आंखें जवाब देती हैं छोटे से मोबाइल के की बोर्ड पर। लेकिन कई लोग हैं जो कहते हैं लिखिए। आपकी जैसी बेबाकी इन दिनों दिखती नहीं। जनसत्ता में सुधीश भाई लिखते थे ‘अजदक’ के नाम से। कुछ उसकी याद दिलाते हैं। कई शहरों में हमारे दोस्त हैं जो दबाव बनाए रखते हैं। पर सबसे ज्यादा खुशी तो तब हुई जब ‘लाउड इंडिया’ की फौजिया आर्शी ने तारीफ की। और उन्होंने ही इसे आडियो के रूप में रिकॉर्ड करके मंगवाना शुरू किया। पर मेरे लिए उसमें नियमित होना चल नहीं पाया। मुझे भी लगता है बेबाकी से अपनी बात कहना अपने वजूद के वजन को बनाए रखना है। बिना यह फिक्र किये कि किसको बुरा लगता है या कौन तारीफ करता है। आरफा खानम शेरवानी की मैंने कई बार आलोचना की। लेकिन हर बार उन्होंने कहा कि आपकी बातों से मैं सीखती हूं। लेखिका चित्रा मुद्गल तो यहां तक कहती हैं कि जब तक आपको पढ़ नहीं लेती मजा नहीं आता। मुंबई में डिग्री कालेज की प्रोफेसर हैं उनका कहना है कि भाषा सिंह के वीडियो मैं तभी देखती हूं जब आप लिखते हैं। ऐसे में सवाल यह हो जाता है कि अपनी आंखों को देखें या अपने शुभचिन्तकों की सुनें।

इसलिए तय किया कि हफ्ते में चाहे एक ही बार हो, पर लिखा जाए। कई बार अच्छा बन पड़ता है। कई बार चलताऊ।
इन दिनों सोशल मीडिया पर बाढ़ आयी हुई है। यूट्यूब के साथ फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और ऐसे तमाम प्लेटफार्म को जोड़ लीजिए। यूट्यूब तो समझिए ऐसा चालाक प्लेटफार्म है कि जिसे आपने सब्सक्राइब नहीं भी किया है, आपकी पसंद को देखते हुए डालता चलेगा। एक चालाकी ‘फीड’ की गयी है उसकी ‘ प्रोग्रामिंग’ में । अब आज का राजनीतिक माहौल कुछ ऐसा है कि यदि आप मोदी या इस सरकार को नापसंद करते हैं तो ऐसे ऐसे वीडियोज की लड़ी लग जाएगी। उधर फेसबुक को आप देखते चलिए। ऐसे ऐसे वाहियात पोस्ट मिलेंगे कि आपका दिन भर का जायका खराब हो जाएगा। तो सवाल है कि इनमें सत्य क्या खोजें, कैसे खोजें। बस एक ही तरीका है कि जिन्हें आप जानते हैं या जिनसे आप परिचित हैं उन्हें ही देखें। पर उनमें भी इतना है कि दिन छोटा पड़ जाता है पर इनकी दौड़ खतम नहीं होती। हम तो हर बार उन्हीं पर लिखते हैं जो हमारे चिर परिचित हैं। और आज भी उन्हीं की बात होनी चाहिए।

सबसे पहले ‘सत्य हिंदी’ को लें। इसलिए कि वह यूट्यूब पर छाने की ललक में है। बेशक सत्य हिंदी के कई कार्यक्रम लाजवाब होते हैं। डिबेट्स को कुछ समय के लिए अलग कर दिया जाए तो जो एकल संवाद होते हैं। या पुस्तक पर चर्चा होती है। या शनिवार को सवाल जवाब होते हैं। या मुकेश कुमार के डेली शो जैसे कार्यक्रम होते हैं। ये कार्यक्रम ललचाते हैं। इस बार अपूर्वानंद और आदित्य मुखर्जी से आशुतोष का संवाद लाजवाब था। वीर सावरकर पर लिखी पुस्तक पर उसके लेखक से बातचीत बहुत गहरी तो नहीं पर अच्छी थी। इस प्रश्नोत्तरी में अपूर्वानंद भी शामिल होते तो अच्छा था। मगर यह विशुद्ध सत्य हिंदी का शो था। डिबेट्स के बारे में क्या बात करें। समझ नहीं आता कि हर रोज रात दस बजे की क्या मजबूरी या जिद है। पैनल में वही चेहरे। हमें कई लोगों ने कहा और स्वयं मैं भी जब खोलता हूं तो पैनल देख कर ही बंद कर देता हूं और कई बार तो टापिक ही उबाऊ, चलताऊ और स्तरहीन लगता है। इस भेड़चाल का एक उदाहरण इन दिनों में देखा कि ‘इंडिया टुडे’ ने मोदी और अन्य की लोकप्रियता पर एक सर्वे छाप दिया। ओ भाईसाहब फिर तो जैसे चांदी ही हो गयी। मोदी की लोकप्रियता 66% से 24% पर आ गयी। फिर क्या था। इतना ही बहुत हैं भेड़चाल के लिए। लेकिन इस पर सबसे कायदे की बातचीत मुकेश कुमार की थी जिसमें विशेषज्ञ मौजूद थे। CSDS के संजय कुमार, सी वोटर के यशवंत देशमुख और अभय दुबे। बाकी चाहे आरफा का हो या सत्य हिंदी का हो या अन्य किसी का। विरोध के लिए विरोध जैसा था।

