यह दिलचस्प है कि मुलायम सिंह यादव से नाराज होने वाले उनके सभी पूर्व सहयोगी एक जैसे आरोप लगाते हैं लेकिन दोस्ती होते ही उनके स्वर बदल जाते हैं. फिर कोई मुलायम के दल में आ जाता है, तो कोई दिल में रहकर राज्यसभा का सदस्य होने की कतार में लग जाता है. कोई भी दौर-ए-बेवफाई में दिए गए बयानों को याद नहीं करना चाहता. ऐसा लगता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. ठीक भी है, दुश्मनी को दोस्ती में बदलते समय पुरानी कड़वाहट को भुलाना पड़ता है लेकिन निजी और सार्वजनिक जीवन में फर्क भी होता है. सार्वजनिक जीवन में समाज के प्रति जवाबदेही की अपेक्षा होती है क्योंकि यश, वैभव, पद प्रतिष्ठा आदि सभी कुछ समाज के द्वारा ही मिलता है. ऐसे में समाज को कुछ बातों का जवाब भी मांगना चाहिए.
दुश्मनी के बाद दोस्ती पर किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए. राजनीति में तो इसे प्रायः अस्थायी तत्व माना जाता है. मौके के अनुसार फैसले, फासले, रंग और पाले बदलते रहते हैं. न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर तालमेल या गठबंधन भी होते हैं. यह बेहतर तरीका होता है. आमजन को पता होता है कि परस्पर विरोधी पार्टियां किन मुद्दों पर साथ चलने को सहमत हुई है. इस दशा में न्यूनतम साझा कार्यक्रम ही अहम होता है. तब पहले एक दूसरे के लिए संबंधित पार्टियों के द्वारा क्या कहा गया, उसका महत्व नहीं रह जाता.
यदि न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर अमल मुनासिब न हो तो बिना किसी कठिनाई के संबंधित पार्टियां अलग राह पर लौट सकती हैं. पुनः एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोल सकती हैं लेकिन निजी निर्णय अथवा बयान इस दायरे में नहीं आते. यह सही है कुछ बातें भूलनी पड़ती हैं लेकिन कतिपय बयानों पर स्पष्टीकरण भी मिलना चाहिए. यह दो नेताओं के बीच का मसला नहीं रह जाता. वरन् इसमें समाज और शासन के विषय भी समाहित होते हैं. संबंधित राजनेता आमजन के प्रति अपनी इस जवाबदेही से बच नहीं सकते.
इस बात को नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि आजम खान, बेनी प्रसाद वर्मा और अमर सिंह ने नाराजगी के दौर में मुलायम सिंह यादव पर लगभग एक जैसे आरोप लगाए थे. फर्क इतना है कि तीखे आरोप लगाने के बाद भी आजम खान ने न कोई नई पार्टी बनाई थी, न किसी अन्य दल में वह शामिल हुए थे. नई पार्टी बनाने का वह जोखिम नहीं उठा सकते थे. कांग्रेस में न जाने का कारण रामपुर और वहां के नवाब परिवार से जुड़ा मसला था. बसपा के बारे में आजम पहले ही इतना बोल चुके थे कि वहां गुंजाइश कम थी.
इसके अलावा बसपा में जाते तो उनके बोलने पर लगाम लग जाती. आजम के लिए यह बहुत परेशान करने वाली सजा होती. इसे बर्दाश्त करना उनके लिए मुश्किल था. फिर भी उन्होंने मुलायम पर हमले में कोई रियायत नहीं की थी. उन्होंने मुलायम पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा से साठगांठ करने तक का आरोप लगाया था. अपने इस आरोप को आजम ने प्रतीकात्मक ढंग से पेश किया था. कहा था कि मुलायम धोती के नीचे हाफपैंट पहनते हैं. अर्थात संघ से उनका लगाव है, लेकिन वह इसे छिपा कर रखते हैं. आरोप गंभीर था. इसमें बाबरी ढांचे का मसला भी समाहित था.
