पर अपने चहेते लोगों के हित साधने का रास्ता साफ किया है. उन्होंने सवाल उठाया कि सरकार के इस अध्यादेश में और अंग्रेजों के दमनकारी शासन में क्या फर्क है?
इसके अलावा, अन्ना ने लोकपाल के मुद्दे पर भी केंद्र सरकार को खरी-खोटी सुनाई है. उन्होंने कहा है कि देश में दिन प्रति-दिन भ्रष्टाचार ब़ढता जा रहा था, सामान्य लोगों का जीना मुश्किल हो गया था. इस लिए देश की जनता ने लोकपाल, लोकायुक्त के लिए आंदोलन किया. ग़ौरतलब है कि लोकपाल क़ानून को 1 जनवरी 2013 को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल चुकी है. क़ानून के प्रावधान के मुताबिक एक वर्ष के अंदर लोकपाल की नियुक्ति होना अनिवार्य है. लेकिन, अब तक ऐसा नहीं हो सका है. अब तक न तो केंद्र में लोकपाल का गठन हुआ है और न ही राज्यों में इस क़ानून के आधार पर लोकायुक्त का गठन हो सका है. अन्ना हजारे कहते हैं कि आज जो सत्ता में है, तब ब़डे जोर शोर के साथ लोकपाल का समर्थन करते थे. तत्कालीन राज्यसभा में नेता विपक्ष रहे अरुण जेटली ने पत्र लिख कर मुझे समर्थन दिया था. लेकिन मुझे आश्चर्य है कि जैसे ही प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने कमान संभाली, सरकार ने लोकपाल के प्रति अपने रवैये में ब़डा यू टर्न ले लिया और सरकार के कामकाज संभाले हुए आठ महीने बीतने के बाद भी लोकपाल का गठन नहीं हुआ. अन्ना सरकार से सवाल करते हैं कि सरकार को खुलकर लोगों के सामने आना चाहिये और बताना चाहिये की लोकपाल से वह इतना डरती क्यों है और अगर डरती नहीं है तो फिर क्या कारण है कि लोकपाल गठित नहीं हो रहा है? लोकपाल के गठन को लेकर अन्ना हजारे ने प्रधानमंत्री को अब तक तीन पत्र भी लिखे हैं. पहला पत्र 27 अगस्त 2014 , दूसरा पत्र 18 अक्टूबर 2014 और तीसरा पत्र 1 जनवरी 2015 को लिखा गया है. लेकिन अभी तक प्रधानमंत्री या इनके कार्यालय की तरफ से कोई जवाब नहीं आया है, सिर्फ पत्र प्राप्त होने की जानकारी दी गई.
लोकपाल और भूमि अधिग्रहण के अलावा अन्ना हजारे ने केंद्र सरकार पर काला धन के मामले में भी तल्ख़ टिप्पणी की है. अन्ना हजारे ने ऐसे काले धन को देश में गैरकानूनी ढंग से इकट्ठा किया हुआ बताया है. अन्ना हजारे ने सरकार को यह भी याद दिलाया है कि लोकसभा चुनाव के पूर्व आपने अपने प्रचार द्वारा देश को आश्वस्त किया था कि आपकी सरकार सत्ता में आने के बाद 100 दिनों मे काला धन वापस लाने के लिए प्रतिबद्ध होगी. सरकार बनने के बाद एक एसआईटी के गठन की घोषणा भी की थी जिसके कारण लोगों की उम्मीद ब़ढ रही थी. अन्ना हजारे, केंद्र सरकार पर इस बात के लिए आरोप लगाते हैं कि सौ दिनों में काला धन वापस लाने की घोषणा करते समय इसकी राह में आने वाली कठिनाईयों के बारे में सोचा जाना चाहिए था.
