पूरी दुनिया में हमारी भारतीय सभ्यता और संस्कृति को बड़े ही सम्मान के साथ देखा जाता रहा है। इसमें कोई संदेह भी नहीं है कि हम सबके पास पारंपरिक रूप से एक वैभवशाली और समृद्ध विरासत है। जो हम सबके लिए एक गर्व की बात भी रही है। खुद को ‘विश्व गुरु’ कहलाने का आधार भी संभवतः यही परंपराएँ मानी जाती रही हैं। लेकिन, इस सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है।
एक तरफ जहां हमारी महान संस्कृति ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की बात करती है, जिसमें पूरे विश्व को एक परिवार के रूप में देखने की संकल्पना है तो वहीं दूसरी तरफ हम अपने देश में ही कई धर्मों और जातियों में बंटे अपना-अपना झंडा उठाये धर्म और मज़हब के नाम पर लड़ते-भिड़ते रहते हैं।
बहरहाल, इन सबके बीच भारतीय सभ्यता और संस्कृति को पल्लवित, पुष्पित और परिष्कृत करने में हमारे देश की महिलाओं की भी निर्णायक भूमिका रही है। रीति-रिवाजों, प्रथाओं और सामाजिक मान्यताओं को सँजो कर रखती इन महिलाओं ने भी इसमें अपने तरीके से इंद्रधनुषी रंग भरे हैं। पूजा पाठ से लेकर अलग-अलग अनुष्ठानों में जिस तरह से सक्रिय होकर महिलायें भागीदारी निभाती रही हैं इससे उन्हें इस दिशा में अग्रणीय भी माना जा सकता है। लेकिन, अगर सिक्के का दूसरा पक्ष देखें तो तमाम तरह की अंधविश्वासों और कुप्रथाओं को भी पालने-पोसने और आगे बढ़ाने में महिलायें पीछे नहीं हैं। जैसे कि आज भी भारतीय नारी सती सावित्री की तरह अपने पति को स्वामी और भगवान मानती हैं। ‘मेरा पति मेरा देवता है’ की सोच को साहित्य से लेकर सिनेमा तक ने खूब भुनाया भी है। ऐसे में जाहिर सी बात है कि अगर पति स्वामी है तो पत्नी की हैसियत एक दासी की तरह ही होगी। ऐसे में महिलाओं का अपना पूरा अस्तित्व पुरुष के सामने गौण कर लेने की यह अवधारणा किसी भी सभ्य समाज में एक अभिशाप की तरह है। पितृसत्ता की आग में जलती इन महिलाओं ने इसे अपनी सहमति देकर इस आंच में और भी ईंधन देने का काम किया है। दूसरी तरफ पुरुषों ने बड़ी ही चालाकी से उनके त्याग और बलिदान का महिमामंडन कर उन्हें यह अहसास करा दिया है कि एक स्त्री होने का मतलब ही है कि वो पुरुषों के साये में रहकर खुद को धन्य समझें और रीति रिवाजों की बेड़ियों में जकड़े होने के बावजूद भी मुसकुराती रहें।
परंपराओं के नाम पर महिलाओं के साथ जो हो रहा है इसकी बानगी समझने के लिए आपको छतीसगढ़ लिए चलती हूँ। छत्तीसगढ़ के धमतरी में दीपावली के बाद हर साल मड़ई मेले का आयोजन किया जाता है। बताया जाता है कि इस मेले का इतिहास 500 साल से भी पुराना है। जहां आदिवासी समुदाय के लोग स्थानीय देवी माँ अंगारमोती को खुश करने के लिए एक अजीबोगरीब प्रथा लंबे समय से चली आ रही है। इसे परण कहा जाता है। जिनमें महिलायें पेट के बल लेटती हैं और बैंगा जनजाति के लोग उनके ऊपर से होकर गुजरते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से महिलाओं को संतान की प्राप्ति होती है। इस साल भी इस घटना का वीडियो खूब वायरल हुआ जिसमें हम सबने देखा कि 200 से भी अधिक महिलायें नींबू, नारियल और अन्य पूजा के सामान लेकर खुले बालों में पेट के बल लेती हुई थीं और बैंगा जनजाति के लोग उनके ऊपर से चढ़कर गुजर रहे थे। जरा सोचिए कि परंपरा के नाम पर महिलाओं के साथ किस तरह का सलूक किया जा रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो महिलायें खुद आगे बढ़कर इस तरह की प्रथाओं को अपनी सहमति देकर बल दे रही हैं।
प्रथा के नाम पर इस तरह का चलन किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को हिला कर रख दे। जरा सोचिए कि क्या एक स्त्री का मकसद सिर्फ संतान प्राप्ति ही है। हम क्यों नहीं उसे एक शरीर से ज़्यादा भी देख पाते हैं? इस तरह की तमाम बातें हैं जो परंपराओं के नाम पर महिलाओं को छलती रही हैं। यह इस बात की तरफ भी इशारा करती है कि आज भी अपने देश में शिक्षा का किस कदर अभाव है। हमें यह समझना होगा कि समाज में, इन महिलाओं की अंधेरी ज़िंदगी में रौशनी किताबों के जरिए ही उतरेंगीं।
(डॉ. संतोष भारती, असिस्टेंट प्रोफेसर, अंग्रेज़ी विभाग, दिल्ली कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स एंड कॉमर्स, दिल्ली विश्वविद्यालय)