आरोप लगाने वाला मुलायम सिंह यादव का लंबे समय तक सहयोगी रह चुका था. ऐसे में आरोप को हल्के में नहीं लिया जा सकता था. एक साथ कार्य करने वालों को अपने सहयोगी की पर्याप्त जानकारी होती है. मुलायम और आजम की दोस्ती के बाद भी आमजन को आरोप की वास्तविकता जानने का अधिकार था. दो ही विकल्प थे. एक यह कि आजम स्वीकार करते कि आरोप बेबुनियाद थे. दूसरा यह कि वह आरोपों के पक्ष में प्रमाण देते. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. आरोप आज भी रिकार्ड में है और दोस्ती चल रही है.
बेनी प्रसाद वर्मा ने भी मुलायम पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से साठगांठ का आरोप लगाया था. वह कई कदम आगे निकल गए थे और मुलायम पर आतंकवादी होने तक का आरोप लगाया था. कहा था कि मुलायम सिंह यादव देश के सबसे खतरनाक राजनीतिक जीव हैं, पता नहीं कब किसका भोजन कर जाएं. वह मुसोलिनी अर्थात तानाशाह हैं. लोकसभा चुनाव के कुछ महीने पहले बेनी ने कहा था कि इंडियन मुजाहिदीन को पैदा करने वाले मुलायम सिंह यादव हैं. मुलायम ने ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को बढ़ावा दिया. इस बयान के कुछ समय बाद बेनी ने कहा कि मुलायम और आडवाणी ने मिलीभगत करके बाहरी मस्जिद गिरवाई. मुलायम हमेशा साम्प्रदायिक ताकतों का साथ देते रहे हैं. वह आतंकवादियों की मदद करते हैं.
जाहिर है कि बेनी प्रसाद वर्मा ने मुलायम सिंह यादव पर गंभीर आरोप लगाए थे. इसमें आतंकवाद, साम्प्रदायिक, बाबरी ढांचा विध्वंस आदि बड़े मसले शामिल थे. दोस्ती से पहले बेनी यदि इतना कह देते कि उनके द्वारा लगाए गए आरोप बेबुनियाद थे तो गनीमत होती. लगता कि साफ मन से दोस्ती हो रही है लेकिन आजम की ही भांति बेनी ने मुलायम पर जड़े गए आरोपों पर कोई अफसोस व्यक्त नहीं किया, न कोई सफाई दी. क्या इसी को दोस्ती कहते हैं. गंभीर आरोप तो अपनी जगह पर हैं. सभी बातें रिकार्ड पर हैं.
बेनी और आजम की कठिनाई यह है कि वह मुलायम पर लगाए गए आरोप को झूठा बताएं तो उनकी विश्वसनीयता हमेशा के लिए समाप्त होगी. भविष्य में ये कोई बयान देंगे तो उस पर लोग आसानी से विश्वास नहीं करेंगे. यह माना जाएगा कि ये नेता अपने ही बयान से पलट जाएंगे. मतलब साफ है कि इन नेताओं ने दोस्ती नहीं केवल स्वार्थ को महत्व दिया. जब कांग्रेस में रहने पर स्वार्थ लगा तो वहां रहे. सोनिया और राहुल का गुणगान किया. केंद्र में मंत्री भी बने, लेकिन अब उन्हें केंद्र या प्रदेश में कांग्रेस का कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा है तो सपा में आ गए. अपनी और अपने पुत्र की चिंता ने उन्हें पाला बदलने को विवश कर दिया.
वहीं मुलायम सिंह यादव आज कह रहे हैं कि अब बेनी के साथ दिल्ली की लड़ाई लड़ेंगे, जबकि लोकसभा चुनाव के समय मुलायम ने कहा था कि बेनी प्रसाद वर्मा अपने बेटे की जमानत तक नहीं बचा सके, राहुल को प्रधानमंत्री क्या बनाएंगे. अब मुलायम को यह बताना चाहिए कि बेटे की जमानत बचाने में विफल नेता के साथ वह दिल्ली की लड़ाई कैसे लड़ेंगे. लेकिन बेनी की भांति मुलायम भी कोई सफाई नहीं दे सकते. सपा सरकार पर एक जाति विशेष को वरीयता देने के आरोप लगते रहे हैं. वह बेनी को प्रतीक रूप में पेश करना चाहते हैं लेकिन सत्ता में रहने वालों को चेहरा नहीं अपने कार्यों पर ही विश्वास करना चाहिए. चुनाव में इसी का आकलन होगा.