लोकपाल और भूमि अधिग्रहण के अलावा अन्ना हजारे ने केंद्र सरकार पर काला धन के मामले में भी तल्ख़ टिप्पणी की है. अन्ना हजारे ने ऐसे काले धन को देश में गैरकानूनी ढंग से इकट्ठा किया हुआ बताया है. अन्ना हजारे ने सरकार को यह भी याद दिलाया है कि लोकसभा चुनाव के पूर्व आपने अपने प्रचार द्वारा देश को आश्वस्त किया था कि आपकी सरकार सत्ता में आने के बाद 100 दिनों मे काला धन वापस लाने के लिए प्रतिबद्ध होगी. सरकार बनने के बाद एक एसआईटी के गठन की घोषणा भी की थी जिसके कारण लोगों की उम्मीद ब़ढ रही थी. अन्ना हजारे, केंद्र सरकार पर इस बात के लिए आरोप लगाते हैं कि सौ दिनों में काला धन वापस लाने की घोषणा करते समय इसकी राह में आने वाली कठिनाईयों के बारे में सोचा जाना चाहिए था. अन्ना ने यह भी कहा है कि कहां तो सौ दिन के भीतर लोगों के खाते में 15 लाख रुपये आने वाले थे और आए एक भी पैसे नहीं. अन्ना इन वादों पर सवाल उठाते हैं कि क्या वे वादे महज़ एक चुनावी घोषणा भर थे? अन्ना इसे कथनी और करनी का अंतर बताते हैं. अन्ना हजारे ने प्रधानमंत्री को लिखे अपने पत्र में यह भी कहा है कि मैंने विगत 35 सालों में कई आंदोलन किए, लेकिन किसी व्यक्तिया पक्ष अथवा पार्टी के विरोध में नहीं, केवल समाज और देश की भलाई के लिए. काला धन वापस लाना देश का अहम मुद्दा है और जरूरत होने पर मै इस मुद्दे पर फिर आंदोलन करने से पीछे नहीं हटूंगा. बहरहाल, अन्ना की इस चेतावनी को सरकार कितनी गंभीरता से लेती है, अन्ना की नई टीम कैसी होती है, क्या अन्ना सचमुच आंदोलन करेंगे, क्या देश के किसान, आम आदमी और किसान संगठन अन्ना के समर्थन में आएंगे, ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिसका जवाब पाने के लिए था़ेडा और इंतजार करना होगा.
इस बार कहां तक आएंगे पीवी राजगोपाल…
नए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लेकर एकता परिषद के पी.वी. राजगोपाल ने एक बार फिर एक और आंदोलन यानी अपने स्टाइल में पदयात्रा की घोषणा कर दी है. राजगोपाल ने कहा है कि वे हज़ारों सत्याग्रहियों के साथ भू-अधिग्रहण अध्यादेश के ख़िलाफ 15 मार्च 2015 से पदयात्रा करते हुए आगरा से दिल्ली के लिए कूच करेंगे. राजगोपाल के मुताबिक कॉरपारेट घरानों के हित के लिए केंद्र सरकार जिस तरह जल्दबाज़ी में जनविरोधी अध्यादेश ला रही है, ऐसे में संघर्ष को तेज़ करने की ज्यादा जरूरत हो गयी है. उन्होंने एक बार फिर से आगरा से दिल्ली तक पदयात्रा की तैयारी शुरू कर दी है. अब केंद्र सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण पुनर्वास और पुर्नस्थापन में उचित क्षतिपूर्ति के अधिकार और पारदर्शिता क़ानून 2013 में लाए गए संशोधनों का एकता परिषद विरोध कर रही है. एकता परिषद के मुताबिक यह अध्यादेश अन्यायपूर्ण व किसान विरोधी है. 2012 में हुए भूमि सुधार समझौते को लागू कराने एवं संशोधन बिल 2014 को रद्द करने की मांग की गई है. मांग पूरी नहीं होने पर हज़ारों की संख्या में पुनः आदिवासी भूमिहीन दिल्ली के लिए पदयात्रा शुरू करने वाले हैं. एकता परिषद के मुताबिक भारतीय संविधान में अनु. 39बी में प्राकृतिक संपदाओं पर नागरिकों के बुनियादी अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए जो प्रावधान हैं, यह अध्यादेश इन प्रावधानों को ख़ारिज करता है. कोई भी निर्वाचित सरकार न्यायोचित ढंग से ऐसा कृत्य नहीं कर सकती है, ऐसा अध्यादेश केवल विशेष परिस्थिति में या आपातकालीन स्थिति में ही जारी होता है. सरकार ने न तो संसद में और न जनता के सामने ऐसा कोई कारण दर्शाया है, तो फिर ऐसे अध्यादेश की जरूरत क्यों प़डी? यह सच्चाई देश की जनता के सामने लाना जरूरी है. लेकिन सबसे ब़डा सवाल है कि इस पदयात्रा का नतीजा क्या निकलेगा? इससे पहले भी पीवी राजगोपाल कई यात्राएं कर चुके हैं. पीवी राजगोपाल वर्ष-2007 में भी 25 हजार आदिवासियों और किसानों को लेकर ग्वालियर से दिल्ली तक पैदल आए थे. लेकिन दिल्ली से पहले ही हरियाणा के पलवल/फरीदाबाद में तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह वहां पहुंच गए. तब रघुवंश प्रसाद सिंह ने एक सुचारू भूमि वितरण प्रणाली विकसित करने व लोगों को जमीनों का अधिकार देने की मांग को मंजूर किया था. जनसत्याग्रह आंदोलन 2012 के वक्त भी उनकी यह यात्रा बीच में ही रुक गई थी. केंद्र सरकार ने आगरा में रोक कर वार्ता की थी. तब सरकार के प्रतिनिधि तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश तथा जनसत्याग्रह 2012 के लीडर पीवी राजगोपाल के बीच देश में भूमि सुधार को लेकर 10 सूत्रीय समझौता हुआ था. इस समझौते के तहत जो काम होने थे वे नहीं हुए.