अशोक वानखेड़े कहते हैं मोदी जी जब भी मुंह खोलते हैं झूठ बोलने के लिए ही। मैं भी उनसे पूछता हूं आप भी जब मुंह खोलते हैं पहले ही शब्द से विरोध के लिए ही। तो क्यों किसी की दिलचस्पी हो आपके चीख चीख कर बोले हुए सुनने के लिए। हां, फेसबुकिया जैसे श्रोता जरूर खुश होते होंगे।सबसे ज्यादा दुख होता है जब कोई विरोध के लिए विरोध करता है। इसमें कभी कभी आरफा, सत्य हिंदी के ‘सुनिए सच’ में मुकेश कुमार और अशोक वानखेड़े जैसे लोग हैं। इसीलिए आलोक जोशी और विजय त्रिवेदी को सुनने के लिए रुका जा सकता है। हम तो उस दिन का इंतजार करते हैं जब वायर पर और सत्य हिंदी पर देश के दिग्गज डिबेट में आयें। इस भेड़चाल से सबसे अधिक अलग संतोष भारतीय के शो होते हैं । उनके अलावा रवीश कुमार, पुण्य प्रसून के शो होते हैं। न्यूज़ क्लिक में भाषा सिंह के होते हैं, न्यूज़ लाण्ड्री के शो होते हैं।
संतोष भारतीय में शांत और शालीनता का समन्वय है। वे कम बोलते हैं, धीरे बोलते हैं और कभी भी हावी नहीं होते। कल रात को पैगासस पर उनकी बात सुनी और उनके प्रश्न। सबसे हैरान करने वाला प्रसंग तो यही है कि पहली बार जब जासूसी पर व्हाट्सएप ने चेताया था तब भारत से (शायद) अकेला नाम संतोष भारतीय का ही था। इसलिए बाद में जब जब यूट्यूब ने उन्हें ब्लॉक किया तो मुझे हैरानी नहीं हुई। परसों उनकी अखिलेंद्र प्रताप सिंह और उससे पहले अभय दुबे से बातचीत सुनने लायक है। अभय दुबे ने शुरुआत पंजाब में कांग्रेस पर करके आगे का पूरा आलेख ही लिख दिया। इसी तरह अखिलेंद्र जी के साथ की बातचीत थी।

इन दिनों संतोष जी की पुस्तक ‘वीपी सिंह, चंद्रशेखर, सोनिया गांधी और मैं’ के संदर्भ में पुस्तक की संपादक फौजिया आर्शी अलग अलग लोगों से चर्चा में मशगूल हैं। दरअसल पुस्तक रोमांचित करती है और पढ़ते जाने की एक धुन भी पैदा करती है। उनका एक प्रश्न हर किसी से रहता है कि आखिर इस पुस्तक में ऐसा क्या है जो भारत के प्रकाशक इसको छापने से हमेशा कतराते रहे। पुस्तक पढ़ कर कोई ऐसा भी अनुमान लगा सकता है कि लेखक क्या पता जासूस हो। वह तो फ्रैंचकट दाढ़ी में दिखता भी कुछ ऐसा ही है। कम से कम इस फूहड़ सरकार ने तो ऐसा सोच भी लिया होगा तो क्या पता। वीपी हो, चंद्रशेखर या सोनिया सबका भेद रखता है। तो इसके मोबाइल में पैगासस होना ही चाहिए।😂 वैसे भी यह सरकार एक से एक जमूरों और कार्टूनों की सरकार है। संतोष जी के ऐसे शो चलते रहने चाहिए।

वाजपेयी प्रभावित करते हैं। हमें लोगों से फीडबैक मिलता है। उर्मिलेश जी के शो पर कोई जवाब नहीं मिलता। सत्य हिंदी का वह एपीसोड भी काफी पसंद किया गया जिसमें अरविंद मोहन और विजय त्रिवेदी थे। विजय मनोरंजन भी करते हैं। और विवेक पूर्ण भाषा से अपने तर्क रखते हैं। पर उनका हर वाक्य के बाद ‘ठीक है’ बोलना अखरता है। उम्मीद है वे इस ओर ध्यान देंगे। आरफा और सिद्धार्थ वरदराजन ने प्रश्नोत्तरी का कार्यक्रम AMA शुरू किया है। AMA यानि ‘Ask me anything’। कार्यक्रम उत्साह नहीं जगाता जैसा सत्य हिंदी का शनिवारीय प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम। भाषा का रात को ‘Round up’ मिला। देखना है।

मोदी की घटती लोकप्रियता पर कार्यक्रम क्या सच में होने चाहिए थे। क्या अखबारों में यह न्यूज़ नहीं छपती। क्या इंडिया टुडे पर भरोसा किया जाना चाहिए। क्या फिर कोई नया सर्वे आये और उसमें लोकप्रियता बढ़ी हुई दिखाई जाए तो भी क्या ये कार्यक्रम होंगे। क्या जनता नहीं जान रही कि मोदी अलोकप्रिय हो रहे हैं। क्या यह इतना ही जरूरी था तो रवीश कुमार को इस पर अपना शो नहीं करना चाहिए था। मुझे तो लगता है कि गोदी मीडिया की तरह हमें भी फालतू के टापिक्स की अनावश्यक भूख हो गयी है। दुकान चलती रहनी चाहिए। किसी ने प्रश्न किया मुझसे कि वायर के पास आरफा खानम के अलावा है क्या और कौन? मैं भी चौंका बात तो लगभग ठीक ही लगती है। तो यह भेड़चाल है एक उधर की एक इधर की। सब कुछ अशांत ही अशांत है। प्रदूषण है। यह सरकार चली भी गयी तो इस प्रदूषण पर क्या फर्क पड़ेगा। सोचने को यही बचा है। सोचिए।

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