हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति हिंसा आम बात है। फिर चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक या फिर शाब्दिक। हमारे आस-पास स्त्रियों के प्रति घटने वाली शारीरिक घटनाओं के प्रति आक्रोश व विरोध आम जनता में सामान्यतः देखा जाता है किंतु हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति होने वाली मानसिक व शाब्दिक हिंसा पर बात नहीं होती है।
स्त्री हिंसा का यह स्वरूप स्त्री चेतना को संवेगात्मक स्तर तक प्रभावित करता है। कभी-कभी हिंसा का यह स्वरूप इतना बर्बर हो जाता है कि वह आत्मघाती बन जाता है। हमारे समाज की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि आम व्यक्ति से लेकर पढ़े-लिखे प्रबुद्ध वर्ग की भाषा में महिलाओं के प्रति अशोभनीय व आपत्तिजनक टिप्पणियां सामान्य हैं। भारतीय राजनीति में महिला हिंसा की बढ़ती घटनाओं को रोकने के लिए मजबूती से कार्य करने की अपेक्षा इन घटनाओं के लिए पीड़ित को ही दोषी बनाने की मानसिकता मौजूद है।
देश के हर हिस्से से लगातार आती महिला उत्पीड़न की ख़बरें सत्र कर देती हैं। उत्तरप्रदेश में हाथरस के बाद उन्नाव में जो कुछ भी हुआ यह इस समाज को शर्मसार करने के लिए काफी है। दलित महिलाओं का दर्द और भी बड़ा है। बेशक आज हम आधुनिकता और विकास के दावे करते रहे पर हमारी असली हकीकत आज भी रेंगते रहने के अलावा कुछ भी नहीं। महिलाओं के प्रति असंवेदनशीलता और स्त्री सुरक्षा पर उदासीनता इस देश का एक कड़वा सच है!
इसे विडंबना ही तो कहेंगे कि जिस नारी की कोख से पौरुष जन्म लेता है उसे ही अबला कहा जाता है। सदियों से दबाई जा रही आधी आबादी का सच यही है। लेकिन, हर दौर में वो हर ज़ख्मों को अपने आँचल में छिपाए आगे बढ़ती रही है! पुरुषों ने अपनी हिसाब से दुनिया बनायीं और हम स्त्रियों को क़ैद कर दिया घर-आँगन में। आखिर कब तक हम सहते? हमने खुद को निखारा, खुद को तैयार किया और समय के साथ-साथ हमने हर उस दरवाज़े पर दस्तक दी जहाँ कभी हम महिलाओं के लिए नो एंट्री का बोर्ड टंगा था!
हम औरतों के लिए करियर कभी एक ठोस अस्तित्व वाली चीज़ नहीं होती। हमेशा ये दुविधा होती है कि क्या मैं एक करियर अपनाऊं या घर में रहकर परिवार की देखभाल करूँ? पुरुषों के लिए ऐसा कोई सवाल नहीं उठता। उनके सामने कोई दो रास्ते नहीं होते! एक बेहतर दुनिया के लिए, बेहतर परिवार के लिए, अगली पीढ़ी की बेहतर परवरिश और भविष्य के लिए..कुल मिलाकर एक बेहतर जीवन के लिए ज़रुरी है कि औरत और पुरुष के अधिकारों में कोई फर्क नहीं समझा जाए और इस अधिकार में सबसे पहली शर्त है कि हमें जीवन को एक इंसान के रूप में जीने का अधिकार मिले। भले ही आप हमें देवी की तरह न पूजिये लेकिन कम से कम हमें एक इंसान का दर्ज़ा तो दीजिए! शारीरिक रूप से कमतर होने का अर्थ यह नहीं कि स्त्री को दबाकर रखा जाए। स्त्री पुरुष की दासी नहीं, साथी है! जिस तरह से पुरुषों को जो सुविधाएं और जो भरोसा मिलता है वही चीज़ आप एक स्त्री से छीनकर कोई कैसे अपेक्षा कर सकता है कि वो अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभा सकेंगी?
हम ये क्यों भूल जाते हैं कि जो माँ देश की सीमा की रक्षा के लिए जान की बाज़ी लगा देने वाला बेटा पैदा कर सकती है, अंतरिक्ष में मंगलयान भेजने वाला कोई वैज्ञानिक पैदा कर सकती है, खेल से लेकर कला और राजनीति के दिग्गजों को जन्म दे सकती है वो इस दुनिया का कौन सा ऐसा काम है जो नहीं कर सकती? कहीं न कहीं एक पुरुष की कामयाबी के नींव में उसकी माँ, पत्नी या बहन भी होती है। जब एक स्त्री इतना सक्षम है तो उसे आप कमजोर कैसे मान सकते हैं?
बदलते समय में महिलाओं ने अपने लिए रास्ता बनाना और उस पर चलना शुरू कर दिया है। वो हर क्षेत्र में अपना झंडा बुलंद कर रही है। जो दुनिया आज तक महिलाओं के लिए अछूती रहीं और जिनपर पुरुषों का ही एकाधिकार रहा वहाँ भी महिलाएं अपना कमाल दिखाती नज़र आने लगी हैं। ये बदलाव शुभ है! अगर हम एक ऐसा माहौल बना सकें जहाँ स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान अवसर हों तो कोई वजह नहीं कि स्त्रियां कामयाबी का परचम न लहरा सके!
कहते हैं कि प्रयास के पांव होते हैं। अगर प्रयास सच्चे मन से किया जाए तो सकारात्मक परिणाम भी मिलते हैं। हम औरतों ने अपने अदम्य उत्साह और साहस से कामयाबी की नयी इबारत लिखी। आज हम फाइटर प्लेन से लेकर मिसाइल तक चला रहे हैं! और यक़ीनन ये यात्रा अभी बहुत लंबी है।
एक स्त्री की ज़िन्दगी पुरुषों के मुकाबले तुलनात्मक रूप से अपमान, तिरस्कार, अवसान और संघर्ष की दास्ताँ है। बहुत कुछ ऐसा होता जो हमें कहीं गहराई तक तोड़ देता है। लेकिन, इन सबके बावजूद हम इन चौड़ी खाइयों और फिसलन भरे रास्तों पर मिलने वाले ठोकरों के बीच अपना ठौर तलाशते रहे हैं और तलाशते रहेंगे! इक्कीसवीं सदी की नारी को अब कोई कम कर के नहीं आंक सकता!
(डॉ. संतोष भारती, असिस्टेंट प्रोफेसर, अंग्रेज़ी विभाग, दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स, दिल्ली विश्वविद्यालय)