भाकियू भी करेगा आंदोलन
भारतीय जनता पार्टी सरकार की किसान विरोधी नीतियों से देश के किसान संगठन नाराज़ हैं और मार्च के महीने में जंतर-मंतर, नई दिल्ली में किसान महापंचायत करने जा रहे हैं. किसान आंदोलन की समन्वय समिति से सम्बद्ध देश के किसान संगठनों की दो दिन की बैठक पंजाब भवन नई दिल्ली में श्री अजमेर सिंह लाखोवाल की अध्यक्षता में हुई. इसमें किसानों के मुद्दों पर चर्चा की गई. बैठक में भाकियू के पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के किसान प्रतिनिधियों के साथ-साथ तमिलनाडु फार्मर एसोशिएशन, कर्नाटक राज्य रैयत संघ के प्रतिनिधियों ने भी हिस्सा लिया और 18 मार्च 2015 को होने वाली किसान पंचायत में लाखों किसानों की उपस्थिति के बारे में विस्तृत चर्चा की गई. 9 सूत्रीय एजेंडा के तहत सबसे पहले भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की बात है. भूमि अधिग्रहण बिल 2013 में किसानों को बदलाव मंजूर नहीं है. इसके अलावा, किसानोें को फसलों का उचित एवं लाभकारी मूल्य दिए जाने की बात कही जा रही है. किसानों को उनकी उत्पादन लागत में 50 प्रतिशत जो़डकर स्वामीनाथन रिपोर्ट के आधार पर फसलों का उचित एवं लाभकारी मूल्य देने की मांग की गई है. भारतीय किसान यूनियन शांता कुमार कमेटी की सिफारिशों को भी नामंजूर कर रहा है. देश के किसान संगठन मानते हैं कि भारतीय खाद्य निगम को लेकर गठित शांताकुमार हाईलेवल कमेटी रिपोर्ट पूर्णत: किसान विरोधी व खाद्य सुरक्षा विरोधी है. शांता कुमार कमेटी की सभी सिफारिशों को नामंजूर करने की मांग भी की जा रही है. यूनियन किसानों का कर्जा पूर्णत: माफ किए जाने की मांग भी कर रहा है. देश में किसानों की आत्महत्याओं का ग्राफ बढ़ता जा रहा है. प्राकृतिक आपदाओं पर केंद्रीय नीति बनाने की मांग भारतीय किसान यूनियन कर रहा है. देश के किसानों की मांग है कि दूसरे वर्ग की तरह किसान परिवार की भी न्यूनतम आमदनी तय की जाए. इसके लिए एक किसान आय आयोग का गठन किया जाए. इसके द्वारा निश्चित किया जाए कि एक किसान परिवार की आमदनी चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी से कम न हो. किसान यूनियन का कहना है कि भारतीय जनता पार्टी द्वारा घोषणा पत्र में वायदा किया गया था कि हम जैव परिवर्तित फसलों के प्रदर्शन, व्यापारीकरण और जैव परिवर्तित बीज, फसल और पौधों पर पूर्णत: प्रतिबंध लगाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं किया गया. हमारी मांग है कि इस मुद्दे पर सरकार अपने किये गये वायदे को पूरा करें. इस 9 सूत्रीय एजेंडे के तहत गन्ना किसानों का भुगतान करने की मांग भी की गई है. देश के सभी राज्यों में पिछले दो वर्षों से गन्ने के मूल्य में कोई वृद्धि नहीं की गई है और न ही गन्ना किसानों को उनकी फसलों का भुगतान किया जा रहा है. भारतीय किसान यूनियन का कहना है कि सरकार गन्ना किसानों को अविलंब उनका भुगतान करे. यूनियन के मुताबिक मुक्त व्यापार समझौतों में कृषि के मुद्दों पर कोई भी समझौता-वार्ता न की जाए. भारतीय किसान यूनियन का कहना है कि देश का किसान पूर्णत: भारतीय जनता पार्टी सरकार की किसान नीतियों से सरोकार नहीं रखता है. पिछले 240 दिनों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार द्वारा किसानों के विरोध में कई फैसले किए गए हैं. भारतीय किसान आंदोलन की समन्वय समिति ने देश के सभी संगठनों के साथ मिलकर 18 मार्च 2015 को दिल्ली के जंतर मंतर पर एक ब़डी किसान महापंचायत करने का फैसला लिया है. इस पंचायत में देश की सरकार पर किसानों के हक़ में फैसले लेने के लिए दबाव बनाया जाएगा.
क्या है भूमि अधिग्रहण अध्यादेश
नए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के तहत अब ज़मीन अधिग्रहण के लिए 80 फ़ीसद किसानों की रज़ामंदी आवश्यक नहीं होगी. इसका अर्थ है कि सरकार जहां की भी ज़मीन, जितनी भी ज़मीन चाहेगी, उसका अधिग्रहण कर पाने में सक्षम हो जाएगी. ज़ाहिर है, विकास के नाम पर टाउनशिप, अस्पताल, होटल, इंडस्ट्रियल प्रोजेक्ट्स बनाने का काम निजी कंपनियां करेंगी. उन्हें इस अधिग्रहीत ज़मीन से फ़ायदा होगा. मुनाफ़ा उक्त कंपनियां कमाएंगी. सवाल है कि क्यों नहीं ज़मीन की खरीद-बिक्री सीधे किसानों के ज़रिये कराने की कोशिश की जा रही है. दूसरी बात यह कि ऐसे संशोधन के बाद विकेंद्रीकृत सत्ता यानी ग्रामसभा जैसी संस्था की महत्ता क्या रह जाएगी? लोकतंत्र में जन-सहमति का क्या मतलब रहेगा? संसद की स्थाई समिति ने भी भूमि अधिग्रहण संशोधन बिल (यूपीए-2 के वक्त) में कहा था कि किसी भी निजी अथवा पीपीपी प्रोजेक्ट, जिसे सार्वजनिक उद्देश्य के प्रोजेक्ट के रूप में चिन्हित न किया गया हो, के लिए ज़बरदस्ती ज़मीन का अधिग्रहण न किया जाए. लेकिन, तब ग्रामीण विकास मंत्रालय ने स्थाई समिति के इस सुझाव को सिरे से नकार दिया था. तब मंत्रालय ने कहा था कि किसी भी निजी प्रोजेक्ट से प्रभावित होने वाले 80 फ़ीसद लोगों की सहमति मिलने पर ज़मीन अधिग्रहीत कर ली जाएगी. अब मौजूदा सरकार ने पीपीपी परियोजनाओं के लिए इस 80 फ़ीसद सहमति वाले प्रावधान को भी ख़त्म कर दिया है. इस संशोधन के ज़रिये कुछ ख़ास परियोजनाओं के लिए ज़मीन अधिग्रहण से होने वाले सामाजिक प्रभाव के आंकलन वाले प्रावधान को हटा दिया गया है. जबकि ज़रूरी यह है कि किसी भी काम के लिए होने वाले ज़मीन अधिग्रहण से भविष्य में पड़ने वाले सामाजिक और पारिस्थितिक प्रभाव का आंकलन किया जाना चाहिए. अधिग्रहीत की गई ज़मीन की वापसी को लेकर भी कई सवाल हैं. अनुभव यह बताता है कि ऐसी बहुत-सी अधिग्रहीत ज़मीनें हैं, जिनका इस्तेमाल 25 सालों तक नहीं हुआ और फिर भी वे इनके पुराने मालिकों को नहीं लौटाई गईं.